डॉक्टर अशोक बैरागी
ख्यात बाल साहित्यकार डॉ. प्रकाश मनु और उनकी जीवनसंगिनी डॉ. सुनिता मनु के साथ डॉ. अशोक बैरागी।
भूण्डलीकरण के इस वैज्ञानिक दौर में मनुष्य अधिक सामाजिक हुआ है या एकाकी?
आज के वैज्ञानिक युग में अत्यधिक सम्वाद एवं संचार यन्त्रों ने ‘मनुष्य’ को न तो सामाजिक रखा है न पारिवारिक। आज ‘मनुष्य’ एकदम वैयक्तिक होकर शनैः-शनैः एकाकी होता जा रहा है। उसकी पारिवारिकता तक मोबाइलों, वॉट्स एप तथा कम्प्यूटरों ने छीन ली है। आप अपने ही परिवार में यह वैज्ञानिकता और आधुनिकता देख सकते हैं।
स्वतन्त्रता के बाद अपने राष्ट्र के विकास में सर्वाधिक योगदान किस भाषा का है?
उत्तर - स्वतन्त्रता के बाद प्रत्येक भारतीय अंचल में वहाँ प्रचलित भारतीय भाषा ने राष्ट्रीय विकास में अपनी विकास की प्यास को बुझाने की कोशिश की है। हिन्दी इस विकास चेतना में सबसे आगे और प्रमुख है।
क्या भाषाएँ धार्मिकता को निर्धारित करती हैं, जैसे अंग्रेजी-क्रिश्चियन, उर्दू-मुस्लिम और हिन्दी-हिन्दुत्व को?
नहीं। अपने राजेश रामायणी को रामायण पर प्रवचन करते नहीं देखा है। वे जन्मना मुस्लिम हैं और आज भी अपनी मस्जिद मे नमाज पढ़ते हैं। बाइबिल का मालवी भाषा में अनुवाद मेरे पास सुरक्षित रखा है। कृपा करें और भाषा को अपनी धार्मिकता से नही जोड़ें। जैन प्राकृत भाषा और बौद्ध पाली भाषा का उपयोग एवं प्रयोग आज भी करते हैं।
आज देश में हिन्दी बोलने व समझने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। दक्षिण में भी विरोध कम हुआ है। इसमें नए-नए पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। कुछ अन्य देशों में भी शिक्षण के लिए स्वीकार किया है और स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करने वाले सरकारें भी आईं। लेकिन हिन्दी आज तक संवैधानिक तौर पर राष्ट्रभाषा घोषित नहीं हो पायी। इसका मुख्य कारण आप क्या मानते हैं?
आपने मेरे जिस लेख को पढ़कर यह प्रश्नावली तैयार की है, उसे कृपया फिर पढ़ने का कष्ट करें। मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ (और आज फिर कहता हूँ) कि राष्ट्रभाषा के मामले में हिन्दी किसी सरकार, किसी संविधान और किसी संसद की मोहताज नहीं है। हिन्दी आजादी से पहले भी भारत की राष्ट्रभाषा थी, आज भी राष्ट्रभाषा है और कल भी रहेगी। हिन्दी का संघर्ष ‘राष्ट्रभाषा’ का नहीं अपितु ‘राजभाषा’ का है। मेहरबानी करें और हिन्दी को किसी सरकार की दया पर नहीं छोड़ें। लालकिले पर वो प्रधानमन्त्री एक सालभर भी नहीं टिक पायेगा जो हिन्दी नहीं जानता हो।
संविधान के अनुच्छेद 343 (3) में यह प्रावधान था कि संविधान लागू होने के 15 वर्षों तक अंग्रेजी ही सरकारी कामकाज की भाषा रहेगी। लेकिन राजभाषा अधिनियम 1967 पास करके उसे अनन्त काल के लिये स्थायी कर दिया। 1970 में राजनायण नामक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई इसलिए नहीं हुई क्योंकि वह हिन्दी में बहस करना चाहता था। 2004 में राजकुमार कौशिक की याचिका ही रजिस्टर नहीं की गई क्योंकि वह हिन्दी के अधिकार के लिए हिन्दी में लिखी गई थी। (दैनिक जागरण, 9 सितम्बर 2013) सर्वोच्च न्यायालय सभी कार्रवाइयाँ अंग्रेजी में करता है जबकि हिन्दी इस देश की मौलिक और प्रथम भाषा (मातृभाषा) है। ऐसी स्थिति में क्या हमारी न्याय व्यवस्था गूँगी और बहरी नहीं है?
