राधेश्याम शर्मा के सवाल - बालकवि बैरागी के जवाब
दादा श्री बालकवि बैरागी का अन्तिम साक्षात्कार
(मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय नगर नीमच के शासकीय मॉडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में अंग्रेजी के व्याख्याता श्री राधेश्याम शर्मा से दादा श्री बालकवि बैरागी का यह सम्वाद लिखित प्रश्नोत्तर के रूप में हुआ था। दादा का देहावसान 13 मई 2018 को हुआ था। राधेश्यामजी को यह साक्षात्कार, डाक से 16 मार्च 2018 को मिला था। )
(दादा द्वारा दिए गए, राधेश्यामजी के प्रश्नों के उत्तर के एक पन्ने की फोटो ध्यान से देखने योग्य है। इतनी बारीक, एक समान अक्षरोंवाली लिखावट में एक भी जगह कोई काट-छाँट नजर नहीं आती। दादा के उत्तर ऐसे नौ पन्नों में हैं। कल्पना की जा सकती है राधेश्यामजी के जवाब लिखने में दादा की एकाग्रता, तन्मयता कितनी/कैसी रही होगी? लगे हाथ यह कल्पना भी कर लीजिए कि इस साक्षात्कार को टाइप करने में मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी।)
प्रश्न - ‘लिखना’ आपके लिए क्या है - आदत? नशा? कर्तव्य? प्रेम? शौक?
उत्तर - बड़ा सुखद प्रश्न है आपका। धन्यवाद। लिखना मेरे लिए एक ईश्वरदीय आदेश है। आदि पिता परमेश्वर ने मुझे जन्म देते समय ही जो कुछ दिया, वह तो दिया ही, पर, एक लेखनी, एक कलम भी थमा दी और मुझसे चुपचाप कह दिया ‘तू धरती पर जा रहा है। संसार के विशेष देश खण्ड ‘भारत’ में जन्म लेगा। ले! यह कलम अपने हाथ में थाम ले। वैसे यह ‘कलमुँही’ होगी-काली स्याही से लिखेगी। पर तू थोड़ा सा ध्यान रखना, कि धरती पर जाकर इससे ऐसा कुछ मत लिखना कि तेरा मुँह भी काला हो जाए। इस ‘कलमुँही’ को सूरजमुखी, चन्द्रमुखी, रजतमुखी या स्वर्णमुखी सिद्ध करना। जाओ।’ धरती पर आते-आते किसी अनजाने मोड़ पर माँ रस्वती ने अपना आँचल मेरे सिर पर फैला दिया और मैं भारत जैसे पुण्यवान देश में एक मनुष्य बनकर अपनी माँ की गोद, पिता की छाया और आप सभी की संगत में आ गया। बस! तब से आज तक लिखना मेरी वृत्ति, प्रवृत्ति, आदत, कर्तव्य, प्रेम, नशा या शौक आप चाहे जो समझें, वह हो गया।
सरस्वती माँ ने आशीर्वाद देते हुए मेरी कलम से कहा - ‘तू सतवन्ती रहना, तेरी कोख फले-फूले, तुझे यश मिले। यशवन्ती भव। और फिर, सब कुछ आपके सामने है। जो कुछ हो रहा या आपको लग रहा है, उसका माध्यम, एक तुच्छ निमित्त ईश्वर ने मुझे भी बनाया। मेरा भाग्य-लेख, मेरी ललाट-लिपि में जो कुछ उसने लिखा, उसके अनुसार मैं जी रहा हूँ। करुणा, बुद्धि, विवेक, वेदना, व्यथा, सम्वेदना, विरह-मिलन, मान-अपमान, श्रद्धा, सम्मान, विद्या, व्यसन जो कुछ उसने दिया, वही सम्पदा लेकर मैं आपके बीच में हूँ।
मैं संसार को असार नहीं मानता। संसार मेरे लिए सारभूत है और इसे सारस्वत मानकर अपनी प्रकृति और अपने युगीन पुरुषार्थ का सदुपयोग करना मेरा धर्म है। हम मनुष्य होकर भी संसार को सारभूत नहीं बनाए रख सके तो फिर समूचे संसार में भारत और भारत माता जैसे पवित्र शब्द अपना अर्थ ही खो बैठेंगे। यही कुछ मेरा मनोदेव मुझसे साँस-साँस कहता रहता है और मैं किसी क्षितिज पर सप्तरंग-नवरंग-इन्द्रधनुष अपनी कल्पना और आराधना से बनातारहता हूँ। इसका जो भी अर्थ लगाएँ, लगा लें। आप स्वतन्त्र हैं। आपके इस प्रश्न ने मुझे एक नया साहस दे दिया। मैं कृतज्ञ हूँ।
प्रश्न - आपको कवि बनाने में शिक्षा-शिक्षक-परिवार-समाज के योग का अनुपात क्या रहा? हर कोई कवि नहीं बनता। क्या चीज है जो कवि बनने के लिए जरूरी है?
