राकेश शर्मा
(अपने प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे करने की ओर अग्रसर, श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर की मासिक पत्रिका ‘वीणा’ के सम्पादक श्री राकेश शर्मा ने दादा का यह साक्षात्कार, 30 जुलाई 2017 को, दादा के, मनासा स्थित निवास पर लिया था। लगभग पौने दो घण्टे का यह सम्वाद, राकेशजी द्वारा सम्पादित और भावना प्रकाशन, 109-ए, पटपड़गंज, दिल्ली-110006 द्वारा प्रकाशित ‘वार्ता का विवेक’ साक्षात्कार संकलन में संग्रहीत है। यह साक्षात्कार, राकेशजी के यू-ट्यूब चेनल ‘आखर आखर राकेश’ पर तीन भागों में उपलब्ध है। संयोग ही रहा कि इस साक्षात्कार के समय मैं भी उपस्थित था।)
प्रश्न - अपने बचपन की स्मृतियाँ हमें बताएँ कि कहाँ जन्मे? उस समय क्या परिवेश था? किस तरह से साहित्य के प्रति आपका होता रूझान होता चला गया?
उत्तर -राकेशजी! आपका यह सवाल ही अपने आप में एक पुस्तक का रूप लेता है। बात यह है कि यहाँ से 32 किलोमीटर दूर एक नगर है ‘रामपुरा’। लोग उसे प्रायः रामपुर लिख देते हैं। वह रामपुरा है और होलकर राज्य का पुराना हिस्सा है। जब मैं 2 या 3 या 4 साल का था, तब वहाँ एक तालाब में डूबते-डूबते मरने से बचा। मेरा जन्म रामपुरा का ही है। 10 फरवरी 1931 को रामपुरा में मेरे नाना के यहाँ मेरा जन्म हुआ। मेरी माँ का नाम धापू बाई है। मैं जब करीब-करीब साढ़े चार से पौने पाँच का वर्ष का था तब मेरी माँ ने मुझे खेलने का जो खिलौना दिया, वह था - भीख माँग कर लाने का बर्तन। माँ ने कहा कि बेटा! जाओ! पड़ौस से कुछ भीख माँग लाओ। आटा, रोटी जो भी हो, पड़ौस से माँग लाओ तो घर में (रसोई का) कुछ काम शुरु हो। तो, साढ़े चार-पाँच वर्ष की उम्र से ही मैंने भीख माँगना शुरु कर दिया। मेरे पिता जन्म से ही अपाहिज थे। दोनों हाथों और पाँवों से लाचार। तो, मेरी माँ, मेरे पिताजी, मेरी छोटी बहन, जिसका देहान्त अभी दो साल पहले देहान्त हुआ और मैं, हम चार लोग अगर घर-घर, गाँव-गाँव, गली-गली भीख नहीं माँगते तो हमारा परिवार चल नहीं सकता था। तो, जिसे आप कहते हैं ‘भिखारी’, वह था हमारा परिवार - भिखारी। लेकिन मैं अपने-आप को भिखारी नहीं मानता हूँ। ‘भिखारी’ शब्द में एक गरिमा है। पर जो काम मैंने किया, उसमें गरिमा नहीं है। मैं ‘मँगता’ था। मँगता याने ‘गलियों का भिखमंगा’। स्ट्रीट बेगर। तो इस तरह से मेरा जीवन शुरु हुआ और 23 वर्ष की उम्र तक मैंने जूता नहीं पहना। आप मुझे बताइए, वहाँ से यहाँ तक लाऊँ तो सारी बातचीत में कितना समय लगेगा?