इस प्रश्न की मुझे प्रतीक्षा थी। धन्यवाद। आपके पास आपके-अपने क्षेत्रों से आपके ही द्वारा चुने गये सांसद (लोकसभा सदस्य) हैं। उनसे कहें कि इस प्रश्न को लोकसभा में उठाकर अपनी सरकार से इसका प्रामाणिक उत्तर ले लें। यह देश की अस्मिता से जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
पुष्पेन्द्र चौहान, श्यामरुद्र पाठक, विनोद गौतम, ओमप्रकाश हाथपसारिया, देवीसिंह रावत आदि 14-15 सालों से जन्तर-मन्तर दिल्ली में ’अखिल भारतीय भाषा आन्दोलन’ के बैनर तले धरने पर बैठे आन्दोलन कर रहे हैं ताकि सर्वोच्च न्यायालय, संघ लोकसेवा आयोग, विधि और चिकित्सा के क्षेत्र में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करके हिन्दी को उचित स्थान मिले। आपके विचार से क्या धरने-प्रदर्शन से हिन्दी को वह स्थान दिलाया जा सकता है? यदि नहीं तो हिन्दी कैसे स्थापित होगी?
‘अखिल भारतीय भाषा परिषद्’ जो आन्दोलन और धरना प्रदर्शन दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर कर रही है उसे सफलता निश्चित मिलेगी। जो यह प्रतिष्ठा मूलक काम कर रहे हैं वे बिल्कुल सही काम कर रहे हैं। मैं उनको प्रणाम करता हूँ और आपसे कहता हूँ कि उनसे जुड़ें ओर उनका अभिनन्दन करें। उन्हें मेरी बधाई है। मुझे पता है कि उन्होंने लाठियाँ भी खाई हैं और जेले भी देखी हैं।
महोदय! जब अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भाषा की बात उठती है, हम हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में अन्तरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने के तर्क व सिफारिशें करते हैं। जबकि अपने ही देश में राष्ट्रभाषा को उसका सम्मान व स्थान नहीं दे पा रहे है। आजादी के 68 साल बाद भी। क्या पहले अपने गिरेबान में झाँंकने की आवश्यकता नहीं है? या ऐसी माँग करना औचित्यपूर्ण है।
यह प्रश्न भी आप अपने सांसद महानुभावों द्वारा संसद के दोनों सदनों में उठाने की कृपा करें। प्रामाणिक उत्तर वहीं से मिलेगा।
वैश्विकरण के इस दौर में सारा विश्व एक भाषा, एक संस्कृति की ओर बढ़ रहा है। फिर ऐसे परिवेश में अपनी भाषा व संस्कृति से चिपकना, उसका प्रचार-प्रसार करना कितना उचित है? क्या ऐसा करना संकुचित मानसिकता का प्रतिफल है?
आप (याने कि हम भारतीय) अन्तर्राष्ट्रीय बनने के नशे में राष्ट्रीय भी नहीं रहने के कुचक्र में फँस रहे हैं। आप अपनी माँ का दूध पीकर पले और बढ़े हैं इसका ध्यान रखें। वैश्वीकरण शब्द को हिन्दी का दुश्मन मत बनाईये। फिर से परिभाषित करें तो ठीक रहेगा।
आज हिन्दी जैसी वैज्ञानिक, प्राचीन और विशाल भाषा का स्वरूप निरन्तर बदल रहा है तो लोक भाषाएँ तो बिल्कुल ही समाप्त प्रायः हो जाएँगीं। इनका संरक्षण कैसे किया जाए?
परिवर्तन और बदलाव एक शाश्वत प्रक्रिया है। यह अनवरत है। इस पर कोई पूर्णविराम नहीं लगता। भाषाएँ आपस में शब्दों का आदान-प्रदान करती रहती हैं। किसी भी भाषा के जीवित होने का यही एक प्रमाण है। लोकभाषाएँ यदि लुप्त होती जा रही हैं तो उनके शब्द-धन को सुरक्षित रखने के लिये हमारे शोधार्थियों को आगे आना चाहिये। ऐसी एकाध भाषा के शब्द भण्डार को संग्रहित करके सुनिश्चित रखने के लिये हमारे शोधार्थियों को आगे आना चाहिये। ऐसी एकाध भाषा के शब्द भण्डार को संग्रहित करके सुनिश्चित रखने का काम आप भी हाथ में ले सकते हैं। सोचिये, शायद दिशा मिले।
आपने साहित्य और राजनीति दोनों में काम किया है। हिन्दी भाषा के विकास में आप अपनी भूमिका को कैसे रेखांकित करेंगे?