उत्तर - साहित्य-कला-संस्कृति, यह सब संस्कारगत ईश्वरीय सम्पदा है। कविता और कवि-कर्म इस सम्पदा का एक अंग और अंश है। मातृ-गर्भ से ही यह संस्कार-सम्पदा हमें मिल जाती है। जब हम मातृ-गर्भ से बाहर, इस धरती पर आते हैं तो इस संस्कार-सम्पदा को समृद्ध रखने के लिए हमें न जाने कहाँ-कहाँ से, न जाने कैसी-कैसी और न जाने कितनी-कितनी सम्पत्ति लेनी पड़ती है। यह प्रक्रिया आजीवन चलती है। इसका पात-अनुपात लगाना असम्भव है। माता-पिता हमें बोल-चाल सिखाते हैं। परिवार और समाज हमें लोक व्यवहार तथा शिष्टाचार, सदाचार और सभ्यता का प्रशिक्षण देते हैं। शिक्षक हमें सिखाता है - विद्या विनयेन शोभते। यदि आप विनीत और विनम्र नहीं है तो आप कभी भी सुदृढ़ जीवन नहीं जी सकते। गुरु हमें शिक्षा के साथ दीक्षा देता है। हम दीक्षित होकर सार्थक जीवन जीते हैं। हमारे पुरुषार्थ को चैतन्य और जाग्रत रखता है हमारा परिवेश। बीता अतीत और अनागत भविष्य हमें अपना वर्तमन जीना सिखाता रहता है। यह एक अनन्त प्रक्रिया एवम् प्रशिक्षण है। यहाँ समय, स्थिति और परस्थिति हमारे प्रशिक्षक हैं। आपको जिज्ञासु बनाये रखने की गुदगुदी समय देवता या काल देवता चलाता रहता है। आपका धर्म-कर्म-अध्यात्म-आस्था और निष्ठा आपको सक्रिय रखते हैं। आदान-प्रदान आपके जीवन-मन्त्र होते हैं। अभाव आपके सच्चे साथी और मित्र रहते हैं। कल्पना आपकी सहचरी और प्रतिभा आपकी प्रहरी हो जाती है। इनसे और इन जैसे तत्वों से आप जितना कुछ, जैसा कुछ लेना चाहें वैसा अपनी आकांक्षा के साथ ले सकते हैं।
यह एक अमृत प्यास है। यह प्यास यदि बुझ गई तो मान लो कि आप निष्प्राण हो गए। ऐसी ही अज्ञात और और अदृश्य निधियाँ आपको समृद्ध करती रहती हैं। आप, चूँकि एक जीवधारी, देहधारी मनुष्य हैं इसलिए ‘सब कुछ’ नहीं तो भी ‘बहुत कुछ’ अतिरिक्त लेकर एक ‘कवि’ भी हैं। स्वयम् को अलग या विशेष मानकर विपरीत मत चलिए। आँसू और विकल वेदना आपके पास अतिरिक्त और विशेष सम्पदा है। इस सम्पदा का सदुपयोग आपका व्रत हो तो लोग आपको ‘कवि’ कहते और मानते रहेंगे। सस्मित और सविनय शैली आपको कुछ विशेष सम्बोधन देती रहेगी जिसमें ‘कवि’ भी एक सम्बोधन होगा। करुणा को मरने मत दीजिए, कविता जीवित रहेगी। कवि बने रहोगे।
प्रश्न - कविता आपको निष्प्रयास या सहज मिल जाती है? आप ‘स्वान्तः सुखाय’ लिखते हैं?
उत्तर - कविता को मैं एक सम्वेदनशील मन की सहज अभिव्यक्ति मानता हूँ। यदि आपके पास व्यथा, करुणा और सम्वेदना है तो आपका अन्तर्यामी स्वयम् बोल उठता है। कहता है - ‘सोचता क्या है? उठा लेखनी! व्यक्त कर दे उसे जो कुछ भीतर छटपटा रहा है। अपनी बेचैनी व्यक्त कर दे।’ यह एक निष्प्रयास सर्जना है। जो सृजित होना चाहता है, वह आपको चैन नहीं लेने देगा। कोई ‘वियोग’, संयोग से स्वमेव व्यक्त हो जाता है। अज्ञात प्रेरक शक्ति सारे सुयोग जुटा देती है। आप पिंगल जानें या नहीं जानें, आपकी अभिव्यक्ति, आपका सारस्वत विचार, भाषा और वाणी का सहारा लेकर सार्वजनिक होने की प्रक्रिया में प्रकट हो जाता है। सम्प्रेषित होने की आकांक्षा उसे आकार दे देती है। वह छन्द, स्वच्छन्द, मुक्त छन्द, गद्य, पद्य या गल्प कुुछ भी हो सकता है। यदि वह सम्प्रेषित होने की सफलता वाला शब्द समूह हो तो अपना रास्ता खुद बनाता हुआ समाज और लोक में प्रवेश कर जाता है। उसका प्राण-तत्व उसे यायावर बना देता है। वह एक जाग्रत अवचेतना का अवतरण है। शब्द उसे अपने हृदय में बैठाकर उसके वाहक बन जाते हैं। उसका तन कैसा भी हो, पर मन सारस्वत और शिवम् वाला होना जरूरी है। एक निष्प्रयास सहजता उसे आकार और लोकाचार का आचरण दे देती है। समाज उसे कविता मानकर उससे जुड़ जाना चाहता है। इस प्रक्रिया को पूरा करनेवाली अभिव्यक्ति कविता कहाती है। उसकी गेयता, अगेयता बाद की बात है। लोक स्वीकृति पहली बात है। वह सर्जक को भी सुख देती है और श्रोता या पाठक को भी नवरस दे देती हे।
मैं मात्र अपने सुख के लिए नहीं लिखता। हाँ, कभी-कभी ऐसा हो जरूर जाता है। मेरे सामने मेरा लोक और मेरी भूमि का सुख जरूरी है। सुख स्वयम् को मिले या नहीं, पर शिव (सुख) प्रत्येक उस प्राण और प्राणी को मिले जो ‘शिव’ के लिए बेचैन, मारा-मारा फिर रहा है। ‘सर्वजन सुखाय’ भी एक सूत्र है, एक मन्त्र है। यह एक साधना है। मैं वैसे भी इसका एक साधक हूँ।
प्रश्न - क्या आपको लगता है कि आपकी कविता ने पराकाष्ठा छू ली है? जैसे कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, गालिब, मीर, निराला, मुक्तिबोध.....?
