अमन अक्षर - नमस्कार दादा। सबसे पहले हमें बताएँ कि आपका नाम, जो कि बहुत सुन्दर और रुचिकर है, कैसे मिला? जन्म नाम सम्भवतः कुछ और रहा होगा।
बैरागीजी - जी। बिलकल सही कहा। मेरा जन्म नाम बालकवि बैरागी नहीं था। मेरे माता-पिता ने नाम रखा था नन्दराम दास और बैरागी मेरा जातिगत उपनाम है। एक बार डॉ. कैलाशनाथ काटजू, जो कि तत्कालीन केन्द्रीय गृह मन्त्री और विधि मन्त्री थे, उन्होंने मेरे गाँव मनासा की आम सभा में मेरी कविता सुनकर मेरा नाम बालकवि रख दिया और शायद आनुप्रासिक उच्चारण और रसमय होने के कारण मेरे माता-पिता ने भी यह नाम स्वीकार कर लिया।
अमन अक्षर - कविता से आपका पहला जुड़ाव कब हुआ? स्पष्टतः यह कि पहली कविता आपने कब लिखी?
बैरागीजी - मैंने अपनी पहली कविता, अपने गुरु के कहने पर 9 वर्ष की आयु में, कक्षा चार में लिखी। हमारे विद्यालय में एक भाषण प्रतियोगिता थी जिसमें मुझे विषय मिला - व्यायाम। मेरे माता-पिता बहुत अच्छा गाते थे। उसी गुण का अंश मुझमें भी कहीं न कहीं था। तो, मैंने भी इस विषय पर एक गीत ही लिखा जिसकी पंक्ति थी - ‘कसरत ऐसा अनुपम गुण है, कहता है नन्दराम। भाई, सभी करो व्यायाम’। इस गीत को पसन्द तो बहुत किया गया लेकिन इसमें हमारी कक्षा हार गई थी जिस पर कई लोगों ने आपत्ति भी जताई। लेकिन निर्णायक मण्डल का तर्क था कि मैंने भाषण की प्रतियोगिता में कविता पढ़ी। यह तर्क बिलकुल दुरुस्त था। इस तरह मेरी पहली कविता पर मुझे पराजय मिली। लेकिन ईश्वर की कृपा से गाड़ी चल पड़ी।
अमन अक्षर - आदरणीय! आप अपने परिवार के बारे में बताएँ। आपके माता-पिता और बाकी सदस्य या और आत्मीय अधिकार लेकर पूछें तो अपने जीवन में कभी कोई प्रेम रहा हो तो कृपया बताएँ जो आपकी प्ररणा और सहकार रहा होगा।
बैरागीजी - मैं इस प्रश्न की प्रतीक्षा कर रहा था। जहाँ तक मेरी पृष्ठभूमि का प्रश्न है तो इस विषय से कई लोग अपरिचित हैं। मैं आपको बताऊँ, मैंने अपने जीवन के शुरुआती 23 वर्षों तक भरपेट भोजन नहीं किया। मेरे परिवार को खाना नहीं मिलता था। मेरे विकलांग पिता, मेरी माँ, हम सब गलियों में भटक-भटक कर भोजन इकट्ठा कर अपना भरण करते थे। मैं जब 4 वर्ष की आयु में था तब मुझे मेरा पहला खिलौना जो दिया गया वो भिक्षा-पात्र था (बैरागीजी भरे हुए कण्ठ से कहते हैं) जिसे देते वक्त कहा गया कि जाकर खाने के लिए पड़ौसियों से कुछ माँग लाऊँ। मैं आपके पाठकों से, जो अब वस्तुतः मेरे पाठक हैं, इतना ही कहना चाहता हूँ कि गरीब के घर कभी बच्चा पैदा नहीं होता, केवल बूढ़ा पैदा होता है, जिसके जीवन में कभी जवानी नहीं आती। केवल दायित्व का भार रहता है। लेकिन मैं अपनी माँ का निर्माण हूँ। मैंने अपनी माँ की वो सीख कि ‘कभी टूटना मत’ हमेशा मानी और मैं सदैव लड़ता रहा। ऐसे व्यक्ति के जीवन में कहाँ प्रेमिका का आगमन होता? लेकिन मैं इतना जरूर कह सकता हूँ कि मुझे मीठी नजरों से देखा कई लोगों ने और इसका कारण यही रहा कि लोकप्रियता ईश्वर ने इतनी दी जिसका मैं सदा ऋणी रहूँगा। लेकिन एक बात यह भी कि लोकप्रियता से बड़ा धन भी कोई नहीं है और उससे बड़ा शत्रु भी कोई नहीं है। मैं सबसे यही कहना चाहता हूँ - जीवन में हिम्मत कभी नहीं हारना। मैं आशावादी भी हूँ. और मेरी कविता भी आशा की कविता है। आपका आभार कि आपने ये सवाल किया। आशा करता हूँ मेरी कहानी सभी के लिए प्रेरणा का काम करे।
अमन अक्षर - आपके बारे में इतनी बातें पहली बार किसी के सामने आई होंगी। इसी क्रम से एक प्रश्न फिर से मन में आता है कि इतने संघर्षों के बाद भी स्वयं को इतना संभाल कर शिक्षित किया और इतना यश कमाया। यहाँ.तक कि आपकी कविताओं पर कई लोगों ने पी.एचडी. भी की हैं। यह सब कैसे सम्भव हुआ?
