नाद हमारी आत्मा का निनाद है

विजय बैरागी के सवाल - बालकवि बैरागी के जवाब

(दादा श्री बालकवि बैरागी द्वारा दिए गए, विजय बैरागी के सवालों के ये जवाब, जारा पब्लिकेशन की त्रैमासिक पत्रिका ‘ओशो: शून्य के पार’ के, फरवरी, मार्च, अप्रेल 2018 के अंक में प्रकाशित हुए थे। ये सवाल-जवाब श्री विजय बैरागी के सौजन्य से ही मिले हैं। इस सामग्री के साथ दिया गया दादा का चित्र भी, पत्रिका के इसी अंक से लिया गया है।)
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20 सितम्बर 1977 को प्रातः ओशो द्वारा आध्यात्मिक क्रान्ति प्रवचन के दौरान, ‘अंगार और श्रंगार के ख्यातनाम कवि’, हिन्दी-मालवी के शब्द-साधक बालकवि बैरागी की कविता ‘पुरवा को पछुवा मार गई’ की व्याख्या कर श्री बैरागी को सम्मानित किया गया। सन्त चरणदास के पदों पर दिए गए ओशो के दस प्रवचनों के संकलन ‘नहीं सांझ, नहीं भोर’ में यह प्रवचन संकलित है।
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प्रश्न - धर्म की धारणा को कैसे अभिव्यक्त करें?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है जितना हम लोग समझते हैं। धर्म वह है जिसे हम धारण करते हैं। वस्तुतः धर्म एक धारणा है पर धर्म वह नहीं है, जिसे हम पालते हैं। सच्चाई यह है कि हमारा धर्म ही हमें पालता है। मैं ऐसे हजारों लोगों से मिला हूँ, और मिलता रहता हूँ, जो स्वयं को धर्मपाल मानते और समझते हैं। अपने नाम के आगे या पीछे धर्मपाल शब्द का उपयोग एक डिग्री या उपाधि की तरह लगाते हैं और गर्वित होते हैं। धर्म कोई जीवन शैली नहीं है । सच्चाई यह है कि धर्म हमारी जीवन यात्रा का वो महत्वपूर्ण तत्व है, जो हमें जीवन जीने के सतपथ पर साथ रह कर रास्ता बनाता है। आपको आपका चरित्र देता है और आसपास रह कर सतत् आपसे आपकी जीवन यात्रा का लक्ष्य पूछता है। धर्म को हम अपने कर्म से अभिव्यक्त करते हैं। आपका कर्म ही आपके धर्म की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। समाज आपको आपके कर्म से पहचानता है। धर्म से नहीं। यही एक कारण है कि हम विभिन्न धर्मों वाली सृष्टि में मनुष्य के रुप में भेजे गये हैं। हम मानव को मानव, मनुष्य को मनुष्य बनाये रखें यही एक अभिव्यक्ति है, जिससे हमारा निर्माता हमारी धारणा को समझता है।

प्रश्न - भक्ति, पूजा और प्रार्थना आपके विचार से.....?

उत्तर - यदि आप मनुष्य हैं तो आप प्रतिदिन भक्ति, पूजा और प्रार्थना करते हैं। भक्ति आपकी भावात्मकता है। पूजा आपकी सकारात्मक साधना है और प्रार्थना आपका समर्पण है। ये तीनों प्रक्रियाएँ आप सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार दोनों के प्रति कर सकते हैं। सात्विकता, राजस रूप और तामस भाव तीनों तरह से यह त्रिगुणात्मकता निबाहते लोगों को हम रोज देखते हैं। प्रभु भक्ति या देव भक्ति और भूत भक्ति इन तीनों तरह के भक्तों से आप परिचित हैं। देव पूजा, व्यक्ति पूजा और भूत पूजा के पुजारी आपसे मिलते रहते हैं। और प्रार्थना हमारा अन्तर्भाव है। हम सब कहीं न कहीं किसी न किसी शक्ति के सामने अतिभाव से प्रार्थी बने हुए हैं। प्रत्येक जीवन इस त्रिकोण का एक कोण है। यह आवश्यक ही नहीं अत्यावश्यक है।

प्रश्न - बाहरी और अन्‍तर्यात्रा की भावभूमि शाब्दिक हो सकती है?