उत्तर - मुझे, अपने बारे में न कोई भ्रम है न कोई गलतफहमी। मैं आज भी कविता लिखना सीख रहा हूँ। कविता का, प्राथमिक स्तर का एक विद्यार्थी हूँ। मेरी यह पढ़ाई आजीवन चलती रहेगी। हमें अपनी मौलिकता पर हमेशा गर्व होता है। यह गर्व हमें दम्भ और अहंकार की अँधरी गुफाओं में धकेल देता है। मुझे खूब पता है कि भारत वेदों और उपनिषदों का देश है। हमारी सृष्टि के एक-एक कण, एक-एक अणु, एक-एक पल पर, वेद रचयिताओं ने रच दिया है। फिर हम कहाँ मौलिक हैं? आपने स्व. साहिर लुधियानवी का एक शे’र सुना होगा। उन्होंने लिखा है और कहा है -
जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं’
‘दुनिया ने मुझे जो-जो अनुभव और तजुर्बे (भले-बुरे) हवादिस की सूरत में मुझे दिए हैं, मैं वे ही आपको लौटा रहा हूँ।’ अब बताइए! कहाँ है मौलिकता? हम किस पर इतराएँ? किस पर अकड़ें? इससे आगे मैं एक बात और जानता-मानता हूँ। वह यह कि आप किसी देवता की नैवेद्य थाली में से कुछ खायेंगे तो वह प्रसाद माना जाएगा। पर यदि आप किसी ऐरे-गैरे की थाली में से खायेंगे तो झूठा-एँठवाड़ा और टुकड़ा माना जाएगा। यदि कुछ खाना है तो देव थाली में से खाओ। ऐरे-गैरे की थाली में से टुकड़ा मत तोड़ो।
मैं फिर कह रहा हूँ कि मुझे अपने बारे में न कोई भ्रम है न कोई गलतफहमी। और स्वयम् की रचनाकर्मिता पर न कोई दम्भ है न अहंकार। मैं तब भी कविता का, रचनाधर्मिता और काव्यकर्मिताता का एक विद्यार्थी था और आज भी एक सामान्य विद्यार्थी हूँ। लिखना सीख रहा हूँ। मेरा यह अभ्यास आजीवन चलता रहेगा। इस प्रश्न का उत्तर कई पृष्ठों में दिया जा सकता है। पर इस उत्तर को फिलहाल इतना ही पर्याप्त मानता हूँ। वैसे भी मैं एक ‘बालकवि’ ही हूँ। ‘बैरागी’ तो जन्म और जाति से हूँ।
प्रश्न - क्या कविता के बिना समाज की और समाज के बिना कविता की कल्पना सम्भव है?
उत्तर - जिसे आप समाज कहते या मानते हैं वह अपने आदिकाल से सरस है। शुष्क या सूखा नहीं है। साहित्य-कला-संस्कृति ये मनुष्य जीवन ही नहीं, प्रत्येक जीवन के मूल तत्व हैं। कविता को साहित्य में शीर्ष स्थान मिला है। उसके बिना समाज का प्राण तत्व सूख जाएगा। मैं सोच भी नहीं सकता हूँ कि बिना कविता के समाज स्वयम् को समाज कैसे मानेगा? समाज को कविता चाहिए और कविता के लिए समाज अनिवार्य है। संसार में जब तक ‘माँ’ है, तब तक गीत और कविता अमर है। प्रत्येक ‘माँ’ अपने आप में एक काव्य है, कविता है। गीत है। संस्कृति और कला है।
प्रश्न - प्रकृति और कविता में रिश्ता है, प्रकृति प्रदूषण के चलते कविता को क्या नुकसान हुआ है?
उत्तर - प्रकृति एक प्रेरक तत्व है। प्रकृति की एक सूक्ष्मतम हलचल भी किसी न किसी को हर तरह से प्रेरित करती है। उसका अवदान, प्रेरित करने से भी अधिक, प्रभावित करने का है। वह प्रेरित और प्रभावित, दोनों करती है। प्रकृति में यदि प्रदूषण होता है तो उसका प्रभाव प्रत्येक ‘प्राण’ को प्रभावित करता है। कवि एक जीवित, सशरीर प्राणी है। वह निश्चित ही शब्द-ब्रह्म का सहारा लेकर पूछेगा और कहेगा - ‘यह क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है?’ यह बात, बातचीत की हर विधा में प्रकट होगी-चाहे वह गद्य हो या पद्य हो या गल्प हो। प्रकृति में आया, प्रकृति में हुआ या प्रकृति में किया हर बदलाव, हर प्राणी पर असर डालेगा। कवि भी उसमें एक प्राणी है।
प्रश्न - पिछले जनम की किसे पता! अगले जनम में कवि बनना चाहेंगे?
