बिना तपस्या के लोग कवि हो गए हैं और बिना किसी रुचि के लोग श्रोता बन गए हैं।

कैलाश जैन

सरोकारों पर केन्द्रित साक्षात्कार की रोचक कथा 

भवानीमण्डी (जिला झालावाड़, राजस्थान)के अग्रणी वकील श्री कैलाश जैन ने यह साक्षात्कार आमने-सामने बैठ कर नहीं, पत्राचार के माध्यम से लिया था। साक्षात्कार के सवाल-जवाब तो अपनी जगह हैं। लेकिन इस साक्षात्कार के पीछे की कथा तनिक रोचक है।

हुआ यूँ कि सन् 1982 की तीन-चार अप्रेल की सेतु-रात्रि (दरमियानी रात) को भवानीमण्डी से सटे कस्‍बे पचपहाड़ में एक कवि सम्मेलन हुआ था। इसमें श्री हरि ओम पँवार, श्री हुल्लड़ मुरादाबादी सहित दादा भी शामिल थे। कैलाशजी की अनुभूति रही कि दादा ने कविता तो कम पढ़ी, भाषण ज्यादा दिया, एक और पाँच के अनुपात में। दादा की कुछ टिप्पणियाँ कैलाशजी को ‘द्विअर्थी, अश्लील संवाद’, ‘महज सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की महज फुसफुसी कोशिश’, ‘साहित्य या कविता की गरिमा घटाने का प्रयास’ और “स्वयं को ‘दिनकर का मानस-पुत्र या वंशज’ कहनेवाले कवि की, कवि-सम्मेलन के मध्य बेहूदा घटिया, असाहित्यिक फिकरेबाजी” लगीं। उन्हें यह भी लगा कि दादा कि कविताओं-भाषणबाजी में उनकी राजनीतिक चेतना हावी रहती है।

आज कैलाशजी अपनी उम्र के 68वें बरस में चल रहे हैं। 1982 में वे 27 वर्षीय, नसों में उबलते लहू वाले, धधकते, आक्रामक, आक्रोशित युवा थे। यह उम्र आदर्शों को जीनेवाली और मूर्तियाँ खण्डित करने को उतावाली उम्र होती है। कैलाशजी ने दादा श्री बालकवि बैरागी को एक कड़ा पत्र लिखा तो जरूर पर वह दादा को भेजा नहीं। कैलाशजी ने वह पत्र भेजा, साप्ताहिक ‘अंगद’ को। यह  अखबार, वरेण्य सरस्वती-पुत्र स्व. श्री मदन मदिरजी द्वारा संस्थापित है और इन दिनों दैनिक अखबार बन कर अंचल की सेवा कर रहा है। कैलाशजी का यह पत्र ‘अंगद’ ने अपने, 24 अप्रेल 1982 के अंक में ‘एक खुला खत बालकवि वैरागी के नाम...’ शीर्षक से, प्रमुखता से प्रकाशित किया। प्रश्नों में मानो, बालकविजी को भस्‍म कर देने को आतुर लपटें उठ रही थीं। प्रश्नों की भाषा, तेवर और आक्रामकता तिलमिला देनेवाली थी।

पता नहीं, ‘अंगद’ का यह अंक दादा तक पहुँचा या नहीं। किन्तु कैलाशजी ने अपने ये प्रश्न, डाक से दादा को भेजे। (लगता है कि कैलाशजी और दादा का पत्राचार नियमित चलता रहा था। दादा का, 09/03/202 का एक पोस्ट कार्ड भी कैलाशजी ने उपलब्ध कराया है।) दादा को भेजा, कैलाशजी का वह पत्र तो उपलब्ध नहीं हो सका किन्तु कैलाशजी को लिखे दादा के उत्तर से अनुभव होता है कि कैलाशजी ने अपने सवालों की उग्रता, आक्रामकता को अपने पास ही रख लिया। ‘अंगद’ में छपे और दादा को भेजे प्रश्नों की भाषा में ज्वालामुखी-लावे की तपन और केसरिया दूध की, तन-मन को देनेवाली ठण्डक का अन्तर था।