बैरागीजी - सबसे पहले मैं अपनी माँ के सन्दर्भ में एक बात और कहना चाहता हूँ कि मेरी माँ निरक्षर जरूर थी लेकिन अपढ़ नहीं थी। उसका सम्पूर्ण जीवन साक्षात एक विश्वविद्यालय था। उसकी ही प्रेरणा और शक्ति ने मुझे बनाया है। मैंने पहले भी कहा है - मैं माँ का निर्माण हूँ। लेकिन साथ में मेरा अपना एक नीति वाक्य भी है कि जीवन में तीन चीजें अच्छी मिलनी चाहिए। पहली, एक गुरु, दूसरी, अच्छे मित्र और तीसरी, अच्छा जीवन साथी। ये मिल जाएँ तो जीवन सफल हो जाता है। सार्थक हो न हो लेकिन सफल जरूर हो जाता है। मेरे साथ यही रहा कि मुझे ये सभी चीजें सर्वश्रेष्ठ मिलीं। परिवार, दोस्त सभी लोग बहुत अच्छे मिले। जब तक माँ थीं तब तक वो मेरी शक्ति रही। बाद में, ज़ीवन संगिनी ऐसी मिली कि जीवन सहज और सुन्दर हो गया। मेरी ईश्वर से यही कामना है कि अगले जनम में भी ये ही लोग मिलें जो इस जन्म में साथ थे या हैं। लेकिन मेरे जैसा बचपन किसी भी व्यक्ति को न मिले चाहे वह मेरा शत्रु ही क्यों न हो। मैं ईश्वर का इसलिए भी आभार मानता हूँ कि मेरे जीवन में मुझे सम्मान और स्नेह से देखने वाले कई लोग मिले। इससे अधिक मुझे कुछ भी वांछनीय नहीं है।
अमन अक्षर - श्रद्धेय! अब हम आपकी रचनाधर्मिता की ओर बढ़ते हैं। हमें बताएँ कि आपकी स्मृति में कौन सी ऐसी कविता है जिसने आपके और आपके पढने-सुनने वाले लोगों के बीच पहली बार एक सेतु बाँधने का कार्य किया?