उत्तर - आपने ठीक ही पूछा है। पिछले जनम का तो सचमुच मुझे कुछ पता नहीं कि मैं क्या था और कहाँ था एवम् कैसा था। पर यदि अगले जनम की मेरी चाह की थाह लेना चाहते हैं तो मैं कहूँगा कि मेरे इस जन्म को देनेवाले पूज्य और स्वर्गीय पिता महन्त श्री द्वारिकादासजी बैरागी और मेरी स्वर्गीय जन्मदात्री श्रीमती धापूबाई बैरागी द्वारा पुनः मनुष्य जीवन ही चाहता हूँ और इसी पावन भारत माता भूमि में ही जन्म लेना चाहता हूँ। मैं यह जानता हूँ कि मुझे पुनर्जन्म मिलेगा और मैं इसी मिट्टी मे वह पा लूँगा। मोक्ष और स्वर्ग की न तो मेरी कामना है, न साधना, न तपस्या और न कोई चाह।
प्रश्न - आपको जो भी मिले-रिश्तेदार, मित्र, परिजन, किसी से कोई शिकवा है?
उत्तर - मुझे किसी से कोई शिकवा या शिकायत नहीं है। सभी मेरे हैं और मैं सभी का हूँ। मैं चूँकि सभी का सम्मान करता हूँ इसलिए सभी मुझे सस्नेह सम्मानित करते हैं और रखते हैं। मैं जानता हूँ कि विनम्रता और स्नेहिलता जीवन को सुदृढ़ता एवम् सम्मान देती है। मेरी दो पंक्तियाँ लिख लें। आप इस प्रबोध पर चौंक जाएँगे -
सम्बन्धी काम नहीं आते, ‘सम्बन्ध’ काम में आते हैं।
आप, शायद इसे अपने मर्म की कसौटी पर कस लेंगे और स्वयम् निस्संकोच सोच लेंगे।
प्रश्न - अपनी प्रिय पुस्तक, प्रिय कवि, प्रिय शौक, प्रिय मौसम बताएँ?
उत्तर - सात्विक जीवन को सक्रिय रखनेवाली प्रत्येक पुस्तक मुझे प्रिय लगती है। अनगिनत शास्त्रों की संख्या में ऐसी पुस्तकों की संख्या एक तक सीमित रखना मेरे लिए अत्यन्त कठिन ही नहीं, असम्भव है। मैंने अपनी सातवीं कक्षा तक आते-आते पढ़ लिया था - जो मेरे पाठ्यक्रम में था -
पड़ो अपावन ठौर में, कंचन तजे न कोय।।
जीवन को सकारात्मक सोच देनेवाली प्रत्येक पुस्तक मुझे प्रिय और पठनीय लगती है। रहा प्रश्न अपने प्रिय कवि का, सो अपनी कलम का अवदान ‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’ की कसौटी पर कसने पर खरा उतरनेवाला जो भी कवि देता है वह मेरा प्रिय है। अपने से पहले वाली पीढ़ी के प्रत्येक सरस्वती पुत्र को मैं चरण छू कर प्रणाम करनेवाला जीव हूँ। अपनी समकालीन पीढ़ी के प्रत्येक काव्य-कर्मी का मैं एक सही पाठक और आत्मीय अनुज हूँ। अपने से बाद वाली पीढ़ी को मैं कभी हतोत्साहित नहीं करता और उसकी रचनाधर्मिता पर हमेशा बधाई देता हूँ।
मेरा प्रिय शौक है अच्छा पढ़ना और अच्छा लिखना। इस शौक को हमेशा जवान बनाये रखना भी मेरा शौक है। और, आप तो मात्र मौसम की पूछ रहे हैं! पर, मैं जानता हूँ कि संसार में मौसम तो तीन ही होते हैं - ग्रीष्म, वर्षा और शीत। पर भारत में ऋतुएँ छह होती हैं। ग्रीष्म, वर्षा, शीत, हेमन्त, शिशिर और वसन्त। कृपया शीत के साथ शरद और जोड़ लें। मैं इन सभी ऋतुओं और मौसमों में प्रियता ढूँढ लेता हूँ। प्रत्येक मौसम और ऋतु से मैं कुछ न कुछ पाता ही हूँ। प्रत्येक ऋतु के पास अपना रस होता है और प्रत्येक मौसम के पास उसका सौन्दर्य होता है। सौन्दर्य को सराहना और रस का पान करना मैं जानता हूँ। मैं ‘रसो बैस’ का अर्थ समझता हूँ।
प्रश्न - आज के फिल्मी गीतों, संगीत के बारे में कुछ कहें। आपने गीत लिखे हैं। संगीत भी आप जानते हैं।
