(मेरे बड़े भतीजे, दादा के बड़े बेटे मुन्ना बैरागी द्वारा उपलब्ध कराए गए इस चित्र के दाहिने कोने में सबसे पहले श्री शरद जोशी, उनके बाद मेरी भाभीजी श्रीमती सुशील चन्द्रिक बैरागी और बाद में दादा श्री बालकवि बैरागी नजर आ रहे हैं।)
(आलेख का शीर्षक जितना चौंकानेवाला है, समूचा घटनाक्रम उससे कई गुना अधिक चौंकानेवाला, सर्वथा अकल्पनीय है। किसी को दण्डित करने का यह अनूठा उपाय उन्हें अन्तिम साँस तक याद रहा होगा/रहेगा जिन्होंने यह खेल शुरु किया था। दादा का यह लेख कब लिखा गया होगा इसका अनुमान लगाने के लिए हमें ‘धर्मयुग’ का प्रकाशन बन्द होने का वर्ष तलाशना पड़ेगा। क्योंकि लघु पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ ने वहीं से लेकर इसे अपने 1992 के अंक में छापा था। देश के ख्यात, जाने-माने, सुपरिचित व्यंग्यकार इन्दौरवाले श्री जवाहरजी चौधरी ने अत्यन्त कृपापूर्वक मुझे यह उपलब्ध कराया है।)
जी हाँ! यह शरद जोशी के जीवन का एक सच्चा पृष्ठ है। शरद जोशी आज एक आदृत व्यंग्य हस्ताक्षर हैं और जहाँ-जहाँ हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ पहुँचती हैं, वहाँ-वहाँ शरद जोशी पहचाने जाते हैं। आज कवि-सम्मेलनों के मंच पर उनकी धूम है।गाँव-गली उनके केसेट्स बज रहे हैं। उनको सुनना आज समाज में ‘स्टेटस सिम्बल’ बनता जा रहा है। कवि सम्मेलनों के बादवाली कई सुबहों तक लोग बड़ी शान से कहते हैं-‘कल हमने शरद जोशी को सुना है।’ शाम को क्लबों में, लिपी-पुती महिलाएँ शरद जोशी के बारे में बढ़-चढ़ कर बाते करती हैं और जो शरद जोशी को नहीं पहचानतीं, उसे उपहास का बिन्दु बनना पड़ता है। गये तीस सालों से लोग उन्हें पढ़ते आ रहे हैं । अब लोगों ने उन्हें सुनना शुरु कर दिया है। कवि-सम्मेलनों के मंचों पर लोग पूरी सम्प्रेषणीयता के उनके आठ-आठ, नौ-नौ पृष्ठों के व्यंग्य निबन्ध सुनते हैं। उन्हें ‘वंस मोर’ और फड़फड़ाती तालियों का तोहफा जम कर मिलता है। ऑटोग्रॉफ हण्टर्स में कोमलांगी बालाओं की तादाद बेशुमार बढ़ती जा रही है।
शरद भाई अपने 51 साल मई 82 में पूरे करने जा रहे हैं। तीन जवान बेटियों के लाड़ले पिता श्री शरद जोशी एक जिम्मेदार गृहस्थी के स्वामी हैं। यह साल उनकी शादी का रजत जयन्ती वर्ष है। चौबीस पूरे करके पच्चीसवें साल में उनका संघर्षमय वैवाहिक जीवन सुख की परिधि में टेण्ट डालता नजर आ रहा है। वे अपने जीवन के उस काल में जा पहुँचे हैं, जहाँ लोग लेखक के लेखन के साथ उसके निजी जीवन के बारे में भी बहत-कुछ जानना चाहते हैं। मैं उनके वैयक्तिक जीवन पर कुछ भी नहीं लिखूँगा। मेरे अधिकार क्षेत्र की बात नहीं है यह सब। मैं क्यों किसी की खिड़कियों में ताक-झाँक करूँ? जो खुला है, वह ही लिख दूँ तो बहुत होगा। इस आलेख में भी इतनी भूमिका भी इसलिए देनी मुझे सुहाती है कि उनके बारे में शायद यह बिलकुल पहला आलेख होगा, जो कि उनके लेखन से हट कर उनके व्यक्तिगत जीवन पर लेखन की शुरुआत करे। एक तरह से शिलान्यास।