लेकिन मेरे दोनों छोटे भाई-बहनों ने भीख नहीं माँगी है। मेरा सगा छोटा भाई - विष्णु। ये मुझसे 17 वर्ष छोटा है। मैं 86 में चल रहा हूँ इस समय।
इसके बाद एक बहन है। जहाँ से आप घुसे हैं, इस बड़े फाटक को खोल कर, इसके पास से हमारा ‘मशान’ है। 10 कदम पर ही, भीतर ही भीतर। वहाँ 12 शव मेरे परिवार के, अपने कन्धों पर ढोकर मैंने जलाए हैं। मेरे अपने बैरागी परिवार में सबसे ज्यादा उम्र तक जीने वाला व्यक्ति मैं हूँ जो 86 वर्ष में चल रहा हूँ। बाकी किसी ने, अपने पोता-पोती तो देखे ही नहीं। भीख माँगते-माँगते मर जाते थे।
मैं मूलतः राजस्थान के बपावरकलॉँ गाँव का हूँ। मेरे परिजन वहाँ से चम्बल पार करके अकाल के वक्त में यहाँ पर आए थे। यहाँ, पास में एक
गाँव है, पिपलोन, जिसे हम ‘फीफण’ कहते हैं, वहाँ के पटेलों ने मेरे पुरखों को रोक लिया, कि कहाँ जा रहे हो? आप क्या कर रहे हो? उनका (मेरे पुरखे का) नाम मस्तरामदास था। मस्तराम दास जी तो 300-350 साल पहले चले गए। पर मस्ती छोड़ गए हमारे लिए। दुर्दशा के इस काल में मेरी माँ ने मेरी बड़ी मदद की। मैं माँ का निर्माण हूँ, पिता का तो जाया हूँ। निर्माण तो माँ का हूँ। पिता ने तो पैदा करके कह दिया कि जाओ, भीख माँगो। क्योंकि वो कुछ कर भी नहीं सकते थे। माँ एक वाक्य मुझे निरन्तर कहा करती थी - ‘अरे! ये दिन भी नहीं रहेंगे रे..! काम कर।’ तो इस एक बात पर मैं आज तक जीवित हूँ।
मैंने अपने जीवन में किसी को गुरु नहीं बनाया। बैरागी हूँ तो तुलसी की कण्ठी पहन लेता हूँ, शरीर पर धातु नहीं पहनता। आप देख रहे हैं, खादी पहनता हूँ और मैं अपना बचपन कहीं भूल नहीं जाऊँ इसलिए, हर तरह से सक्षम होने के बाद भी मैं आज भी खादी माँग कर ही पहनता हूँ। इसलिए कि मैं अपना बचपन भूल नहीं जाऊँ कि मैं गलियों का भिखमंगा था, मँगता था जिसने प्रताड़ना, अवहेलना, अनादर, सब सहा है।
मेरी समस्या यह होती थी कि अगर कोई जूठी रोटी दे देता, तो उसे मैं मुँह किधर से लगाऊँ? मेरा परिवार खाना किधर से शुरु करे उसे? ये हमारी समस्याएँ थीं। लेकिन माँ ने टूटने, घबराने नहीं दिया। माँ ने पूरा सहारा दिया। इसलिए मैं
आज जहाँ भी जाता हूँ तो कहता हूँ कि टूटो मत! घबराओ मत! निराश मत होओ। असफलताएँ कदम-कदम पर होंगी। लेकिन आज, प्रेमचन्द जयन्ती में आप मुझसे बात कर रहे हैं। प्रेमचन्द ने एक बात बहुत अच्छी लिखी कि जब तुम
गिर जाते हो, तो क्या करते हो गिरते वक्त? ये प्रेमचन्द का सन्दर्भ है, भाषा मेरी है, सन्दर्भ प्रेमचन्द का है। तो, ‘क्या करते हो गिरते हो तो?’
प्रेमचन्द खुद ही लिखते है - ‘आस-पास देखते हो, किसी ने तुम्हें देखा तो नहीं गिरते हुए?’ किन्तु आप देखते हैं कि उस वक्त कई लोग आपका उपहास करने के लिए आसपास खड़े हँसते रहते हैं। लेकिन प्रेमचन्द फिर कहते हैं - ‘उठो! और उठकर के जिसे पुरुषार्थ कहते हैं, उसका उपयोग करो।’ तो किसी ने पूछ लिया होगा - ‘कैसा उपयोग?’ तो बोले - ‘हम उठते ही पहले धूल झटकते हैं अपने कपड़ों की और वो (लोग) हँसते रहते है, देखने वाले। वो आपकी उठने में मदद नहीं करेंगे। धूल झटकते हैं हम खुद ही अपनी और झटकने के बाद आप काम में लग जाते हो।’