उत्तर - सारे संसार में फिल्म निर्माण और फिल्म प्रदर्शन एक व्यापार है। कारोबार या धन्धा है। भारत में भी यही कुछ होता आ रहा है। पिछले एक सौ वर्षों में फिल्म निर्माण का जो विकास और बदलाव है, वह सब हमारे सामने है। कलात्मक फिल्में तब भी इनी-गिनी बनती थीं। मूल कथानक का लक्ष्य मनोरंजन होता था। वैसे भी, फिल्मों के शौकीन लोग अपने मनोरंजन के लिए ही दर्शक बनते हैं और पैसा खर्च करते हैं। पहले फिल्मों में संगीत प्रधान युग था। उस युग में संगीत, माधुर्य प्रधान होता था। गाना और गीत, दो अलग-अलग चीजें हैं। गाना, बनाया और गाया जाता था। गीत में साहित्य का स्पर्श होता है। गीत बनाया नहीं जाता। गीत रचा जाता है। सरलता और सम्प्रेषण, दोनों की आत्मा होती है। भाषा की सरलता और रचना की सम्प्रेषणता, दोनों में अनिवार्य है। गेयता, मधुरता तथा सुरों की मिठास उन्हें स्थायित्व, लोकप्रियता तथा अमरता देनेवाली शक्ति है। अब न तो गाना लिखा जाता है, न गीत रचा जाता हैै। संगीत की मधुरता मर गई है। ‘मेलोडी’ अब ढूँढे नहीं मिलती। हमारी फिल्मों के कथानकों में मारपीट, लात-घूँसे, हिंसा और बारूद उगलते हथियार छा गये। आज की फिल्मों में करुणा और सम्वेदनाएँ सिकुड़ती जा रही हैं। वह युग बीत गया जब एक ही सिनेमा घर में, एक फिल्म तीन-तीन बरस तक दिखाई जाने का इतिहास बनाती थी। आज एक फिल्म तीसरे दिन तक भी चलाना असम्भव हो गया। दर्शकों की रुचि बदल गई। फिल्म के दर्शक सिनेमा हाल से निकलते समय न तो कोई गीत अपने दिल में लाते हैं न कोई सम्वाद। साहित्य का तो कोई सवाल ही नहीं है। फोटोग्राफी और कलाकारों के प्रदर्शन पर सारा मामला टिक गया। पुराने गीत और संगीत को हम बार-बार याद करते हें। मैं कह नहीं सकता हूँ कि माधुर्य लौटेगा या नहीं। मेरे अपने अनुभव इस बिन्दु पर तरह-तरह के हैं। जब किसी विधा से लोकरंजन विदा हो जाए और मात्र मनोरंजन प्रधान हो जाए तब ऐसा होता है। फिल्मों से ‘पैगाम’ या ‘मेसेज’ मिलना कठिन हो गया। माधुर्य के शोक-काल को हम अपनी फिल्मों में जी रहे हैं।
प्रश्न - आज की पीढ़ी पढ़ती नहीं है। साहित्य से वास्ता कम रखती है। दोष किसका है? समाधान क्या है?
उत्तर - आपका प्रश्न नया नहीं है। यह एक चिरंजीवी प्रश्न है। शाश्वत है इसकी आत्मा। साहित्य और कविता के क्षेत्र में आप एक बात को गम्भीरता से लें। बात यह है कि भारत मूलतः श्रुति का देश है। आदिकाल से आज तक का वाणी-सागर आप मथ लें। हमारे यहाँ कैसी भी स्थिति या परिस्थिति हो, लोग सुनकर अपनी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। पढ़ने में उनकी रुचि दूसरे क्रम पर भी नहीं है। देश निरक्षर था तब भी और आज प्रायः साक्षर है (तुलनात्मक दृष्टि से) तब भी, हम श्रोता बनना पसन्द करते हैं। अपनी साक्षरता का अधिक उपयोग हम आधुनिक मशीनों पर करते हैं। पढ़ने के बजाय सुनना आसान और सरल होता है। हमारी आज की पीढ़ी उतना ही पढ़ती है जितना उसे अपना लक्ष्य और भविष्य प्राप्त करने के लिए जरूरी लगता है। फिर, आज की पीढ़ी की दिनचर्या का अध्ययन भी कर लें। आज की पीढ़ी के पास अपनी दिनचर्या में इतना समय भी नहीं है कि वह पढ़ने की तरफ मुड़े। साहित्य से भी उसका सरोकार उतना ही है जितना उसे अपने विद्यार्थी जीवन में परीक्षाएँ पास करने के लिए पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है। पठन और श्रवण के बीच विभाजन रेखा स्वमेव खिंच जाती है। आप वाचनालयों और लायब्रेरियों मे जाकर देखें। यह पीढ़ी अपने-अपने परीक्षकीय विषयों की पुस्तकें पढ़ते हुए मिलेगी। साहित्यिक पुस्तकें खरीदना उनके लिए एक बेकार का काम है। वह गीत, कविता, भाषण, प्रवचन, वाणी, कहानी सब सुनना पसन्द करती है। आधुनिक टी. वी. ने उसे सब कुछ दिखाने और सुनाने का जिम्मा स्वम् ले लिया है। समय देवता इसका समाधान यथा समय करते जाएँगे। हम सभी निर्दोष हैं।
प्रश्न - राजनीति और शब्द की शुचिता, के बीच सन्तुलन का न्याय आप कैसे रख पाते हैं?
उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर मैं कई बार दे चुका हूँ। आज फिर दे रहा हूँ।
मेरी मान्यता है कि राजनीति कविता का विषय नहीं है। एक समय था जब हमारे यहाँ ‘राजकवि’ हुआ करते थे। प्रत्येक राजा के पास अपना या अपने कवि हुआ करते थे। वे (कवि) क्या करते थे, यह इतिहास का विषय है। आपने मुझसे प्रश्न पूछा है तो मेरा उत्तर बहुत सीधा, सरल और सपाट है। मैं इस समय अपनी उम्र के 87वें वर्ष में चल रहा हूँ और पिछले 72 वर्षों से काँग्रेस पार्टी में एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह काम कर रहा हूँ। दल-बदल का कलंक मुझ पर कभी नहीं लगा। मैं जहाँ कल था, वहीं आज भी हूँ। मेरा सिद्धान्त सूत्र है - ‘साहित्य मेरा धर्म है और राजनीति मेरा कर्म है।’ मैं इस बात का ध्यान रखता हूँ कि ‘कर्म’ मेरे ‘धर्म’ का उल्लंघन नहीं करवा दे। इस सूत्र का निर्वाह करने में मुझे कोई असुविधा आज तक नहीं हुई। मैं राजनीतिक मंचों पर कविताएँ पढ़ने से स्वयम् को बचा लेता हूँ। यह कोई चतुराई नहीं अपितु मेरी मान्यतागत नीति है। बातचीत, भाषणों और सम्वादों में काव्यगतता लाने का प्रयत्न मैंने कभी नहीं किया। भाषण कविता हो सकता है पर जब कविता भाषण होने लगती है तो श्रोताओं की प्रतिक्रिया कई तरह से व्यक्त होने लगती है। आप स्वयम् कई स्थानों पर इसके साक्षी रहे होंगे।
प्रश्न - आज की लोक-संस्कृति विकृत हो गई है। होली, दीवाली, त्यौहार वैसे आनन्द नहीं देते। प्रदूषण अधिक होता है।
उत्तर - हमें परम्परा से विरासत में मिली लोक-संस्कृति तो बिलकुल वही है। उसमें कोई विकृति मैं नहीं मानता। जिसे आप विकृति समझ रहे हैं वह हमारे समाज में आई आधुनिक सभ्यता की छाया है। हम सामाजिक स्तर पर भटके हैं। सांस्कृतिक स्तर पर कोई भटकाव नहीं है। प्रत्येक त्यौहार, पर्व या उत्सव का एक भौतिक अर्थशास्त्र होता है। यह एक प्रक्रियागत बदलाव है। संस्कृति हमें प्रेरित करती है और उत्साहित करती है कि त्यौहार है, तो मनाओ। पर्व है तो, पूजो। उत्सव है तो, उसे अनुपम करो। हम होली आज भी मनाते हैं। दीपावली पर पूजन आज भी करते हैं। मेले-ठेले आज भी जुड़ते हैं। उत्सव आज भी प्रेरित करते हैं। जिसे आप आनन्द कहते हैं, यह लेना या प्राप्त करना, सब वर्तमान की छाया में होता है। सभ्यता की छाया कभी हमें चुटकी काटती है तो कभी हमसे प्रश्न करती है और हम सभ्यता के प्रश्नों के उत्तर देने लगते हैं। रंग, वही के वही हैं। दीयों की ज्योति वही की वही है। चंग, मृदंग, ढोल और वाद्यों की भाषा में कोई फर्क नहीं है। तब फिर हमें देखना होगा कि आपकी तथाकथित विकृति कैसे आ गई? आनन्द क्यों नहीं है? यहाँ मुुख्य भूमिका वर्तमान के अर्थशास्त्र और जीवन की व्यस्तता तथा दिनचर्या की जटिलता की हो जाती है। अतीत बीत चुका होता है। वर्तमान हमारे पास है। हम अतीत को बाट बनाकर वर्तमान को भविष्य की तराजू पर तोलने की सभ्यता का एक शुष्क प्रयत्न का खेल, खेल रहे हैं। आनन्द हमारी पारम्परिकता, लोक व्यवहार तथा आत्मीयता का मधु है। जिसे आप प्रदूषण कह रहे हैं। वह हमारी अपनी ही देन अपने आप को है। हमने सम्पूर्ण निर्मल प्रकृति को आगे बढ़ कर, आगे रह कर प्रदूषित किया है। अपनी स्वनिर्मित विकृति पर हमें पछतावा होता है। पर, हमारा पछतावा भी इतराता और अकड़ता है। आनन्ददायिनी बेल के फल-पत्ते हमें मुँह चिढ़ाते हैं और अँगूठा दिखाने लगते हैं। हमारी मनोभूमि आज भी उपजाऊ और उर्वरा है। आप उससे सुस्पष्ट सम्वाद करके देखिए। आनन्द हमारी परस्परता और आत्मीयता का पर्याय है। इसे दूसरा अर्थ मत दीजिए। कृपा होगी।
प्रश्न - मोबाइल क्रान्ति के बाद मनुष्य के बीच रिश्ते वैसे अपनेपन के नहीं रहे जो कभी खत लिखने के दिनों में रहा करते थे। क्यों?