बैरागीजी - आपका यह सवाल मुझे गुदगुदा गया। इसी से एक बात ये ध्यान आती है कि ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया लेकिन हम स्वयं को गुदगुदाने के मामले में असमर्थ हैं। हमें गुदगुदाने के लिए किसी और की जरूरत होती है। तो, आपका यह सवाल मुझे बड़ा पसन्द आया। ऐसा है कि हम भारतीय थोड़ा अधिक गम्भीर होकर अपने देवताओं को बहुत कष्ट देते हैं। हमारे देवी-देवता ऊँगलियों से शुरु होकर कमर तक आ जाते हैं। आराधना इतनी करते हैं कि देवता भाग उठते हैं। भगवान विष्णु क्षीर सागर छोड़ लक्ष्मीजी के घर चले गये, भगवान शंकर पहाड़ पर, शिवलोक में बस गए। लेकिन हमारा सबसे बड़ा देवता सूर्य है, जो हमें निरन्तर शक्ति और प्रेरणा देता है। जो अविचल, अटल, अविराम और सतत कर्मशील है। हम एक झूठ रोज कहते हैं कि सूरज डूब जाता है। सूरज कभी नहीं इूबता। यही बात हमने सूरज से पूछी - ‘क्यों सूरज डूब गए?’ इस पर सूरज बोला कि पहले ये अपनी माँ पृथ्वी से पूछो। कहीं वही तो सूर्य की ओर पीठ करके नहीं बैठ जाती है? मैं कहीं नहीं जाता। मैं वहीं हूँ। बाकी सब चल रहे हैं। मेरी एक कविता है जिसमें कहा है कि अँधेरे से लड़ाई बड़ी कठिन है। यह अँधेरा कई तरह का हो सकता है - प्रेम का, सत्ता का, सम्बन्धों का, समाज का....कई तरह का। मैंने सूर्य से प्रश्न करके पूछा -
अन्त मैं यही कहना है - पृथ्वी घूम रही है। सूर्य अपनी जगह सतत कर्मशील हैं, जो कहता है कि हमें भी अपना संग्राम लगातार काम करते हुए लड़ना है। हम जीवनभर घूमते रहते हैं और दोष दूसरों को देते रहते हैं। लड़ना हम सबको पड़ेगा। किसी और से आशा करना बेकार है।
अमन अक्षर - सही कहा आपने। (इसी बीच बैरागीजी कहने लगते हैं)
बैरागीजी - मैंने कहीं कहा है -
इस लड़ाई को लड़े हम कौन से हथियार से?
एक नन्हा दीप बोला - मैं उपस्थित हूँ यहाँ।
रोशनी की ख्रोज में, आप जाते हैं कहाँ?
आपके परिवार में, नाम मेरा जोड़ दें।
(बस) आप खुद अँधियार से यारी निभाना छोड़ दें।
एक छन्द और है जो शायद मुझे अमर ही रखेगा-
जो न दे हमको उजाला वो भला किस काम के?
रात भर जलता रहे, उस दीप को दीजे दुआ।
सूर्य से वो श्रेष्ठ है, तुच्छ है तो क्या हुआ।
साथ ही
सम्बन्ध उनका कुछ नहीं है सूर्य के परिवार से।
अमन अक्षर - आप राजनीति में होकर भी ओजस्विता को बुलन्द करते रहे हैं। ऐसा कैसे हो सका?
बैरागीजी - एक बात सुनो! माँ की आरती में, पूजा में, प्रार्थना में, मन्दिरों में, मस्जिदों में, गिरजा में, गुरुद्वारों में, हर जगह आरती में जलते हुए दिये रखे जाते हैं। बुझे हुए कभी नहीं। इसलिए अपनी जिन्दगी को ओजस्वी रखो। जलती हई, धधकती हुई, मुखर रखो। किसी की परवाह न करो। कोई तुम्हारे अच्छे काम में बाधा नहीं डाल सकता।
अमन अक्षर - आपने साहित्य के साथ-साथ राजनीति को अपनाया हुआ है। आपको इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में किसी दिक्कत का सामना करना पड़ा?
बैरागीजी - मेरे परिवार में मुझसे पहले राजनीति में कोई नहीं रहा और नहीं जानता कि मेरे बाद वाले लोग क्या करेंगे। मैं कभी इस बहस में नहीं पड़ा। लेकिन जिसे आप राजनीति कहते हैं, उस राजनीति में पीढ़ियाँ बदलीं, परिवेश बदला, महत्वाकांक्षाएँ बदलीं, वातावरण बदला और बहुत कुछ बदला। इस प्रकार यदि हम उसी मूलगत राजनीति की बात करें तो आजकल हम राजनीति की बात कम करते हैं और सत्ता की बात पहले करते हैं। सत्ता और राजनीति में फर्क है। बह़ुत फर्क है। पहले तो हम परिभाषित कर लें कि हम बात किसकी कर रहे हैं? मुझे इसमें असुविधा इसलिए नहीं हुई क्योंकि मैं जहाँ-जहाँ बैठा, जिस राज्य सभा में बैठा तो मुझसे पहले वहाँ पर बैठे हुए थे मैथिलीशरणजी गुप्त, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, भगवती शरण जी वर्मा और यदि हम लोक सभा की बात करें तो वहाँ पर भी मुझसे पहले कई श्रेष्ठ साहित्यकार बैठे हुए ये। ऐसा नहीं है कि कलमवाले लोग वहाँ बैठे नहीं रहे हों। लेकिन उन्होंने सत्ता की तरफ मुग्ध नजरों से नहीं देखा। सत्ता की तरफ जब भी उनकी नजर पड़ी तो या तो भृकुटी तानकर देखा, या वीतराग नजरों से देखा। इसलिए उन्हें कोई असुविधा नहीं हुईं। तो, मुझे भी इसमें कोई असुविधा इसलिए नहीं होती है क्योंकि मेरे पास मेरे अपने ऐसे व्यक्तित्व हैं जो मेरे पूज्य और आदर्श हैं। जब हम सत्ता को या राजनीति को कुछ देना चाहते हैं तो हमको कुछ ज्यादा धनी होना चाहिए। हमें धनी यदि कोई रखती है तो सरस्वती रखती है। हमें धनी रखती है तो कलम रखती है। हमें यदि कोई चीज धनी रखती है तो हमारी लोक संस्कृति रखती है, हमारी सभ्यता रखती है।
अमन अक्षर - आप गीत, गजल, छन्दमुक्त सभी तरह की रचनाएं लिखते आये हैं। लेकिन आपको कौन सी विधा ज्यादा प्रिय लगती है?