इस साक्षात्‍कार की विशेषता यह है कि  वैयक्तिता से सराबोर प्रश्‍नों के उत्‍तर  कविता, कवि सम्मेलन, कथ्य, प्रस्तुति, कवियों के आचरण, कविताओं के दोहरेपन आदि जैसे व्यापक, लोक-हितकारी और ‘शब्द से सरोकार’ जैसे व्यापक महत्वपूर्ण मुद्दों पर को छूते हैं। मुुद्दों, सरोकारों और चिन्ता की यह ‘व्यापकता’ ही इस साक्षात्कार को सबसे अलग हटकर, विशेष और महत्वपूर्ण बनाती है। यह साक्षात्कार ‘अंगद’ ने ही दो किश्तों में, अपने 07 सितम्बर 1982 और 16 सितम्बर 1982 के अंकों में प्रकाशित किया था। 

कैलाशजी ने कुल जमा तीन प्रश्‍न पूछे हैं। इस साक्षात्कार को प्रकाशित हुए आज 40 बरस से अधिक का समय हो गया है लेकिन कैलाशजी के प्रश्न और दादा के उत्तर एकदम ताजा, ‘आज’ की बातें करते लगते हैं।

पहले पढ़िए दादा का पत्र और फिर पढ़िए यह अनूठा  साक्षात्कार।

- विष्णु बैरागी
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बिना तपस्या के लोग कवि हो गए हैं और 
बिना किसी रुचि के लोग श्रोता बन गए हैं।

मनासा, 9 जून 82

भाई श्री कैलाशजी,

सादर अभिवादन,

कल सुबह बदायूँ, सहसवान और अलीगढ़ के लिए रवाना हो रहा हूँ। 11 और 12 जून को वहाँ बोलना है। अवस्थीजी संयोजक हैं। तैयारी की पूर्व सन्ध्या में आपका, 7 जून का पत्र मिल गया। आभारी हूँ।

मैंने आपको जो भी पत्र लिखे, वे आपकी, अपनी सम्पत्ति हैं। आप उनका चाहे जो उपयोग कर लें। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मेरे पास आपका एक भी पत्र सुरक्षित नहीं है। मैं तो प्रतिदिन आई डाक को तत्काल निपटा कर, फाइल में जाने जैसे पत्र सम्हाल लेता हूँ। दूसरे पत्र, जैसी दिलचस्पी हो, वैसे मित्रों को पढ़वा कर धरती माता को सौंप देता हूँ। आपके पत्र मेरे कई मित्रों ने पढ़े हैं। पर वे सब के सब, नष्ट होने वाले पत्रों के साथ चले गए। अस्तु, आप जैसा भी ठीक समझें, वैसा उपयोग मेरे पत्रों का कर लें। मैं सदैव के अनुसार प्रसन्न रहूँगा।

आपके सवाल मुझे अच्छे लगे। मैं उनके उत्तर विशद् तौर पर दे रहा हूँ। टाईप की हुई दो प्रतियाँ भेज रहा हूँ। साथ में मेरा एक फोटो भी है। आप प्रयत्न यह करें कि ‘राजस्थान पत्रिका’ या फिर दूसरा कोई अन्य पत्र इसको छाप दे। सम्भव हो तो आपका फोटो भी साथ में भेज दें। चूँकि उत्तर विशद् हैं इसलिए समाचार पत्र अपनी सीमा में ही इनका उपयोग करेंगे। यह भी हो सकता है कि आपको इस सामग्री को बार-बार, यहाँ-वहाँ भेज कर  डाक खर्च बिगाड़ना पड़े। पर यदि यह सामग्री छपती है तो बात दूर-दूर तक पहुँचेगी। आवश्यक भी है।