प्रेमचन्द कहते हैं कि जिन्दगी से कहो कि ‘मैं गिर गया, हार गया। कोई बात नहीं। आजा! एक बार फिर हो जाए!’ इसी का नाम है जिन्दगी। वो मैंने
जी ली और अभी भी मैं वो ही जी रहा हूँ। सब कुछ है लेकिन अगर आप मुझसे पूछते कि मैं आपके लिए क्या लाऊँ? तो मैं आपसे कहता कि मेरे लिए एक कुर्ते-पजामे की खादी लेते आना।
(बीच में कहते हुए राकेश शर्मा ‘यह मेरी कहीं जानकारी में नहीं था। अब जब भी हम आएँगे तो जरूर लाएँगे। ये मेरी ड्यूटी रही।’)
अब मैं रोटी नहीं माँगता, आटा नहीं माँगता, किताबें नहीं माँगता। इसलिए नहीं माँगता कि मैंने खुद ने 5 लाख रुपये तक की किताबें पार्लियामेंट की लाइब्रेरी, विधानसभा की लाइब्रेरी, यहाँ कालेज की लाइब्रेरी को दी हैं। कुछ किताबें यहाँ के स्कूल, जहाँ से मैंने पढ़ाई शुरु की उसको दे दी थीं। किताबें नहीं ले जाए, पत्रिकाएँ ले जाएँ। इस महीने की ‘वीणा’ आई, मैंने पढ़ ली, चली गई लाइब्रेरी में। तो इस तरह से, थोड़ा-सा काम ऐसे करते रहते हैं, लोग।
मेरी पढ़ाई यहीं पर शुरु हुई मनासा में। मनासा में सातवीं तक परीक्षाएँ होती पहले जब मैंने पास किया था। आठवीं नहीं थी। तो बताता हूँ। आपको बहुत अच्छा लगेगा सुनकर कि सातवीं की परीक्षा देने के लिए इलाहाबाद बोर्ड से परीक्षा देनी पड़ती थी यहाँ से। तो पहली बार रेलगाड़ी मैंने अपनी उम्र के तेरहवें साल में देखी। सन् 1944 में सातवीं पास की मैंने। राज्य में तीन हाई स्कूल थे - इन्दौर, खरगोन और एक रामपुरा। तो, फिर रामपुरा पढ़ने के लिए जाओ यहाँ से। तो, पिताजी नहीं चाहते थे कि पढ़ूँ, क्योंकि तब फिर काम कौन करे? मन्दिर की पूजा-पाठ कौन करे? बैरागी का नाम कौन सार्थक करे? नाम तो नन्दरामदास, पर घर पर मुझे नन्दा कहा जाता था।
इस तरह से रामपुरा 32 किलो मीटर पैदल जाता था मैं आठवीं पढ़ने के लिए। सन् 1947 में मेट्रिक पास किया मैंने। तब तक हफ्ते में पाँच दिन 32-32 किलोमीटर पैदल आना-जाना। एक दिन में 64 कि.मी. और रास्ते के गाँव में जहाँ कहीं भूख लगती, किसी से भी रोटी माँग लेता। कोई भी दे देता, रास्ते भर खाता जाता। ये मेरा जीवन था। मुझे खुशी है, सौभाग्य है कि 1947 में
आजादी आ गई। मेरे भाई-बहन बाद में पैदा हुए लेकिन इन्होंने वो विपन्नता नहीं सही कि बर्तन लो और भीख माँगने जाओ। इनको ये नहीं करना पड़ा। हम चार प्राणियों ने भीख माँगी थी।
पिताजी को इसलिए भीख माँगनी पड़ती कि मैं बच्चा था और वो अपाहिज थे, तो उनको देखकर भीख ज्यादा मिलती थी। सुनकर आपको कैसा लग रहा है?
मैंने समाज की प्रताड़नाएँ बर्दाश्त की हैं, अपमान बर्दाश्त किया है, ‘हट्ट! हिश्ट!! हिश्ट्ट!! मँगता आ गया स्साला! यह बर्दाश्त किया है मैंने! फिर जिन्दगी शुरु हुई तो एक सौभाग्य ये हुआ कि उस वक्त में रामपुरा में, रामलाल जी पोखरना जैसे फ्रीडम फाइटर ने गणेश उत्सव शुरु कर दिया। महात्मा तिलक का। अभी उसकी शताब्दी चल रही है। तो, चूँकि मैं गाता था तो मुझे वन्दे मातरम् गाने के लिए खड़ा कर दिया गया। यहाँ यदि मैं दो व्यक्तियों का नाम नहीं लूँगा तो अपने आप को अपराधी समझूँगा और मुझे बहुत बुरी गाली खानी पड़ेगी। एक श्री नरेन्द्र सिंहजी तोमर। वे शायद अभी भी हैं-पिवड़ाय में। इन्दौर के पास। उस दिन वे नहीं आए इसलिए मुझे वन्दे मातरम् गाने के लिए खड़ा कर दिया गया। तो, सन् 1945 के उस दिन, रामपुरा के छोटे तालाब मंे हुए, इन्दौर राज्य प्रजा मण्डल के अधिवेशन में मुझे खड़ा कर दिया। उस दिन से जो तिरंगा झण्डा पकड़ा है तो 77 साल हो गए है। कहीं नहीं भटका, कहीं नहीं गया।