शरद भाई अब मूलतः मलवा के हैं। पूर्वज कभी कभी गुजरात से चले थे। उज्जैन में बस-बसा गये। शरद भाई का कार्य क्षेत्र, बम्बई को छोड़ दें तो कुल मिला कर मालवा ही रहा। यही, उज्जैन, इन्दौर, नीमच, मन्दसौर, जावरा, रतलाम, सैलाना,देवास, शाजापुर और मालवा के कटिबन्ध भोपाल। आज से 24 बरस पहले, परिवार की सभी ब्राह्मण परम्पराओं और समाज की रूढ़ियों से विद्रोह करके शरद भाई ने इरफाना भाभी से शादी की। आज की इरफाना शरद, तब इरफाना सिद्दीकी थीं। शाजापुर के एक भद्र मुस्लिम परिवार की पढ़ी-लिखी कन्या। शरद भाई इन्दौर से प्रकाशित दैनिक ‘नईदुनिया’ में ‘ब्रह्मपुत्र’ के छद्म नाम से एक लोकप्रिय कॉलम लिखते थे। शीर्षक था ‘परिक्रमा’। कॉलम बहुपठित था। इरफाना सिद्दीकी तब एक एक नवोदित कहानी लेखिका थीं। खूब छपती थीं और खूब पढ़ी जाती थीं। ‘नईदुनिया’ एक तरह से दोनों का मिलन मंच था। दोनों उलझ गये और इरफाना सिद्दीकी एक दिन श्रीमती इरफाना शरद हो गयीं। कुछ बरस तक इस शादी को ले कर जैसी हो सकती थी, वैसी बातें होती रहीं। पर आज मैं यह कह सकता हूँ कि यदि किसी को एक आदरणीय, सुखी और हर तरह से सुसंस्कृत परिवार देखना हो, तो वह शरद भाई का परिवार देखे। इस परिवार को संघर्ष और स्थापना का द्वीप माना जा सकता है। मात्र कलम और ठहाकेदार जीवट ही इस परिवार का सम्बल रहा है। शरद भाई की तीन दुलारी बेटियाँ बानी, ऋचा और नेहा अपने-अपने आकाशों में अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के डैने फैलाये भविष्य की टोह में बराबर व्यग्र दीख रहीं हैं। इरफाना भाभी की अनुशासित ममता चौकस हो कर ‘लछमन जती’ वाली मुद्रा में पर्णकुटी की रखवाली कर रही है।
ऐसा लोकप्रिय लेखक, ऐसा संघर्षरत लेखक, ऐसा स्वाभिमानी और जुझारू लेखक किसी को खटका नहीं हो, ऐसा हो नहीं सकता है। मैंने अतीत की काई को संस्मरणों की झील के पानी पर से थोड़ा-सा हटाने की कोशिश की। पूछा, ‘शरद भाई! इस सुखी गृहस्थी के तिनकों को तोड़ने की कोई हीन हरकत कभी हुई?’ शरद भाई अपना छत ठोकू ठहाका लगा कर कहते हैं-
“आज से कोई बारह-तेरह बरस पहले की बात है। भोपाल में हम लोगों को आये सात-आठ साल हुए होंगे। मैं संघर्षरत था। बेटियाँ छोटी-छोटी थीं। खूब लिखता और खूब छपता था। भोपाल के लेखक खेमेबाज शुरु से रहे हैं। मैं विवादास्पद तो शुरु से ही रहा हूँ पर, विवादरत भी था। चटखारे लेने और देने का अपना सुख है। जम कर टाँग खिंचाई चलती थी। ऐसे में एक दिन मेरी डाक में एक पत्र आया। लिखा था-‘आपने मेरी जिन्दगी तबाह कर दी।... अब मैं गर्भवती भी हूँ।...आपके बच्चे की माँ बननेवाली हूँ।...आप मुझे दगा दे रहे हैं?...ईश्वर आपको कभी माफ नहीं करेगा।... मैं कहाँ जाऊँ?...आदि-आदि।
“पत्र इरफाना ने भी पढ़ा और मेरी गृहस्थी सन्देहों और गलतफहमियों की धधकती, फन फुफकारती लपटों में ता पड़ी। इरफाना वह सब करने को तैयार गयी, जो ऐसे में निष्ठावान, समर्पिता पत्नी और परिणीता प्रेयसी कर सकती है। मैं कठघरे में था। यार लोग जो चाहते थे, वह घटित होने के आसार अंकुरा कर फसल की तरह पक गये। मेरे छक्कके छूट गये। अपने-पराये सब एक साथ याद आने लगे। दो-चार घण्टोंें में मैने समीकरण बैठा लिया कि यह कमीनी किसकी हो सकती है। खेमेबाज इतना गहरा खूँटा गाड़ेंगे, यह अनुमान नहीं था। मेरे लेखन से जब वे पूरा नहीं पटक पाये, तो मेरे सुखी जीवन पर तबाही बरसाने का उपक्रम करने लगे।