दो प्रतियाँ इसलिए कि एक आप डाक में उपयोग के लिए रखें। दूसरी आपके रेकार्ड के लिए।

और सब अच्छा-भला है। मैं 14 या 15 तक वापस आऊँगा। इधर बदायूँ से लेकर भदोई तक दस-पाँच मंचों पर स्थिति यह आई है कि लोगों ने कवियों को बुरी तरह पीट-पाट कर मंच से उतार दिया। ऐटा में तो पिस्तौल लेकर लोग कवियों के पीछे पड़ गए। मैं तो खैर इस तरह के किसी मंच पर था नहीं पर एक बहुत ही विसंगत स्थिति में से मंच निकल रहा है। किसको दोष दिया जाये? दोनों किनारे टूट गए हैं। एक-दूसरे पर खीजने से तो काम चलता नहीं है। बेकार का तनाव और पैदा हो जाता है। मंच को गम्भीरता से लेने वाले मित्रों का सर्वथा अभाव होता जा रहा है। मैं उस सेतु-पीढ़ी का आदमी मंच पर हूँ जिसे दोनों तरफ हाथ फैला कर याचना करने को विवश होना पड़ रहा है। कवियों से ज्यादह शराब, संयोजक पीने लगे हैं। जो कुछ होता है वह बहुत ही अभद्र और अशालीन होता है। मन मुरझा जाता है। दूर-दूर तक सरसता का पता नहीं है। न कोई फोरम, न कोइ मंच। बिना तपस्या के लोग कवि हो गए हैं और बिना किसी रुचि के लोग श्रोता बन गए हैं। बड़ी पीड़ा होती है। भगवान हम सबको सद्बुद्धि दे। हमको इतनी शक्ति दे कि हम इस जलते हुए जंगल में अपनी फूस की झोंपड़ी बचा सकें।

परिवार में सबको मेरा सादर अभिवादन कहें। आशा है, आप स्वस्थ-सानन्द होंगे। राजेन्द्र भाई को मेरा आदर दें।

इस बात को आप कतई परिहास में न लें। मैं आपको एक बहुत ही सफल, आदर्श और यशस्वी वकील के तौर पर देखना चाहता हूँ। प्रभु मुझे वह समय और उम्र दे।

भवदीय,
बालकवि बैरागी
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भीड़ में कवि अकेला पड़ जाता है।

गत कवि-सम्मेलन के सन्दर्भ में मेरा कहना है कि आपने कविता पढ़ने के बजाय भाषण ज्यादा दिया और मैंने जहाँ भी आपको सुना है, वहाँ आपकी कविता और भाषण का अनुपात क्रमशः एक और पाँच का रहा है। क्या आप नहीं सोचते कि आपका राजनीतिज्ञ आपके कवि पर अकसर हावी रहा है? कवि-सम्मेलन के सार्वभौमिक उद्देश्यों की पूर्ति में क्या आप अपनी इस प्रवृत्ति को अवरोधक नहीं मानते?

आपके इस प्रश्न के लिए आपका आभारी हूँ। आप भवानीमण्डी कवि-सम्मेलन की ही बात नहीं करके इसको सारे कवि-सम्मेलनों का एक इकाई मंच मान लेे तो मेहरबानी होगी। 

मंचों पर भाषण देना मेरी आदत नहीं है। मैं कविता की भूमिका में उतना ही कहता हूँ जितना कि सन्दर्भ से सटा हुआ होता है। भाषण देने के लिए मेरे पास सर्वथा अलग मंच है। आप उस मंच को जानते भी हैं। आज हर कवि, मंच पर प्रायः जो नीति-वाक्य बोल कर ताली लेता है वह मेरा ही है - ‘मैं राजनीति को पाँव की जूती मानता हूँ और साहित्य को सर का साफा। मंच पर चढ़ते समय मैं जूतियाँ मंच से नीचे उतार कर ही चढ़ता हूँ। यदा-कदा साफे की रक्षा के लिए जूती हाथ में आ जाए तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए।’ मेरे इस वाक्य को यथा समय आज हर कवि कहीं न कहीं दुहरा रहा है। खैर, 

होता यह है कि महाकवि अज्ञेय ने एक बहुत बढ़िया बात इस ओर कह कर हमारा मुँह बन्द कर दिया। वे कहते हैं कि आजकल कविता वक्तव्य हो गई है। इसलिए कहीं-कहीं वक्तव्य भी कविता बन जाता है। हर जगह यह नहीं होता। कविता के पहले दी गई टिप्पणी यदि सटीक है तो फिर वह कितनी लम्बी है या कितनी संक्षिप्त, इसका कोई अर्थ नहीं है। गद्य कभी-कभी पद्य से अधिक आनन्द देता है। सवाल आता है भीड़ की मानसिकता का। हमारा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक गद्य को साहित्य के तौर पर गले नहीं उतार पाए। कविता का मतलब हम या तो सुनायी जाने वाली कविता मानते हैं या फिर छन्द, स्वच्छन्द या वैसा ही कुछ। हमारे श्रोताओं की मानसिकता अभी इस ओर खुल नहीं पाई है। वे उन सारी बातों के लिए घर से तैयार होकर नहीं आते जिसे वातावरण कहते हैं। जहाँ वातावरण और मानसिकता बनी-बनाई हो वहाँ कवियों को कुछ भी अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पड़ता है। किन्तु जहाँ हजारों की भीड़ हो और सबको एक मानसिकता के बिन्दु पर लाना होता है वहाँ कवियों को न जाने क्या-क्या कहना और सुनना पड़ जाता है। इसके कारण प्रायः तनाव पैदा हो जाता है और वातावरण जैसा सरस रहना चाहिए वैसा न रह कर तनावपूर्ण हो जाता है। तब फिर सहज होने में घण्टों लगते हैं। 