उत्तर - हाँ। आप ठीक कह रहे हैं। इस आधुनिक महादैत्य ने हमसे बहुत-कुछ छीन लिया है। पत्राचार में अपनेपन की हमारी जो ऊष्मा थी, वह प्रायः समाप्त हो गई है। हर व्यक्ति अपने मोबाइल को देखता और सुनता रहता है। यहाँ तक कि एक ही परिवार के सदस्यगण एक ही जगह मिलते-बैठते भी आपस में बातचीत करना भूलते जा रहे हैं। प्रेमालाप समाप्त हो गया और निरन्तर मरता जा रहा है। पत्राचार का वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक आनन्द समाप्त होता हम स्वयम् देख रहे हैं। डाकिये का, हमारे घर पर पत्र देने आने का रोमांच और सरोकार जो सुख देता था वह सुख चिर-निद्रा में लीन होता चला जा रहा है। सरकार का डाक विभाग सन्नाटे में अस्त-व्यस्त जीवन जी रहा है। मोबाइल ने उसे दूसरे कई कामों में लगा दिया है। मित्रों और पड़ौसियों को अपने आये हुए पत्र दिखाने का जो रस और सुखानन्द था वह सूख गया है। मोबाइल के की-बोर्ड ने आपसे आपकी हस्तलिपि और मातृ-भाषा छीन ली। उसने अपनी भाषा आपको दे दी। ‘अक्षर ब्रह्म’ के अवतरण का मशीनी ठेका उसने ले लिया। ‘अक्षर-प्रभु’ का सारा सौन्दर्य उसने अपने कब्जे में कर लिया। अक्षरों के कटाव, घुमाव और सुन्दरता के संसार पर आपके मोबाइल के की-बोर्ड का कब्जा है। आपके हाथ में कलम नहीं, की-बोर्ड की चाबियाँ हैं। हम सभी जानते और समझते हैं कि हम प्रत्येक क्षण लुट रहे हैं और बड़ा विलोम-क्षण जी रहे हैं कि लुटेरा हमारी जेब में, हमारे ही द्वारा व्यवस्थित और सुरक्षित है। हम इस लुटेरे के नवीनतम संस्करण की प्रतीक्षा में नित्य ही पैसा खर्च कर रहे हैं। यह लुटेरा बन्द नहीं हो जाए इसका पूरा ध्यान हम प्रत्येक लुटेरे की शर्त पर रख रहे हैं। हम, इस क्रान्ति का सदुपयोेग कम, दरुपयोग अधिक कर रहे हैं। यह (तकनीक) हमारा गुलाम बनने आई थी। हो गया उल्टा। हम मोबाइल के गुलाम हो गए हैं। इस दासता पर भी हम गर्वित हैं। अपनेपन की ऊष्मा को वापस लाने का कई नया उपाय ढूँढना जरूरी है। कोशिश कीजिए। शायद कोई रास्ता मिले।
प्रश्न - आपकी वे इच्छाएँ बताएँ जो अब भी चाहते हैं, अधूरी हैं, पूरी हो जाएँ।
उत्तर - ‘इच्छा’ एक ऐसी ग्रंथि है जो दिनानुदिन खुलती है, बन्द होती है और गठीली हो जाती है। यह, न किसी की मरती है न पूरी होती है। अधूरी रह कर प्रायः अविस्मरण और विस्मरण का खेल खलेती रहती है। जब जागते और जागृत रहते हैं तब इच्छा थोड़े नेपथ्य में चली जाती है। क्यों कि तब आप प्रयत्नशील रहते हैं कि ‘मेरी अनुपम इच्छा’ को मैं पूरी कर लूँ। पर जब आप सोते रहते हैं तब यह जागृत होती है। आपको सपनों तक में परेशान करती रहती है। यह एक सहज और सामान्य प्रक्रिया है। संसार की तराजू पर आज तक वह बाट नहीं बना जो इच्छा को तौल सके। मेरी भी यही स्थिति है। इच्छा के सन्दर्भ में हमारे पास एक आसान समीकरण है - ‘जो पूरी हो गई वह मेरी इच्छा और जो पूरी नहीं हुई, वह ईश्वर की इच्छा।’ यह समीकरण मुझ पर भी लागू है। मैं एक बात विशेष जानता हूँ। वह यह कि प्रभु ने हमें एक जबर्दस्त शक्ति दी है जिसका नाम है ‘स्मरण शक्ति’। पर इससे भी बड़ी शक्ति उसी प्रभु ने हमें दी है वह है ‘विस्मरण शक्ति’। यदि परमात्मा ने मनुष्य को ‘विस्मरण शक्ति’ नहीं दी होती तो सारी दुनिया आज पागलखाना बन गई होती। आप क्या-क्या याद रखते? जो नहीं हुआ या नहीं हो सका उसे भूलो और आगे बढ़ो। जो भी करना चाहते हो, उसके लिए प्रयत्न करो। प्रयत्नशीलता जीवन की निशानी है। प्रयत्न, आपके जीवन्त होने का प्रमाण है।
प्रश्न - कोई कवि कैसे बने? कोई सूत्र, संकेत, सलाह? कवि बनने के संकट?