उत्तर - शब्द को हमारे यहाँ ब्रह्म माना गया है। ब्रह्म में कौन-सी शक्ति नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। आपके जीवन की जो भी यात्रा हो, शब्द उसे या उसका वर्णन कर सकता है। यहाँ तक कि हमारे आपके मौन को भी वह पूरे विश्वास से शाब्दिकता दे सकता है। हमारे ज्ञात-अज्ञात महापुरुषों और स्वयं प्रकृति ने अपनी बाहरी और आन्तरिक अन्तर्यात्रा को शाब्दिकता देकर सिद्ध किया है। यह मात्र शाब्दिक नहीं अपितु पठनीय, विचारणीय और विवेचनीय है। मनुष्य जीवन की दोनों ही प्रश्नांकित यात्राओं की भाव भूमि शाब्दिक हो सकती है। हमारा देश वेदों और उपनिषदों का देश है इनके अध्ययनकर्ता जानते हैं कि शब्द-ब्रह्म ने विभिन्न भाव भूमियों को किस तरह सहेजा और सम्हाला है । इसे इस शाब्दिकता का उत्तराधिकारी बनाया है। यह एक अद्भुत और अनुपम सम्पत्ति है जो हमें विरासत में मिली।

प्रश्न - दार्शनिकों ने दर्शन को अनेक आयाम दिये आपके समीप ‘दर्शन’, वाद और विचारधारा से पल्लवित है?

उत्तर - संसार में समय-समय पर अपनी-अपनी धरती पर ‘दर्शन’ को अपनी-अपनी समझ और बुद्धि से तरह-तरह के आयाम दिये यह एक सच्चाई है पर विश्व में कहीं भी दर्शन पर और दर्शन की विवेचना तथा आयाम पर पूर्णविराम नहीं लगा। यह एक तात्विक प्रक्रिया है और तात्विक पर प्रतिदिन कहीं न कहीं विमर्श होता रहता है। सबके पास अपनी-अपनी विचारधारा और अपने-अपने वाद हैं। न यह धारा रुकती है न ये वाद ठिठकते हैं । हम स्वयं इन वादों और विचारधाराओं का अध्ययन करने के बाद अपने स्वयं की विचारधारा में अवगाहन कर बैठते हैं और अपने वाद के नशे में डूब जाते हैं। दर्शन और ‘दार्शनिक’ हमारी अपनी विचारधारा को नवपल्लवित करते हैं।

प्रश्न - संस्कृति व लोक की रसात्मक अभिव्यक्ति को सृजन एवं पुरातन परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करना चाहेंगे?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर एक विराट अध्ययन चाहता है।  संस्कृति और लोक की रसात्मक अभिव्यक्ति को हम पुरातन परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करेंगे तो अपने भूतकाल से जुड़े रहने के मोह में अपने वर्तमान से कट जायेंगे। यह व्याख्या हमें वर्तमान के सन्दर्भों और प्रासंगिकताओं को ध्यान में रख कर करनी पड़ेगी। यह एक तुलनात्मक प्रक्रिया है। इसने क्या खोया और क्या पाया तथा आज हमारे पास क्या है और कितना है? सभ्यता और वर्तमान संस्कृति हमें क्या दे रही है? लोक दृष्टि में हम मिट रहे हैं या बन रहे हैं बह देखना समझना जरूरी है। कल की व्याख्या आज पुरानी लगती है और आज की व्याख्या कल पुरानी हो जायेगी। हमारे बाद वाली पीढ़ियाँ हमें किन नजरों से देखेगी यह प्रश्न कौंध जाता है। आज के बच्चों को उनके माँ-बाप अपनी संस्कृति और रसात्मक लोक भूमि पर किस दृष्टि से देख रहे हैं? क्या संस्कृति विकृत हो रही है? क्या रसात्मकता सूख रही है? क्या सरसता क्षण-क्षण क्षरित हो रही है? ऐसे प्रश्न रोज उठ रहे हैं। संस्कृति मूक है और लोक अवाक् है। क्या यह ऐसा युग है? प्रश्न हमें मथ रहे हैं। पुरातन परिप्रेक्ष्य में आज का सृजन और आज की व्याख्या कितनी कारगर है? ऐसे हजारों प्रश्न हमसे उत्तर चाहते हैं। हम प्रश्नों की शर-शैया पर भीष्म बने लहू लुहान हैं।

प्रश्न - लौकिक व पारलौकिक इयत्ता पर स्वानुभूत सत्य कहाँ जाकर ठहरता हैं?