आज हमारी जनता जिन कविताओं को प्रायः पसन्द कर लेती हैं, वे अकसर समाचार पत्रों की कतरनों जैसी या भाषण जैसी ही होती हैं। जब कवि अपनी ओर से कुछ हट कर कहना चाहता है तब श्रोता उससे समझौता नहीं कर पाते और भीड़ बदल जाती है। भीड़ में कवि अकेला पड़ जाता है। मंच अक्सर बँट जाता है। आज भीड़ को कोई छोड़ना नहीं चाहता। तब, फिर जो कवि स्थिति को सम्हालने आता है वह अपने आप कटघरे में आ जाता है। मुझे इस तरह के, दस-पाँच जगहों के कड़ुवे अनुभव हुए हैं। बीच-बचाव करो तो मारे जाओ। नहीं करो तो कवि-सम्मेलन चला जाता है। यदि आयोजन सफल होता है तो वह उस संस्था का होता है जो आयोजक हुई होती है। पर असफल होने की स्थिति में वह हिन्दी का असफल आयोजन माना जाता है। 

आप शायद नहीं जानते हैं कि कवि-सम्मेलन एक ‘टीम-वर्क’ है। यदि टीम सुगठित और व्यवस्थित है तब तो सब-कुछ ठीक-ठाक निपट जाता है। पर यदि टीम वैयक्तिक हो जाती है तो फिर वह कवि-सम्मेलन नहीं हो कर मात्र एक व्यक्ति का काव्य-पाठ हो जाता है। यह एक विविध रंगों-केनवास वाली विधा है। मंच का केनवास विराट है। चार-पाँच घण्टों में इतना कुछ विविध-रंगी, साहित्य में कहीं नहीं मिलता। शर्त यही है कि श्रोता और कवियों के बीच एक आदरणीय सम्वाद मर्यादा के स्तर पर कायम हो जाए। जिस तरह कतिपय कवि मंचों पर केवल शराब पीने के लिए ही या मात्र चुटकुले ही सुनाने आते हैं, क्या आप नहीं मानते कि श्रोताओं का एक समूह भी घर से चलता ही हूटिंग के लिए है? इस बारे में आपको गहरे से छानबीन करनी होगी। तब फिर हर बात श्रोता को भाषण लगेगी। अपनी-अपनी जगह, श्रोता और कवि, दोनों के पास अपना-अपना एक ‘अहम्’ होता है। दोनों एक क्षण में खुद को ‘प्रिविलेज्ड’ मानते हैं। यहीं से टकराव शुरु होता है। आयोजन सारी बस्ती का नहीं होकर हिन्दी का मान लिया जाना चाहिए, यह मेरा अपना मत है। 

मैं जिस भी मंच पर रहता हूँ, वहाँ चन्द बातों का पूरा ध्यान रखता हूँ। उन बिन्दुओं के लिए अलोेकप्रियता की जोखिम तक लेता हूँ। आप देखते होंगे, काव्य-पाठ के दौरान मंच पर आता हुआ पानी का गिलास तक कई बार मैंने वापस कर दिया है। कवि की तन्मयता टूट जाती है। सारा रस मारा जाता है। चाय की चुस्कियों के साथ यदि मंच पर काव्य-पाठ चल रहा है तो फिर चाय के प्याले में शराब भी आ जाती है। शायद आप समझ गए होंगे। 