मेरा सूत्र वाक्य है -‘साहित्य मेरा धर्म है-राजनीति मेरा कर्म है।’ मैं लक्ष्मण रेखा का अर्थ और मर्म जानता हूँ।
आपने लेखन की शुरूआत कब और कैसे की ?
यह मेरे जीवन का महत्वपूर्ण पृष्ठ और प्रश्न है। जब मैं कक्षा चौथी का विद्यार्थी था और मेरी आयु मात्र 9 वर्ष थी तब मैंने अपने विद्यालय की कक्षा प्रतियोगिता में एक प्रतियागी और कक्षा प्रतिनिधि के नाते पहली कविता ‘भाई सभी करो व्यायाम’ लिखकर-गाकर-सुनाकर-अपनी माँ सरस्वती के चरणों से उनकी पायल का पहला घुँघरु प्राप्त कर लिया था। कहानी लम्बी है।
अभी नवम्बर 2015 में सहिष्णुता का मुद्दा उछला। उसमें साहित्य और संस्कृतिकर्मियों ने अपने पुरस्कार व सम्मान लौटाए। उस विषय में आपकी क्या राय है? ऐसा करना कितना सही है या गलत? इससे पूर्व भी जाति, धर्म व सम्प्रदाय को लेकर दुर्घटनाएँ घटी हैं या इन्हें विकृत बना कर पेश किया गया वो चाहे एम. एफ. हुसैन हो या फिर दिल्ली मे मारे गए सिख। इन्दिरा गाँधी की मृत्यु पर 1984 में, तब किसी साहित्यकार ने ऐसा क्यों नहीं किया?
प्रत्येक कलमकार, चाहे वह महिला हो या पुरूष अपने मन-महलों का राजा या रानी है। उसे जैसे जब सूझे वैसा वह करना या करती है। उसे किसी निदेश या उपदेश की आवश्यकता नहीं है।
आप किसके लिए लिखते हैं?
स्वान्तः सुखाय भी और प्रत्येक सम्वेदनशील व्यक्ति और समुदाय के लिये लिखना मेरा आत्मानन्द है।
अभी तक आप बड़े पुरस्कार व सम्मानों की दौड़ में क्यों नहीं आ पाए? यहाँ अकादमियों में नीति की जगह कहीं राजनीति तो काम नहीं करती?
लगाईये एक ठहाका। मैं न तो कहीं याचक हूँ और न ही आवेदक। दावेदार तो कहीं भी नहीं। क्षमा करें मैं किसी कतार या भीड़ में भी नहीं हूँ।
महोदय! मैंने ‘अपनी गंध नहीं बेचूंगा’, ‘झर गए पात’, ‘हैं करोड़ों सूर्य’, और ‘गन्ने! मेरे भाई’ आदि रचनाएँ यूट्यूब पर देखी-सुनी हैं। हृदय आनन्द से खिल गया। ये बहुत-बहुत अच्छी लगीं। इसके साथ मैनें साहित्य अमृत फरवरी-16 में प्रकाशित ‘धरती माता सबकी माता’ कविता और सामयिक सरस्वती में प्रकाशित ‘हिन्दी के महासागर में’ लेख बड़ी रुचि व उत्साह से पढ़े हैं। महोदय! ऐसी सुन्दर, ओजस्वी काव्य संकलनों के नाम, उनके प्राप्ति स्थान के विषय में बताएँ?
इसके लिए अच्छी भली प्रश्नावली को विकृत मत कीजिए। कोई रास्ता निकालें, पत्रिकाओं के पृष्ठों की सीमाएँ होती हैं।
आजकल आप क्या लिख रहे हैं?
समय-समय पर जो भी सूझता है और मन देव जो भी बूझता है, वह हिन्दी और मालवी में लिख ही रहा हूँ। आपने मुझे पढ़ने के बाद ही मुझसे प्रश्न किये हैं। आपके साधुवाद का मैं आभारी हूँ। धन्यवाद।
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यह साक्षात्कार आमने-सामने नहीं, पत्राचार से लिया गया है।
डॉक्टर अशोक बैरागी का परिचय।
अगली कड़ी में, राजस्थान के झालावाड जिले के भवानीमण्डी के अग्रणी एडवोकेट श्री कैलाश जैन द्वारा लिया गया पत्राचार-साक्षात्कार और इस साक्षात्कार की रोचक कथा।
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