बैरागीजी - आपने फिर से एक अच्छा प्रश्न किया है। यह बहुत अच्छी बात है। एक बात याद रखिये, हम भारत में रहते हैं और भारत में पहली कविता किसी फूल को देखकर नहीं लिखी गई, किसी नदी को देखकर नहीं लिखी गई, किसी चाँद-चाँदनी को देखकर नहीं लिखी गई, किसी मुग्धा या किसी प्रियतमा को देखकर भी नहीं लिखी गई। पहला छन्द जब फूटा तो वो करुणा से लिखी गया। क्रौंच पक्षी को बहेलिए के बाण से घायल देखकर महाकवि वाल्मीकि से जो पहला छन्द फूटा वो अनुष्टुप छन्द था और करुणा से कविता आईं। जब तक आपके भीतर करुणा है, सम्वेदना है तब तक कविता आपके भीतर बराबर लहरें लेती रहेगी। इसलिए कविता गीत में है कि छन्द में है, लय में है कि अलय में है, मैं इस बहस में कभी नहीं पड़ा। सैकड़ों सालों से लोग भावनाओं को लय में गाते आ रहे हैं। वही कविता है। कविता चाहे छन्द में हो या छन्दमुक्त। कोई छन्द को तोड़ सकता है लेकिन कविता की लय को कभी नहीं तोड़ सकता। और जिसमें लय नहीं हैं वो कविता नहीं हो सकती। लय ही जीवन है। जीवन ही लय है। इसमें से लय चली जाएगी तो प्रलय हो जाएगा। जीवन को लय में रखो। इसलिए मैंने मुक्त छन्द और छन्द, दोनों में प्रयोग किए।
एक छन्द देखिए -
और सितारों की दुनिया के, इसी पार रह जाता हूँ।
क्या समझाऊँ उस पागली को, जिसको ये भी पता नहीं।
जिस धरती पर भार बना हूँ, गीत उसी के गाता हूँ।
मैं देश की स्थिति को ही गाता और लिखता हूँ। जीवन भर, देश की परिस्थिति को ही अपनी कविता का प्रमुख विषय बनाकर रखने की दृढ़ इच्छा भी है।
अमन अक्षर - आज के कवि सम्मेलन के मंचों के बारें में क्या कहना चाहेंगे?
बैरागीजी - आज हिन्दी की वाचिक परम्परा में बहुत जबरदस्त संघर्ष है। मंचों पर वातावरण अनुकूल बनाना पड़ता है। भारत में कविता महलों में थी, वहाँ से निकलकर आम जनता तक आई। आजकल तो मूँगफलीवाले, सब्जीवाले, ठेलेवाले, कपड़े प्रेस करनेवाले कविता की बात करते हैं। वो कविता लिखते भी हैं, पढ़ते भी हैं, सुनते भी हैं और समझते भी हैं। जब कविता महल से निकलकर बाहर आती है तो कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन यदि बाहर आ कर स्तरहीन हो जाएगी तो फिर कुछ नहीं हो सकता। हमें मंचों पर भी कविता के स्तर को बनाए रखना होगा। श्रोताओं का स्तर बढ़ाइए। कविता का स्तर मत गिरने दीजिए।
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श्री बालकवि बैरागी के अन्य साक्षात्कार
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