मेरे जीवन के, व्यक्तित्व के निर्माता मूलतः माणिकलालजी अग्रवाल हैं। जो इन्दौर में, ‘सजन-प्रभा’ के मालिक हैं। ‘पूर्वा’ होटल के मालिक हैं। एक और होटल है ‘एम्बेसडर’ इन्दौर। उसके मालिक हैं। रतलाम में उनकी प्रॉपर्टी है। उनका एक बेटा रतलाम में हैं। मेरे मेट्रिक पास करने के 2 महीने बाद ही देश आजाद हो गया। मई में रिजल्ट आया और अगस्त में आजादी आ गई। फिर मैं पढ़ने के लिए नहीं जा सका।
मेट्रिक पास कर लिया तो यहाँ जमनालालजी जैन वकील साहब थे। झार्ड़ा वाले। उनके पास मुंशी हो गया। वहाँ कोर्ट में काम करते-करते मुझे एक दिन एक एप्लीकेशन लिखने के 2 आने मिले। दो आने की, दुअन्नी मिलती थी पहले पीतल की। आपने देखी होगी। वो दुअन्नी लाकर मैंने माँ को घर पर दी कि आज मैंने कमाया है। मेरी माँ मर गई तब तक वह दुअन्नी उसके पल्लू से बँधी हुई थी, कि मेरे बेटे की कमाई है। ऐसी माँ के हम बच्चे हैं तो बहुत यादें आती हैं उनकी। जिन्होंने आज हमको पाँव पर खड़ा किया उनमें से कोई भी नहीं बचा। माता-पिता नहीं हैं, पत्नी नहीं है। मेरी पत्नी ने सहारा दिया मुझे। तो मैट्रिक पास करने के बाद मैं नहीं पढ़ सका। अब फिर संस्मरणों पर जाना पड़ेगा। आप कहें तो मैं सुना दूँ।
मैट्रिक पास करने के बाद मैं आकाशवाणी पर बुलाया जाने लगा था। आकाशवाणी पर बुलाए जाने का कारण था कि मैं सिंगर पोएट था। मेरी पत्नी की मृत्यु के बाद गए 6 साल से मैंने गाना बन्द कर दिया। अब गाकर कविता नहीं पढ़ता मैं। क्योंकि उससे पहले ही कह दिया था मैंने कि अगर तू नहीं रहेगी मेरा तो मुख्य श्रोता ही चला गया! क्या सुनाएँ किसी को?
विलम्बित उच्च शिक्षा के संयोग-साधन
तो, एक दिन, इन्दौर में आकाशवाणी से आकर स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठा था, गाड़ी की प्रतीक्षा में। ऐसे में एक लम्बा-चौड़ा आदमी, शर्ट और पतलून में और उसमें टाई भी थी, मेरी पीठ के ठीक पीछे आकर उन्होंने कहा ‘तुम बालकवि बैरागी हो?’ मैंने कहा, ‘जी हाँ।’ बोले, ‘खड़े हो जाओ।’ मैं आश्चर्यचकित होकर देखने लगा। ‘उठो! मेरी बराबरी में खड़े हो जाओ। आ जाओ। हमें तुम पहचानते हो?’ मैंने कहा ‘नहीं। पहचानता सर!’ वे बोले - ‘मेरा नाम पी.डी शर्मा है (प्रो. पी.डी. शर्मा) और मैं मन्दसौर कॉलेज में हूँ। तुम एक काम करो कि जाते ही सीधे हमारे पास आओ, घर पहुँचने के बाद और आकर तुम इण्टरमीडिएट का फार्म भर दो और तीन-चार किताबें हम दे देंगे। वो पढ़ लेना।’ अब मेट्रिक में और इण्टरमीडिएट में 12 साल का फासला है। 12 साल तक मैं परिवार के ही संघर्ष में पलता रहा। तो मैंने कहा - ‘अच्छी बात है।’ तो, 1959 में मैंने इण्टरमीडिएट पास कर लिया।
पहला कवि सम्मलन
इस बीच एक कवि सम्मेलन हुआ तराना में। हरीश निगम ने निमन्त्रण दिया, बसन्त उत्सव का। मैं कवि सम्मेलन उसे मानता हूँ जिसमें पारिश्रमिक मिले कवियों को। कवियों को पारिश्रमिक नहीं मिले, तो मैं उसे गोष्ठी मान लेता हूँ।