मैं कवि-सम्मेलन के मंच को इतना प्यार करता हूँ जितना कि एक किसान अपने खेत को प्यार करता है। यदि भवानीमण्डी के मंच पर खड़ा हो कर मैं आपसे सीधा संवाद करता हूँ तो यह जानकर कि मैं वहाँ अकेला हूँ, वहाँ मेरा-अपना कोई नहीं है, तब फिर मैं किसके लिए लड़ रहा हूँ? मंच और कवि सम्मेलन के हित का सवाल नहीं है। सवाल है, समग्र वातावरण की रसमयता का। सारा आदर्श कवियों में ढूँढना बहुत निराशाजनक स्थिति है। आदर्श एक सापेक्ष ‘टर्म’ है - यह दुतरफा माँग है। जब इतिहास मंचों पर विचार करेगा तब हम लोगों की इस भूमिका का विवेचन होगा।

यदि मेरे कारण (कवि-सम्मेलन के) सार्वभौमिक उद्देश्यों में अवरोध हुआ होता तो मैं कभी से घर में बैठा दिया गया जाता। लोग मुझे अतिरिक्त आदर के साथ बुलाते हैं और मेरी व्यस्तता का अनुमान मुझसे ज्यादा आप खुद लगा सकते हैं। कवि-सम्मेलन का विकास जितना आज हुआ है उसके पीछे मुझ जैसे कई लोगों का यह दृष्टिकोण भी रहा है। आज कवियों को  फुरसत नहीं हैं। हाँ! यदि कवि-सम्मेलन का सार्वभौमिक उद्देश्य आप मात्र मनोरंजन ही मानते हैं तो फिर आप भारी भूल कर रहे हैं। कविता वह है जो जीवन को आगे बढ़ाए। यदि एक रात मनोरंजन देना ही कविता या कवि-सम्मेलन का उद्देश्य बन जाएगा तो हम सब तबाह हो जाएँगे। इस सारी मानसिकता के साथ मेरी बात को आप नये सिरे से कसौटी पर कसें। पूर्वाग्रहों को छोड़ना होगा।

कवि-सम्मेलनों में चुटकुलेबाजी और द्विअर्थी अश्लील संवाद आपकी जानिब से श्रोताओं तक कई बार पहुँचे हैं और मंच की गरिमा इससे क्षत-विक्षत हुई है। आप इस सम्बन्ध में क्या कहना चाहेंगे?

क्या आपने आज के मंच की मुख्य समस्या को गहराई से देखा है? शायद नहीं देखा होगा। आज हमारी मुख्य समस्या है, मंच पर किसी भी करिष्ठ कवि का सर्वथा अभाव। आज कवियों को कविता की गुणवत्ता पर नहीं बुलाया जाता। कौन कवि कितना जमता है, इसके मद्देनजर कवियों की सूची बनाई जाती है। तब, फिर, कवि लोग जमने के लिए कुछ भी टोटकेबाजी करने लग जाते हैं। आप इस सारी स्थिति को खूब समझते हैं। महादेवीजी ने चालीस साल से मंच पर कविता नहीं पढ़ी। तब मैं मंच पर नहीं था। आखिर उन्होंने मंच क्यों छोड़ा? आपने भवानीमण्डी में अचलजी को क्यों नहीं बुलाया? भवानी भाई को न्यौता क्यों नहीं गया? अज्ञेय को सुनने के लिए आपके श्रोता तैयार हैं क्या? चलिए! मैं बहुत पास के नाम पूछता हूँ - चन्द्रकान्त देवताले, दिनकर सोनवलकर, इन्दु जैन, रामविलास शर्मा, विनोद निगम, नईम इन सबने आपका क्या बिगाड़ा है? आप जैसे सुधि श्रोता भी इनको क्यों नहीं बुला पाये? आखिर कोई कारण तो रहा होगा? कविता के प्रति कहीं भी अश्रद्धा नहीं है। फिर ये नाम मंचों पर क्यों नहीं आते? वहीं आ जाईये - मुख्य समस्या है, मंच पर वरिष्ठ कवि का सर्वथा अभाव। इस अभाव के कारण मंच पर बे-लगामी बढ़ती जा रही है। मैंने इस बे-लगामी पर सख्ती से अंकुश लगाया है। इसके लिए मुझे मंचों पर कवियों की कड़वी से कड़वी बातें सुननी पड़ी हैं। चुटकुलों का मैं सबसे बड़ा विरोधी हूँ। हाँ! कोई बात आपने सन्दर्भ पर सटीक कह दी और वह रस को गाढ़ा करती है तो उसका स्वागत है। उसे सहना और स्वीकार करना मैं गौरव समझता हूँ। यदा-कदा उसमें भागीदार भी हो जाता हूँ। मेरे राजनीतिक जीवन को लेकर पचासों पंक्तियाँ मुझ पर सरे आम कही जाती हैं और जड़ी जाती हैं। मैं यदि दो पंक्ति में अपनी बात कहता हूँ तो अपराधी हो जाता हूँ। आपने खुद महसूस किया होगा कि कई मित्रों की चुटकुला-कविता के बाद मैंने खुद उनसे आग्रह किया है कि मेहरबानी करके अब आप कविता भी सुना दीजिए। चुटकुले भीड़ को मजा देते हें। भीड़ के साथ बहना आसान है। ढलान में ढुलक जाना आसान है। पर हजारों का हाथ पकड़ कर स्तर की चढ़ाई पर खींचना बहुत दुष्कर काम है। 