उत्तर - लौकिक और पारलौकिक इयत्ता पर स्वानुभूत सत्य दोनों के सन्धि स्थल पर आकर ठहर जाता है। स्वानुभूति स्वयं कहती है कि मैं लौकिक भी हूँ और पारलौकिक भी। यही मेरा स्वानुभूत सत्य है। प्रश्न श्रृंखला का यह प्रश्न सबसे अधिक सरल है।

प्रश्न - आवागमन का सिद्धान्त और पुनर्जन्म की परिकल्पना की तार्किकता और मृत्यु के रहस्य को ओशो ने कई बार उद्घाटित किया - जैन, मसीही व कबीर के सन्दर्भाे ने आपके चिन्तन को आलोकित किया?

उत्तर - आप आस्तिक हैं या नास्तिक संसार में जन्म और मृत्यु, शाश्वत सत्य हैं। यदि आप जन्म में विश्वास करते हैं तो मृत्यु में विश्वास करें या नहीं करें, वह सुनिश्चित है। ‘जो आया है वो जाएगा’, इस सत्य को आप झुठला नहीं सकते। मैं पुनर्जन्म में विश्वास करता हूँ। ओशो ने अपने प्रवचनों में जन्म-मृत्यु, आत्मा-परमात्मा, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष,  ईश्वर-परमेश्वर, स्वर्ग, नरक, ध्यान, पूजा और आध्यात्म एवं दर्शन के प्रायः प्रत्येक तत्व का गहनतम तात्विक विश्लेषण किया है। जैन, बुद्ध, मसीहा, कबीर जैसे विश्व ख्यात विचारकों, सन्तों और मानवता की आत्मपरक संस्थागत व्याख्याएँ एवं भाष्य किया है। आपके प्रश्न में जिन महापुरुषों के नामों का उल्लेख किया है, आज इनमें से कोई भी सशरीर हमारे सामने नहीं हैं, पर उनका बोला, कहा आज हमारे पास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। मेरा जीवन और चिन्तन इनके द्वारा दी गई व्याख्याओं से आलोकित है। मैंने जीवन में कभी अँधेरा महसूस नहीं किया। इन और ऐसे महान व्यक्तियों के कारण अपने जीवन में मैंने हमेशा उजास पाया। मैं इनका कृतज्ञ होकर अपना जीवन जी रहा हूँ।

प्रश्न - ‘माँ’ आपके अनुभव जगत को किस तरह छूती रही है?

उत्तर - माँ को मैं सशरीर ईश्वर मानता हूँ। वह है भी सशरीर ईश्वर। मैंने बार-बार कहा है कि ‘ईश्वर सशरीर सबके साथ रहना चाहता था पर वह ऐसा कर नहीं पाया, इसलिये उसने माँ बना दी। माँ हमारा स्वर्ग है और पिता उस स्वर्ग का द्वारपाल। स्वयं ईश्वर जब भी धरती पर अवतरित होना चाहता है तो वह किसी माँ के गर्भ से ही जन्म लेता है। मैं स्वयं अपनी माँ का निर्माण हूँ। पिता मेरे जनक हैं और माँ मेरी जननी। माँ के निधन के बाद ईश्वर स्वयं भी आपको जन्म देने वाली जन्मदात्री माँ-जननी नहीं दे सकता। माताएँ तो हमारे पास हजारों हैं, पर जन्म देने वाली केवल एक ही होती है। वह होती है माँ।

प्रश्न - ‘शब्द ही ब्रह्म है’ आपने कई बार यह व्याख्या दी। फिर, ‘नाद’ और ‘लय’ को भी आप ही विवेचना दें।