मैं तराना के उस कवि सम्मेलन की विशेषता बता देता हूँ। उससे मेरा सौभाग्य जागा। उस कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता ही पं. सूर्यनारायण व्यास ने की, उज्जैन से। उसमें विशिष्ट अतिथि थे डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, उसके संचालक थे डॉ. चिन्तामणि उपाध्याय और उसमें श्याम परमार उपस्थित थे, बसन्तीलाल बम उपस्थित थे। श्रोताओं के साथ हमारे मंच में बैठे हुए थे। उस वक्त मैंने कविता करना शायद शुरु ही किया था। उस कवि सम्मेलन का ऐलान सुल्तान मामा ने गाँव में लाउडस्पीकर पर किया था। वो मेरा पहला कवि-सम्मेलन था, जिसका पारिश्रमिक कितना मिला मुझे? सात रुपया। उसके पहले मैं बालकवि बैरागी बन चुका था। 21 नवम्बर 1951 को मुझे बालकवि बैरागी बनाया, मनासा में। डॉ. कैलाशनाथजी काटजू यहाँ से चुनाव लड़ने के लिए आए। जावरा में उनका जन्म हुआ था।
‘बालकवि’ नामकरण
तो, यहाँ से चुनाव लड़ने के लिए जवाहरलालजी ने भेजा तो वे मनासा भी आए। यहाँ उनका 45 मिनिट का कार्यक्रम था। वो देश के गृह मन्त्री थे। हमारे तहसील काँग्रेस अध्यक्ष ने कह दिया कि हमारा नन्दराम दास एक कविता सुनाएगा। माँगीलालजी पोगरा नाम था उनका। फ्रीडम फाइटर थे। भाटखेड़ी के रहने वाले किसान थे। तो मैं खड़ा हुआ और मैंने एक गीत गा दिया। तो डॉक्टर साहब ने कहा कि एक और सुनाओ। मैंने फिर सुना दिया। उन्होंने फिर कहा कि एक और सुनाओ। सुना दिया। तो, एक और सुनाओ। अब मैं इधर-उधर देखकर सुनाता जा रहा हूँ। गाँव के लोग सामने बैठे हुए हैं। कालीन बिछी हुई है। तो कहा कि एक और सुनाआ। मैंने मन ही म्न कहा कि अब यदि इन्होंने कह दिया कि एक और सुनाओ तो द्रोपदी निर्वस्त्र हो जाएगी। पर कन्हैया सहायता करने वाला था। मैंने एक और सुना दिया। तब तक मिलेट्री सेक्रेटरी ने घड़ी दिखाई, ‘सर! देखिए! आप 45 मिनट के लिए आए थे और 40 मिनट से आप इनके गीत ही सुन रहे हो। आप कब बोलोगे? और आगे का पूरा प्रोग्राम बचा है भानपुरा तक का।’ तो वो उठे, खड़े हुए बोले कि ‘जवाहलालजी ने भेजा है कि देश आजाद हो गया है। तिरंगा झण्डा पकड़ो। हर गाँव में जच्चालय हो। हर गाँव में महिलाओं को जच्चा अलग मकान में हो, उसके लिए जच्चा घर बनाओ और गाय की रक्षा करो। और ये जो है ना ये! (मैं सामने बैठ गया था) ये कवि गा रहा था, ये आपके गाँव का, ये ‘बालकवि’ जैसा कहे? वैसा करना। तुम्हरा भला होगा और मुझे दिल्ली से जोड़ने की कोशिश करो।’ ये भाषण दे कर, पाँच मिनिट में उन्होंने मुझे गाड़ी में बैठाया और ले कर चले बने। अब, उनको तो आगे जाना था। मेरे लिए समस्या थी। उन्होंने मुझे रामपुरा में उतार दिया और कहने लगे कि ‘बस! इसी तरह से काम में लगे रहो, काँग्रेस में।’
तो, इस तरह से मेरा नाम ‘नन्दराम दास बैरागी’ से ‘बालकवि बैरागी’ पड़ गया और इसके साथ एक खुशकिस्मती और है, क्योंकि आप ये कैमरा लेकर आए हो, इसलिए बताता हूँ। खुशकिस्मती कि पूरे संसार में ‘बालकवि बैरागी’ अकेला हूँ। क्योंकि बैरागी तो कई मिल जाएँगे लेकिन उनमें बालकवि नहीं।
मैं तो अकेला आदमी हूँ। तो इस तरह से कम्प्यूटर पर ढूँढते हैं कई लोग तो आसानी से मिल जाता है। बालकवि बैरागी कहीं भी मिल जाएगा आपको। लेकिन मेरी कोई वेबसाइट नहीं कोई। मेरे पास कोई ऐसा मोबाइल नहीं है। इस तरह से मेरी जिन्दगी चलती रही।