आज मंच के पास उम्र रेख तो है पर स्वास्थ्य की रेख इसकी हथेली में क्षीण है। मैं इस बात को मझता हूँ। मंच पर इसके लिए संघर्ष करता हूँ। कवियों से बात करने का मेरा एक तेवर है। मैं उनको अपमानित करना पसन्द नहीं करता। आप गाली भी दें तो इस तरह दीजिए कि खाने वाले को मजा आ जाए और उसके मुँह से बेसाख्ता दाद निकल जाए। हाँ! मंच पर विनोद का मैं बहुत दूर तक हामी हूँ। पर, वही मंच की मुख्य भूमिका नहीं है। सहज विनोद को विनोद के स्तर तक रखना मुझे अच्छा लगता है। रहा सवाल द्विअर्थी संवादों का तो भाई मेरे! श्लील और अश्लील का अन्‍तर मुझे खूब पता है। मुझे होश रहता है कि मैं भगवान से कोई महत्वपूर्ण काम हाथ में लेकर आया हूँ। चाहे मेरे श्रोताओं में माँ-बहनें नहीं भी हों तो भी मैं जानता हूँ कि मेरी बात दूर तक जानेवाली है। आप भी सहमत होंगे कि कभी भी मनुष्य नहीं बोलता। जब भी बोलता है, मनुष्य का संस्कार बोलता है। मनुष्य तो प्रकृति का एक ‘मेकेनिजम’ मात्र है। मुझे मेरी जिम्मेदारियों और भूमिका का अहसास हमेशा ही रहा है। मैं उस समय तनिक परेशान हो आता हूँ जब सामने, भीड़ में से ऊलजुलूल फब्तियाँ आती हैं और कवियों को उनके उत्तर देने पड़ जाते हैं। ऐसे कई क्षण मेरे सामने भी आये हैं। मैंने यथास्थिति उन क्षणों को निपटाया भी है। पर मैं हर श्रोता को अपना आदरणीय और पूज्य मान कर शुरु होता हूँ। जब उसकी यह छवि मन में टूटने लगती है तब मुझे न जाने कैसा-कैसा लगता है। ऐसे क्षणों में यदि कहीं आपको कुछ वैसा लगा हो जैसा कि आप लिख रहे हैं तो मुझे खुद अपनी समीक्षा करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। मैं आत्म-स्वीकृति को चरित्र मानता हूँ। यदि मैं गलत हूँ तो मान लूँगा कि मैं गलत हूँ या था। आखिर हमारे श्रोता हमारे दुश्मन तो होते नहीं हैं! वे हममें आदर्श ढूँढते हुए आते हैं और यदि निराश होते हैं तो यह हमारी अपनी ओर से छोटी बात होगी। 

आज मंच पर जो इने-गिने बाहोश कवि हैं, उनमें मैं भी एक माना जाता हूँ। शायद आप नहीं जानते हैं कि मैं सुपारी भी नहीं खाता। मेरे कारण किसी भी संयोजक पर किसी भी तरह का अतिरिक्त वजन आज तक नहीं पड़ा। आपके इस प्रश्न के उत्तर में मैं आत्म-निरीक्षण के लिए चौबीसों घण्टे तत्पर हूँ।

यह ठीक हैं कि आपकी अनेक कृतियाँ बाजार में आ चुकी हैं। लेकिन यह तथ्य भी उतना ही सच है कि कवि-सम्मेलनों में आपने अपने श्रोताओं को चन्द, गिनी-चुनी कविताओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिया है। यह बात मैं, आपके, कम से कम आठ कवि सम्मेलन पिछले 6 साल से सुनने के बाद कह रहा हूँ। आप क्या कहना चाहेंगे?