उत्तर - हाँ। समय-समय पर और जगह-जगह पर प्रासंगिक अवसरों पर मैंने कहा है कि ‘शब्द ही ब्रह्म है’ यह सूत्र या मन्त्र हमें हमारे ऋषियों और अध्यात्मिक दार्शनिकों ने दिया है। शब्द साधक को हम ब्रह्म साधककहते हैं। शब्द यहाँ ब्रह्म की साधना का सर्वाेपरि साधन है। शब्द का सदुपयोग ब्रह्म की पूजा है। दो ऋषियों का यह सम्वाद जग विख्यात है। परस्पर सम्वाद में एक ऋषि ने दूसरे से पूछा- ‘आज आपने ऋचा सृजन में क्या किया।?’ दूसरे ने उत्तर दिया - ‘आज मैंने ऋचा सृजन में एक शब्द बचा लिया।’ जहाँ एक-एक शब्द को बचाना भी तपस्या माना जाता हो वहाँ हम इस ब्रह्म के साथ क्या कर रहे हैं यह एक विचारणीय विषय है। जहाँ तक ‘लय’ का प्रश्न है, वहाँ मैं दुहरा कर कहता हूँ कि ‘लय ही जीवन है।’ लय टूटी कि जीवन टूटा। लय गई कि जीवन गया। प्राण की साँसें हमारी ‘लय’ है। लय एक प्राणवाचक क्रिया है। यदि आप ‘नाद’ का तात्पर्य पूछते हैं तो मैं कहूँगा कि ‘नाद’ हमारी आत्मा का निनाद है। हम सब ‘नाद’ की अनुगूज के दास हैं। अन्तर्नाद शब्द प्रचलित और विवेचित है। यह मौत की भाषा है। ‘नाद’ कभी वाचास नहीं होती। वह सदैव संयम और सन्तुलन की धारक है। ‘नाद’ को भी हमारे विचारक ‘ब्रह्मनाद’ तक ले गये और हमने माना। ‘नाद’ निराकार है। ‘ओऽम्’ हमारी नाद का प्रकटीकरण है। इसे आप अपने प्राणों और आत्मा में अधिगुंजित सुनते हैं। यह एक आन्तरिक प्रकिया है। यह हमेशा ‘अतर’ रहती है।

प्रश्न - ओशो ने अपने व्याख्यान में आपके गीत ‘पुरवा को पछुआ मार गई’ को व्याख्यायित किया था - आपकी अनुभूति को पाठकों के साथ बाँटना चाहेंगे ?

उत्तर - मुझे आज तक पता नहीं है कि मेरा गीत ‘पुरवा को पछुवा मार गई - लगता है पीढ़ी हार गई’ ओशो को कैसे और कहाँ से प्राप्त हुआ। ओशो जब शरीर में थे तब में उनसे कभी मिल नहीं पाया। मैंने ओशो को कभी नहीं देखा और कभी नहीं सुना। मुझे जब ओशो भक्तों ने फोन पर बताया, तब मैंने जाना कि उन्होंने अपने किसी प्रवचन में मुझे आशीर्वाद दिया और मेरे गीत को व्याख्यायित किया। इसे मैं अपने आप पर ओशो की विशेष कृपा मानता हूँ। मैं ओशो का एक पाठक हूँ। पत्र-पत्रिकाओं में जहाँ मुझे ओशो के प्रवचन या प्रवचनांश मिलते हैं। मैं अवश्य पढ़ता हूँ। उनके द्वारा की गई मेरे गीत की व्याख्या तक मुझे आज तक पढ़ने को नहीं मिली। हजारों पृष्ठों में ओशो का साहित्य फैला हुआ है। मैं तो उनकी कृपा का कृतज्ञ हूँ ।

प्रश्न - ‘कर्म’ को ओशो भी कृष्ण से जोड़कर ही उद्घाटित करते रहे, उम्र के इस पड़ाव पर आपको फलित आकांक्षाओं से परे प्रयोजनमूलक अशेष व निस्सारता बोध अभिप्रेरित करता है?

उत्तर - मैंने संसार को कभी भी सारहीन या निस्सार नहीं माना। हमें ईश्वर ने इसीलिये अपनी सृष्टि और अपने संसार में भेजा है कि यहाँ कई लोग संसार को सारहीन और निस्सार सिद्ध कर रहे हैं। उसने हमें आदेश दिया है कि मेरी सृष्टि और मेरे संसार की धरती पर जाओ और अपने कर्मठ कर्मों से इसे अधिक सारवान और सारपूर्ण बनाओ। ओशो ने कर्म को कृष्ण से बिलकुल सही जोड़ा। हमारा शास्त्र ‘श्रीमद् भगवद्गीता’ हमें कर्मठ कर्म का सन्देश देता है। कर्म करो और फल की चिन्ता छोड़ दो। फल की आशा मत करो। अपनी कर्मठता को प्राणवान रखो। संसार अनन्त है। असार या निस्सार नहीं है। पौरुष और प्राणपूर्ण कर्मठ कर्म भी संसार का एक सार है। इस सार को प्राप्त करो और दूसरों को बाँटो । संसार और सृष्टि को सारवान बनाना और सारसिद्ध रखना हमारा मूल प्रयोजन बने। यह हमारे जीवन का मुख्य लक्ष्य बने और यही हमारे कर्म का चरित्र हो। कर्म का अभिप्रेरण स्पष्ट है।

प्रश्न - शून्य के पार आकाशगंगाओं की अन्तहीन वैज्ञानिकता को ‘ब्लेक-होल’ या कि ‘कृष्ण-विवर’ को कवि की नजर से परखें या उपकरणों से?