प्रश्न - वह संस्मरण अधूरा रह गया जिसमें सुमनजी थे, व्यास जी थे।
उत्तर - कवि-सम्मेलन सफल रहा और उसके बाद में जो लोगों ने मुझे पहचाना, बहुत लाभ मिला मुझे। यहाँ से वहाँ तक जानते हैं कि घर भर का भीख माँगना छूटा, माँ का भीख माँगना छूटा।
मैं अकेला व्यक्ति आपके आस-पास ऐसा हूँ जो और कुछ हो तो हो, जो लोकसभा, विधान सभा और राज्य सभा तीनों में रहा। मैं पहला व्यक्ति हूँ जो बैठा हुआ हूँ लेकिन अपनी सीनीयरटी का, अपनी वरिष्ठता का कभी दुरुपयोग हीं किया है मैंने। मैं अकेला व्यक्ति हूँ जिसने लिख कर दिया है सोनिया गाँधी को कि मेरी उम्र अब इतनी हो गई है। मुझे अब किसी पद पर मत रखना और मुझे पैसे की कोई आवश्यकता नहीं है। पद, प्रतिष्ठा और पैसा ये तीनों चीजे मुझे आपसे नहीं चाहिए और मेरे लायक कोई काम हो तो बता देना। अभी इतने वर्ष का हो गया हूँ। तो मेरे बाद वालों को यदि समय ही नहीं मिलेगा, तो वो कैसे मुझे पसन्द करेंगे। मेरे बाद वाली पीढ़ी को हक है कि वो अपना अधिकार प्राप्त करे। 1 जनवरी को पहला पत्र ही मैं अपने नेता को हर वर्ष लिखता हूँ। पहले जवाहरलाल नेहरू को, इन्दिरा गाँधी को लिखता था और मैं अब सोनिया गाँधी को लिखता हूँ। तो इसका लाभ मुझे सारे देश में मिला। लोकसभा और राज्य सभा के कारण सारे देश को मैंने चार बार घूम कर देखा है। देश का कोई हिस्सा नहीं बचा है जो मैंने नहीं देखा है। अभी तक मैंने आज इस वक्त में जब आप बैठे हैं मेरे पास, इस वक्त में सबेरे भी टेलीफोन आया था कि कवि सम्मेलन में आएँ। तो कहाँ जाऊँ भला? नहीं आ पाऊँगा क्षमा करना।
तो लोग आज भी बुलाते हैं। एक बात विशेष रूप से करते हैं कि ‘आजकल क्या रहे हैं।’ मैंने कहा कि ‘शोभा बढ़ा रहे हैं।’ आपके आने से हमारी शोभा बढ़ेगी। शोभा बढ़ा रहे। ये काम भी कर रहे हैं। इस तरह से अपना जीवन हम सुखी होकर आराम से जी रहे हैं। कोई असन्तोष और मेरा कोई किसी से विवाद नहीं है।
मैं मंच पर हमेशा ध्यान रखता हूँ कि बाद वाली पीढ़ी को प्रोत्साहित करना मेरा कर्तव्य है और मेरा धर्म है। मैं उसको बगैर सुने नहीं जाऊँगा हमारे बाद वाले भी खुश रहें और हमसे सीख भी मिले उनको। काफी अच्छा लिख रहे हैं और मुझे एक बात की खुशी है। मैं तो मालवी का कवि हूँ। मालवी में लिखा, मालवी में शुरु हुआ और अभी भी कुछ-न-कुछ, छोटा-मोटा कर लेता हूँ। लेकिन मालवी में इन दिनों गैर मालवी लोग ज्यादा लिख रहे हैं। मराठी लोग ज्यादा लिख रहे हैं, गुजराती लोग ज्यादा लिख रहे हैं। जो मालवी नहीं बोल सकते थे, जिनका मालवी से कोई सम्बन्ध नहीं है, वो मालवी लिख रहे हैं और मालवी पत्रिकाएँ ज्यादा निकल रही हैं। इस बात की प्रसन्नता है।
एक ‘हिन्दी-व्रत’