बहुत सही है आपका यह सवाल। यदि आपने दिनकरजी को, भवानी भाई को, बच्चनजी को, शिशुजी को, रंगजी को और नीरजजी को तन्मयता से सुना होता तो यह सवाल करने की नौबत नहीं आती।

कवि जितना लिखता है, उतना सुना नहीं पाता है। उसके लिए सुनाना नितान्त असम्भव है। आज बच्चनजी भवानीमण्डी आ जाएँ तो बिना ‘मधुशाला’ सुनाए उनका उद्धार नहीं होता। लोग उनकी फजीहत कर देंगे। नीरज को ‘कारवाँ’ सुनाये बिना श्रोता अधूरा मानेंगे। भवानी भाई को ‘गीत फरोश’ सुनाना ही होगा। 

आज मंच पर हम लोग एक प्रयोग यह कर लेते हैं कि पहले या दूसरे दौर में कम से कम दो-एक रचनाएँ वे सुनाएँ जो उस स्थान पर नहीं सुनाई थीं। वे रचनाएँ सर्वथा नई नहीं होतीं। कविता, कविता है। दाढ़ी नहीं है कि रोज सुबह उठ कर बना लो। 

इसका दूसरा पक्ष बहुत दिलचस्प है। कवि सम्मेलन पचपहाड़ में है और श्रोता भवानीमण्डी, शामगढ़ के। कवि बेचारा पचपहाड़ में पहली बार कविता पढ़ रहा है लेकिन श्रोता उसे तीसरी बार सुन रहे हैं। वह (कवि) यह मानता है कि उसने यह कविता वहाँ नहीं सुनाई है। श्रोता हैं कि जिद किए बैठे हैं कि नई सुना दीजिएगा। कवि चकरा जाता है। इसे कहते हैं, कवि से पहले कविता का पहुँच जाना। आज केसेट के कारण यह प्रक्रिया कवियों के गले पड़ गई है। एक भी कविता कवि के पास कहने को नई नहीं है। फिर, तत्काल लिखी कविता, कवि पढ़ कर सुना नहीं पाता। सम्प्रेषण मारा जाता है। बिलकुल नये लेखन के प्रयोग गिने-चुने श्रोताओं तक सीमित समारोहों में ही किये जाते हैं और वे होते भी हैं।

पहले दौर में कवि कुछ नया कहने की कोशिश करता है। दूसरे में फरमाइशें शुरु हो जाती हैं। फरमाईश की मनाही का मतलब है श्रोता का ‘सीधा घायल अहम्’ और हो-हल्ला। फिर वही एक-रसता और अन्ततः नीरसता और समाप्त होते-होते जड़ता। आज हमारे अच्छे से अच्छे मंच संचालक को भी पल्ले नहीं पड़ता कि कवि-सम्मेलन को किस तरह शुरु करना और किस तरह समाप्त करना है। इसके समानान्तर कई कविताएँ, कवि की अपनी, आत्मीय और प्रिय हो जाती हैं।  कई कविताएँ समय के साथ चलती हैं और समय के साथ नष्ट हो जाती हैं। कई कविताओं के लिए उस शहर में श्रोताओं का बिलकुल नया समूह बनकर तैय्यार हो आता है। यह एक बहुत ही जटिल समीकरण है।  इस समीकरण में से कवि-सम्मेलन को निकालना समय की बहुत बड़ी आवश्यकता है। चीन और पाकिस्तान युद्ध के समय की तात्कालिक कविताओं को लोग मंचों पर माँगते भी हैं और (कवि उन्हें) पढ़ते भी हैं। समय तो आपके पास ले-दे कर उतना ही है। उसे आप किसी भी तरह बिता लीजिएगा।