उत्तर - इस ‘कृष्ण-विवर’ को उपकरणों से कृपया नहीं परखें। इसे परखना हो तो हे महानुभाव! इसे कवि की नजर से परखें। कवि के पास एक सौन्दर्य दृष्टि होती है। कविता और काव्य की कसौटी उसके मनीषियों ने तय कर रखी है। वह कसौटी है ‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’। जो सत्य हो, शिव याने लोक कल्याणकारी हो और सुन्दर हो। काव्य की इस कसौटी ने कवि को विशेष सौन्दर्य दृष्टि दी है। वह कलिमा, कज्जल और काली अमावस्या तक में सौन्दर्य ढूँढ लेता है। काजल तक को हमने रुप और सौन्दर्य का उपकरण माना है। काले आकाश में वह अनन्त सौन्दर्य देखता है । आप जिसे ‘ब्लेक-होल’ या ‘कृष्ण-विवर’ कहते हैं, उसे उपकरणों से परखना उचित मानने वाले महानुभावों से मेरा आग्रह है कि कृपया वे कवि की नजर से ही ‘कृष्ण-विवर’ को परखें। आकाश में भी एक गंगा हम देख कर उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। उपकरणों को विश्राम देना भी कभी-कभी जरुरी होता है।

प्रश्न - आपा-धापी के कोलाहल में आपने ध्यान-योग व आसन क्रियाओं को किस स्तर तक अपनाया?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर बहुत आसान और आत्मसिद्ध है। मात्र एक शब्द में ही इसका उत्तर पर्याप्त है। वह शब्द है - ‘एकाग्रता’। आप मन, बुद्धि और विचार की एकाग्रता साध लें तो ध्यान योग, आसन, सब सध जाते हैं। यदि आप मन की एकाग्रता को सिद्ध कर लें तो कैसी भी आपा-धापी हो, कैसा भी कोलाहल हो, सब ओझल हो जायेगा। यदि आप ‘एकाग्र’ नहीं हैं तो फिर किसी भी क्रिया में अग्र नहीं हो सकेंगे। क्रिया कोई-सी भी हो, सुसम्पन्न होने के लिये एकाग्रता माँगती है। मुझे एकाग्रता हमेशा अपनी सहायिका ही नहीं, सफल सहायिका लगी। आप कोलाहल, आपा-धापी और भरी भीड़ में भी एकाग्र हो सकते हैं।

प्रश्न - आपके समीप आचरण की शुद्धता के प्रतिमान रहे। आपको सर्वाधिक प्रेरणा किन बिन्दुओं पर, किन व्यक्तिया, स्थानों या विचारों से मिली?

उत्तर - मैंने अपनी जिज्ञासा को हमेशा जीवित रखा। अपने परिवेश में आये और रहे प्रत्येक व्यक्ति या प्रत्येक घटना से मैं सदैव कुछ न कुछ सीखता रहा। सीखने और जानने की इस अमृत इच्छा ने मुझे सदैव चैतन्य रखा। देश-विदेश प्रदेश और कहीं भी आते-जाते रहते मैं हमेशा कुछ न कुछ जानता और सीखता रहा। इसके बिन्दु और व्यक्तित्व दो-चार होते तो मैं नाम लिखता या बताता। यह एक अथक गणित है। मैं जिससे मिलता हूँ या कोई मुझसे मिलता है तो दोनों से मुझे कुछ-न-कुछ मिलता ही है। मुझे परमात्मा ने ‘समझकर जानने’ की प्रबलता दी है। शुद्धता और सिखाने की ललक, जड़ और चेतन दोनों को दी है। उदाहरणार्थ जड़ और निष्प्राण पत्थर तक हमें सिखाता है कि नींव में पड़ने को तैयार रहो ताकि तुम पर गुम्बज और कलश तथा पताकाएँ अपनी उपस्थिति बना सकें। प्रत्येक स्थान, प्रत्येक यात्रा हमें बहुत कुछ दे सकती है, बशर्ते कि आपकी जिज्ञासा जीवित हो। स्वयं को पूर्णांक मत मानो। हम अधूरे बने रहें तो कोई न कोई हमें पूरा करने की कोशिश करनेवाला मिल जायेगा। विचार आपकी बुद्धि और विवेक द्वारा ही अपना औचित्य आपको समझायेगा। यह एक प्रयोगशील प्रक्रिया है जो सतत् और सतवन्ती है।

प्रश्न - आपके ठहाके व विनोदप्रियता सर्वविदित हैं। कोई रोचक संस्मरण सभी से बाँटना चाहेंगे?