“उस टुच्चे प्रेम पत्र को ले कर मैं अपने एक हितैषी मित्र श्री हरिहर जोशी के पास पहुँचा। वे उस समय मध्यप्रदेश सरकार के मुद्रण विभाग में एक अधिकारी थे। भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे। आज वे इस संसार में नहीं हैं। पूरा पत्र बहुत लम्बा था। मैंने पत्र उनको दिया । उन्होंने पूरा पढ़ा। इरफाना की प्रकृति और बेटियों की शक्ल उनकी आँखों में घूम गयी। मैंने अपने अनुमान बताये। वे मुझसे सहमत थे और मेरी इस बात से भी सहमत थे कि इस मसविदे के पीछे चार-पाँच लोगों का कुण्ठित मस्तिष्क है।
“आगे चल कर मेरा अनुमान सौ फीसदी सही निकला। वे सभी लोग आज भी जीवित हैं। मेरे आसपास ही हैं। खैर, जोशी जी ने मेरी स्थिति को समझा और कहा - ‘शरद! तुम यह पत्र मेरे पास छोड़ जाओ। अपने घर-परिवार को सम्भालो और चार-पाँच दिन का मौका दो। बिलकुल चुप रहो। मैं इस प्रेमपत्र का साधारणीकरण कर दूँगा।’ मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। ‘प्रेमपत्र का साधारणीकरण’ मेरी समझ के बाहर का मामला था।
“मैं मर्माहत था और अपने ही घर पहुँचने का मनोबल जुटाना भी मेरे लिए एक समस्या हो गयी थी। मैं घर जा कर टूटते तिनके बचाने की कोशिश में लग गया। कुछ अबोला, कुछ मान, कुछ मनुहार, कुझ कसमें, कुछ वादे, कुछ कहा, कुछ सुनी, कुछ डाँट-फटकार। यानी कि थपेड़ों में भी जहाज के मस्तूल तने रहे। उधर जोशीजी ने जो किया, वह अद्भुत था। वे बदमाशों के भी बाप निकले। उन्होंने उस प्रेम पत्र को अपनी टेबल पर रखा। प्रतिदिन वे दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह क्लर्कों को बुलाते और उस प्रेम पत्र की नकलें करवाते। अलग-अलग हस्तलिपियों में उन्होंने उस प्रेमपत्र की चालीस-पचास प्रतियाँ तैयार करवा लीं। दो-चार टाइप भी। फिर एक दिन, एक ही साथ भोपाल के चालीस-पचास लिखने-पढ़नेवाले लेखकों के पते अलग-अलग लिफाफों पर लिख कर उन्होंने सारे लिफाफे एक ही साथ डाक के हवाले कर दिये। यथासमय वे लिफाफ सब को मिले। किसी को आज, तो किसी को कल। हाँ, उन लोगों को भी वह प्रेमपत्र मिल गया जिन्होंने कि उसे ड्राफ्ट किया था और मुझे डाला था।
“चालीस-पचास घरों एक साथ आग लग गयी। भोपाल में वह पूरा पखवारा गृहस्थी के ऊलजलूल युद्धों का पखवारा बन कर रह गया। सब अनमने। कोई किसी से नहीं बोले। जहाँ जाओ, वहीं धू-धू। जिससे मिलो, वहीं थू-थू। लानत-मलामत का एक भयंकर बावेला मच गया। यहाँ-वहाँ से पारिवारिक संग्रामों के समाचार आने शुरु हो गये। कई लोगों ने चुपचाप दफ्तरों से छुट्टियाँ ले लीं। कई के बच्चे स्कूल नहीं जा सके। कई घरों में सूटकेस तैयपर हो गये। कुए, बावड़ी और झील तालाब की धमकियाँ और केरोसिन माचिस की छीना-छपटी। यानी कि कुछ पूछिए मत! मैंने मुद्रणालय कार्यालय जा कर जोशी जी से पूछा, ‘प्रभु! यह सब कया हो रहा है?’ वे संयत स्वर में बोले, ‘शरद! यह प्रेमपत्र का साधारणीकरण है। तुम चुपचाप अपने घर जाओ और अपनी गृहस्थी को सम्भालो।’
“मैं चला आया। बार-बार मुझे लगा कि हो-न-हो, प्रेम पत्र के इस साधारणीकरण में एकाध गृहस्थी उजड़ न जाये। शीशों में बाल पड़ गये पर कोई शीशा टूटा नहीं। आज पहली बार सार्वजनिक तौर पर आपको यह बात बता रहा हूँ। जब इरफाना जैसी सुलझी हुई महिला को तटस्थ होने में महीनों लगे थे, तो कई गृहिणियों को तो तटस्थ होने में बरसों लगे होंगे।”
मैं, तो यह बात सुन कर ही काँप गया था। ठहाका लगाने के लिए भी शक्ति बटोरनी पड़ी। न जाने कौन-कौन मेरी आँखों में तैर गये।
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