एक सर्वथा नई बात की तरफ आपका ध्यान खींचने का उपक्रम करूँ। गए तीन साल से आप शायद महसूस कर रहे होंगे कि चिन्तन तो चल रहा है लेकिन हर विधा में लेखन प्रायः ठप्प हो गया है। आपको, कुछ भी लिख कर सुख नहीं मिलता, कुछ भी पढ़ कर सन्तोष नहीं होता और कुछ भी सुनकर आनन्द नहीं आता। सारा परिवेश एक बेहूदा जड़ किस्म का केंचुल मारे बैठ गया है। चिन्तन के स्तर पर कमी नहीं है। कमी है, सृजन के स्तर पर। लिखना, छपना और खपना - ये अलग-अलग प्रक्रियाएँ हैं। निरन्तर लिखना अलग बात है। अनवरत छपना अलग बात है और मंच पर खप जाना अलग बात हे। देश बहुत बड़ा है। लोग कुल पाँच कविताएँ लिख कर अखिल भारतीय कवि बन गए हैं। कभी भाई सोमजी ठाकुर से बात कीजिए। वे पूर 15 साल तक तीन कविताएँ लेकर सारे देश का भ्रमण कर आए। आज नीरजजी जिस रुबाई से मंच पर कविता शुरु करते हैं वह आपकी उम्र और मेरे मंचीय जीवन से ज्यादा उम्र वाली रुबाई है। 

एक समय था जबकि कवि लोग पहले दौर में नई कविता सुनाने का साहस करते थे। आज वे तीसरे दौर का इन्तजार करते हैं। मेरी अपनी दो कविताएँ मुझे तोड़ कर रखे जा रही हैं। एक तो है मालवी की ‘पनिहारी’ और दूसरी ‘वंशज का वक्तव्य: दिनकर के प्रति’। ‘पनिहारी’ मेरी, सन् 1955 की कविता है। जहाँ जाता हूँ, लोग उसी चाव से सुनते हैं। दिनकरजी पर लिखी गई कविता मेरी सन् 1975 की कविता है। सारे देश में जहाँ-जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ-वहाँ इसके बारे में संयोजक और श्रोता पहले ही वचन ले लेते हैं। अब कहिए! कैसे इस हालत से उबरा जाए?

आवागमन के साधन और कविता की प्यास ने श्रोताओं को झमेले में डाल दिया है। जहाँ जाओ, उन कवियों से वे-की-वे कविताएँ सुन-सुन कर लोग ऊब गए हैं। कवियों की हालत यह है कि वे-के-वे श्रोता अगली पंक्ति में बैठे हुए मिल जाएँगे। ताजगी कहाँ है? पचपहाड़ में अगली पंक्ति गरोठ के श्रोताओं ने घेर रखी थी। भवानीमण्डी तो खैर समझ में आती है, पर यह शामगढ़ कहाँ पहुँच गया उस भीड़ में? सौ-सौ मील तक का इलाका कवि-सम्मेलन की परिधि में आ गया है। तीन घण्टे आने के, तीन घण्टे जाने के और छः घण्टे सुनने के। फिर भी  वही की वही निराशा! इस निराशा के आकाश में मैं भी कहीं टँगा खड़ा हूँ।

मूल बात यह है कि आज चूँकि राजनीति ने देश की वाचा को जड़ बना दिया है इसलिए मात्र कवि-सम्मेलन ही वह विधा बची है जो कुछ बोल कर अपने मुखर होने का प्रमाण दे रही है। तपस्या के तट टूट गए हैं। कवियों की भागमभाग इतनी बढ़ गई है कि केलेण्डर छोटा पड़ गया है। आयोजन के सन्दर्भ में पैसे ने अपना अर्थ खो दिया है। आप खुद कोई रास्ता सुझा सकें तो प्रयत्न कीजिएगा। मैं आपके साथ हूँ।

बाजार में जाना और बात है और दिलों में बसना बिलकुल और बात है।
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भवानीमण्डी के अग्रणी एडवोकेट श्री कैलाश जैन साल में दो बार अपनी जन्म वर्ष गाँठ मनाते हैं। कागजों में वे 02 जुलाई 1955 को जन्मे और वास्तविकता में 08 जुलाई 1955 को। उनका पता - 34 बन्दा रोड़, भवानीमण्डी - 326502 और मोबाइल नम्बर 92145 51663 है।

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अगला साक्षात्‍कार -  श्रीमध्‍य भारत हिन्‍दी साहित्‍य समिति, इन्‍दौर की, अपने प्रकाशन के सौ वर्ष पूर्ण करने को अग्रसर मासिक पत्रिका वीणाके सम्‍पादक श्री राकेश शर्मा से दादा की लम्‍बी (लगभग पौने दो घण्‍टे) बातचीत।


श्री बालकवि बैरागी के अन्‍य साक्षात्‍कार








 

श्री अमन अक्षर से बालकवि बैरागी की बातचीत यहाँ पढ़िए।


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