उत्तर - प्रसंगों में हास्य, विनोद और ठहाका ढूँढ लेना मेरी एक आनन्ददायी प्रवृत्ति है। लटका हुआ मुँह लेकर जियोगे तो कोई आपसे नमस्ते भी नहीं करेगा। लोग आपसे टल कर निकल जायेंगे। हँसते-मुस्कराते रहोगे तो हर कोई पूछेगा कि ‘क्या बात है? हमको भी तो बताओ?’ खैर, एक छोटा-सा प्रसंग लें। तब मैं मध्यप्रदेश सरकार में सूचना और प्रकाशन विभाग का मन्त्री था। सन् 1970 की बात है। सरकारी बंगला (जिसे पुतलीघर बंगला कहा जाता था) मेरा निवास था। मेरे स्टॉफ में एक चपरासी रीवा का था, जो पढ़ा-लिखा बहुत ही मामूली था। मैं अपने आँगन में आरामकुर्सी पर अधलेटी अवस्था में लेटा हुआ अखबार पढ़ रहा था। सूचना विभाग के राज्य मनत्री को प्रदेश के अखबार सारे पढ़ने पड़ते थे। अखबार की आड़ में मेरा चेहरा ढँका हुआ था। तभी मेरे अन्तर्गत विभाग में काम करने वाले अधिकारी श्री गुलशेर अहमद ‘शानी’ एक फाइल लेकर मुझे मिलने पधारे। वे मेरे घनिष्ट मित्र थे। मेरे साथ चाय पीना श्री शानी और श्री दुष्यन्त का एक तरह से संवैधानिक अधिकार माना जाता था। यह आत्मीयता थी। चूँकि मेरा चेहरा दिखाई नहीं पड़ा था सो शानी भाई ने उस चपरासी से पूछा- ‘साहब कहाँ हैं?’ चपरासी ने मेरी आराम कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए उत्तर दिया - ‘वो क्या आराम कुर्सी पर पड़े हैं! दिखता नहीं है?’ शानी भाई उत्तर सुनते ही ठहाका लगा बैठे। मैं भी अपने ठहाके को रोक नहीं पाया। मिनिस्टर हो या महाराजा, आराम कुर्सी पर पड़ा ही कहा जाएगा। उसे बैठा या अधलेटा कौन कहेगा? एक चौथे दर्जे के चपरासी ने भी मुझे ठहाका दे ही दिया। यह भी एक ठाठ है।

प्रश्न - ओशो की जीवन-दृष्टि व लौकिक मोक्ष की सांसारिक कल्पना को शब्द दें।

उत्तर - हिन्दी और संसार की बीसियों भाषाओं में आसानी से प्राप्त, ओशो की 650 पुस्तकों में से कोई भी पुस्तक पढ़ने का कष्ट करें। उनकी जीवन दृष्टि व मोक्ष की सांसारिक कल्पना को शब्द देना मेरे दायरे से बाहर की बात है। मैं क्षमा चाहता हूँ।
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विजय बैरागी - रंगकर्म और नाट्यकर्म के जरिए, जनवादी आन्दोलनों, सरोकारों, संगठनों/संस्थाओं की पहली पंक्ति के सक्रिय सदस्य। मालवा अंचल के सुपरिचित शब्द-सरोकारी। मनासा (जिला नीमच, मध्य प्रदेश) में रहते हैं। मोबाइल नम्बर 88218 89223 पर उपलब्ध हैं।
  





ओशो: शून्य के पार - त्रैमासिक, जारा पब्लिकेशन, पी. एम. हाउस, 31, पटवा कॉम्पलेक्स, नीमच (म. प्र.) 458441, मोबाइल - 93006 27593 और 76930 27593



श्री बालकवि बैरागी के अन्‍य साक्षात्‍कार










3 comments:

  1. ज्ञानवर्धक साक्षात्कार काफी बातें गहराई से तार्किक रूप से स्पष्ट हुई हैं। बहुत कुछ सीखने को मिला। सादर

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  2. सवाल और जवाब के द्वारा बालकवि बैरागी जी की उच्च स्तरीय हाजिर जवाबी हास परिहास और मेधा शक्ति का सुंदर परिचय देती शानदार प्रस्तुति।

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  3. अत्यंत उपयोगी व प्रेरणात्मक साक्षात्कार !

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