रहा सवाल हिन्दी का तो मेरा एक छोटा सा व्रत है, भगवान करे, आप में से को ले ले तो अच्छा रहे। छोटा सा व्रत है, अंग्रेजी में अगर विवाह का निमन्त्रण आए तो मैं उत्तर भी नहीं देता। समझ रहे हें मेरी बात को? इन लोगों से भी, घरवालों से कहता रहता हूँ, कि तुम्हारा, अगर बच्चे के कार्यक्रम का भी कार्ड अँग्रेजी में छपे तो मेरा नाम मत छापना उसमें। मैं नहीं आऊँगा उसमें। वो इसलिए, मैंने कहा ये अँग्रेजी की धौंस किस पर जमा रहे हो भाई? अभी-अभी 13 तारीख को शादी हुई है ये सब आपको लाने वाले लोग गए थे, वहाँ पर। तो उनके यहाँ नहीं गया। उनके माँ और बाप दोनों आए, मैंने कहा ये निमन्त्रण वापस ले जाइए मैं उसमें नहीं आऊँगा। बोले क्यों? मैंने कहा ये अँग्रेजी में है। ये न आपकी माँ का दूध है न मेरी माँ का। तो, न तो मैं आपको अपनी माँ के दूध का अपमान करने दूँगा न मेरी अपनी माँ के दूध का अपमान बर्दाश्त करूँगा। यह निमन्त्रण वापस ले जाइए। जब हिन्दी में छपे तो मेरे पास भेज देना।
राकेश शर्मा - ‘आपका व्रत कठिन है।’
उत्तर - कठिन क्यों है? सारे देश में दो लोग थे ऐसे। एक चला गया। एक थे पिलखुवा के शिवकुमार गोयल। गाजियाबाद जिले के। जो ‘कल्याण’ के सबसे बड़े लेखक रहे। वो भी अंग्रेजी के निमन्त्रण पर चुप रह जाते थे। उत्तर नहीं देते थे। उनका देहान्त दो साल पहले हो गया। अब इस व्रत का निर्वाह करने वाला मैं अकेला बैठा हूँ। खाली शादी के निमन्त्रण। बाकी व्यापार आप अँग्रेजी में करिए। किसी भी देशी भाषा में करिएगा। आप भले ही तो पंजाबी भाषा में छाप कर ले आओ। मैं पढ़वाने की व्यवस्था कर लूँगा। आप अगर मराठी हैं तो मराठी में ले आओ, कर लूँगा व्यवस्था। गुजराती हैं तो गुजराती में ले आओ। लेकिन अँग्रेजी! तुम्हारे यहाँ महारानी विक्टोरिया आएगी, हम क्यों आएगे?
प्रश्न - सर! आपके जीवन वृत्तान्त को सुनते हुए मन आन्दोलित भी हुआ और उसको सुनते हुए पाया कि इस कठिन दौर से गुजर कर आप देश की शीर्ष संस्था, हमारी संसद तक गए। मैं पहले तो महान् माँ को प्रणाम करूँगा जिन्होंने वो संस्कार आप में डाले और इस देश को, समाज को और हमें हिन्दी साहित्य समिति के उपाध्यक्ष के रूप में आपको सौंपा है। सचमुच में यह, बहुत विरल बात है और मेरी स्मृति में जो कुछ भी मैंने साहित्य में पढ़ा, लिखा और जीवनियाँ पढ़ीं उनमें ऐसा सब बिल्कुल नहीं मिला।
उत्तर - अब आपका एक प्रश्न है कि पहली कविता कब लिखी? वह एक बहुत मीठा संस्मरण है। मैं चौथी का विद्यार्थी था। नौ वर्ष का। और, स्कूलों में आप जाते हो, मिडिल स्कूलों में तो आप देखते होंगे कि कक्षा प्रतियोगिताएँ होती हैं किसी विषय पर। तब सारा स्कूल बैठता है और एक समारोह बना देते हैं। ऐसे में एक शिक्षक को संचालक बना देते हैं, दो निर्णायक होते हैं। उसमें कौन प्रथम आया वे तय करते हैं।
पहली कविता
मैं चौथी का विद्यार्थी था। तो मैं गाता हुआ भीख भी माँगता था। पूजा करने जाता पिपलोन मन्दिर की, तो उसमें भी गाता-गाता जाता था और गाता-गाता आता थ। तो इस बार विषय रहा हमारे वक्त का - व्यायाम। तो शायद मेरे मुँह से गाते-गाते एक पंक्ति निकल गई - ‘भाई! सभी करो व्यायाम।’ और इसमें मुझे इसलिए सुविधा थी कि इसमें तुक मिलाने के लिए ‘नन्दराम’ शब्द ठीक था। ‘कसरत ऐसा अनुपम गुण है, कहता है नन्दराम, भाई! सभी करो व्यायाम।’ तो मैंने 5-6 पंक्तियाँ ऐसी बनाईं। रामनाथजी उपाध्याय, वो हमको छठवीं, सातवीं में हिन्दी पढ़ाते थे, उन्होंने कहा ‘बाबाजी! कुछ किया? तैयारी है?’ मैंने हाँ कहा और वे 5-6 पंक्तियाँ सुनाईं। वे बोले - ‘गा कर सुनाओ।’ तो मैंने सुनाया। वे बोले - ‘ये कविता है। ध्यान रखना।’ तो मैंने चार-पाँच नाम और जोड़कर व्यायाम से जोड़ दिया। वे बोले - ‘ये कविता है बेटा! ध्यान रखना। इसको पूरी याद कर ले, कहीं न कहीं सुनानी पड़ेगी। चौथी क्लास के कक्षा टीचर ने मुझे प्रतिनिधि बना दिया और बोले ‘हमारी क्लास का प्रतिनिधि नन्दरामदास बैरागी है।’ उस वक्त मैं बालकवि बैरागी नहीं बना था।