उत्तर - ‘कवि’ एक संज्ञा है, या विशेषण या कि अलंकरण, यह एक वैचारिक विषय है। दो मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता यह है कि कवि जन्मना होता है। दूसरी मान्यता यह है कि कवि पैदा नहीं होता अपितु ‘बनाया’ जाता है। हमारे यहाँ ‘काव्य’ को ‘शास्त्र’ माना गया है। शास्त्र का अध्ययन किया या कराया जाता है। फिर, हमारेे यहाँ ‘पिंगल’ एक पूरा शास्त्र है जिसका शिक्षण, प्रशिक्षण और परीक्षण सब होता है। ‘पिंगल’ में हमारे पास पूरा ‘छन्द विधान’ है। ‘लय’ उसका प्रमुख अंग है। बदलावों ने हमें ‘स्वच्छन्द’ और ‘मुक्त छन्द’ तक की सुविधा दी है। ‘लय’ को हम ‘अ-लय’ तक ले गए बशर्ते कि उसमें ‘विचार’ हो। विचार शून्यता कविता को कभी भी, कहीं भी स्वीकार नहीं है। चौबीस घण्टों में प्रत्येक व्यक्ति की भाषा, वाणी में बदल जाती है। भाषा में अर्थ होता है, वाणी में गूढ़ार्थ व्यक्त होता है। कई बार हम चौंक कर कहते हैं, ‘सुनो! सरस्वती बोल रही है।’ कई बार हम कह बैठते हैं, ‘क्या बकवास है! हिश्त।’ तब फिर एक बात और सामने आई -
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निसान।।’
भारत में महकवि और संसार के प्रथम विश्व कवि वाल्मिकी और दूसरे हैं महाकवि कालिदास। अब कीजिए आप बहस! न कोई सूत्र, न कोई संकेत, न कोई सलाह लेकिन इन दोनों कवियों के बना विश्व कविता और भारतीय सृजन शून्य हैं। ‘शब्द’ वर्णन करता है, भाषा व्यक्त करती है और वाणी उसकी गूढ़ता और गम्यता सिद्ध करती है। हमारे पास ऐसे हजारों व्यक्तित्व हैं जिन्होंने एक पंक्ति भी कविता की नहीं लिखी पर जिसका बोला एक-एक वाक्य कविता हो गया। आप अपने स्वयम् के परिवार में अपनी माँ, अपनी बहन, अपनी बेटी, अपनी बहू और अपने बच्चों की बातचीत पर ध्यान दीजिए। आपको लगेगा कि उनकी शैली में वे कविता से अधिक कारगर वाक्य और बातें बोल देते हैं। वे किसी से नहीं सीखते पर एक अदृश्य सत्ता उनसे ‘कविता’ जैसे बोल बुलवा देती है। यह ईश्वर का एक अद्भुत करिश्मा और प्रकृति का अनुपम उपहार है। कवि दोनों प्रक्रियाओं से प्रजनित प्राणी है। रहा सवाल ‘सलाह’ का, तो मैं किसी का भी सलाहकार नहीं हूँ। अपने बाद वाली कलकमकार पीढ़ी को मैं सदैव प्रोत्साहित करता हूँ। किसी को हताश और निराश करना मेरी नजर में एक अपराध है।
प्रश्न - आजकल अभिव्यक्ति के खतरे हैं। क्या ये प्रारम्भ से रहे हैं? सत्ता सदैव ‘शब्द’ से डरती रही है?
उत्तर - आपके इस प्रश्न का अन्तिम वाक्य ही पूरे प्रश्न का उत्तर है। सत्ता का शब्द से सीधा संग्राम आज कोई नया नहीं है। यह एक सतत् और सनातन संग्राम है। सत्ता अपनी आलोचना और विरोध को पहले ही दिन से अपना दुश्मन मानती रही है। समाज चुप रहे और सत्ता सजीव चलती रहे, यह सत्ता का बहुत ही गहरा लक्ष्य और संकल्प है। सत्ता का ‘शब्द सत्ता’ से कभी भी मैत्री सम्बन्ध नहीं रहा। वह चलती रहे और आप चुपचाप उसे देखते रहें, यही उसकी ‘नीति’ रही है। सत्ता को सावधान करना और सावधान रखना तथा चेतावनी देना शब्द का धर्म है। सत्ता के पास ‘सहन’ नाम का ‘शील’ नहीं है। सत्ता सहनशील नहीं, सदैव से असहनशील ही रही है। आप स्वयम् तय करें और अपने आप से पूछें कि आप सहनशील सत्ता चाहते हैं या असहनशील सत्ता?
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मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय नगर नीमच के शासकीय मॉडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता श्री राधेश्याम शर्मा, दादा के परम-चरम प्रशंसक रहे हैं। दादा के दो-एक कविता संग्रहों की सामग्री मुझे राधेश्यामजी से मिली। उनका पता- एल-64, इन्दिरा नगर विस्तार, नीमच-458441 तथा मोबाइल नम्बर 88891 27214 है।
अगला साक्षात्कार - आकाशवाणी इन्दौर की जानी-मानी रेडियो उद्घोषिका देविन्दर कौर मधु का दादा श्री बालकवि बैरागी से, आकाशवाणी के लिए हुआ फोन सम्वाद।
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