प्रतियोगिता में मेरा नम्बर आया तो खूब तालियाँ बजीं। खूब अच्छा लगा लोगों को। निर्णायकों ने अपना फैसला अध्यक्ष को दिया और अध्यक्ष ने फैसला सुनाया कि चौथी क्लास फेल हो गई, असफल हो गई। मेरे शिक्षक का नाम था भैरवलाल चतुर्वेदी। वे राजस्थान के थे। उन्होंने कहा - ‘कैसे असफल हो गया?’ अरे साहब! आपस में झगड़ा हो गया। शिक्षकों का झगड़ा, मन-मुटाव भी सामने आ गया। चतुर्वेदीजी बोले - ‘ये कभी बर्दाश्त नहीं होगा। ये सारी बैठक रद्द मानी जाएगी।’ तो उन्हें कहा कि पहले निर्णायकों से पूछ लो कि आप असफल क्यों? फेल क्यों हो गए? तो उन निर्णायकों ने ये कहा (जो तकनीकी बात थी) कि साहब! ये भाषण प्रतियोगिता थी, कविता की प्रतियोगिता नहीं थी। इसीलिए ये असफल हो गया। साकुरीकर साहब हेडमास्टर थे। मनासा के हर मिडिल स्कूल में जो प्रधान शिक्षक होता था वो वहीं से था इन्दौर से और मराठी भाषी ही होता था। ये सब उनकी नीति थी। राजभाषा उनकी ये थी।
तो साकुरीकर साहब खड़े हुए। उनकी आदत थी बार-बार आस्तीनें चढ़ाने की। उन्होंने कहा कि नतीजा चाहे जो हुआ हो, उन्होंने जेब में से दो रुपये का नोट निकाला और मुझे दिया कि ये तुम्हारा पुरस्कार हैं, ईनाम है और ये (निर्णायक) जो काम करते रहे, करते रहेंगे, तुम अपना काम करो जाओ। साहब! उस समय में 2 रुपये मिल जाना! कविता का पाश्रिमिक तो बाद में मिला, लेकिन पुरुस्कार तब से मिलना शुरु हुआ।
पुरुस्कार और सम्मान का अन्तर
एक बात और बता देता हूँ कि अब मैं पुरुस्कार नहीं लेता हूँ। अब मैं सम्मान स्वीकार करता हूँ। पुरस्कार के लिए मैंने न कोई एप्लीकेशन दी है और न ही कोई कतार में खड़ा हूँ। क्या हुआ है कि आप मुझे पुरुस्कार दे रहे हैं, किस बात के लिए पुरस्कार दे रहे हैं? तो अब मैं सम्मान स्वीकार करता हूँ। अब जैसे मान लीजिए ये हमारी साहित्य समिति मेरे यश को देखते हुए मुझे एक लाख रुपया दे दे, तो मैं लूँगा नहीं। माथे चढ़ा लूँगा और वापस दे दूँगा। नहीं चाहिए मुझे। मैं संस्था का उपाध्यक्ष हूँ और पैसा आपसे? अपना जो कुछ काम बताओ वो कर दूँ, जहाँ दस्तखत करना हो कर दूँगा और प्रणाम हमारा स्वीकार कर लो। आज तक मैंने सरकारी एकेडमी का एक भी पुरस्कार स्वीकार नहीं किया। कभी नहीं लूँगा। गैर सरकारी तो जो देगा, वह लूँगा, कोई मना नहीं करता। ये अभी जो सम्मान हुआ तो मैंने मंच पर कहा कि अगर ये पुरुस्कार है तो ये मैं वापस यहीं मेरठ को दे दूँगा। सम्मान है तो स्वीकार करूँगा और अभी वहाँ से, अम्बाला छावनी से टेलीफोन आया कृष्णा महाराज जैन (अपने महाराज कुमार जैन की पत्नी, वो इन्दौर वाली लड़की जो दुबे कृष्णा हैं, वो आजकल वहीं रहती हैं।) का। उन्होंने कहा,बधाई, आपको एक लाख रुपये पुरस्कार मिला। मैंने कहा कृष्णाजी! आपको जानकारी गलत है। मुझे सम्मान मिला है, पुरस्कार मिला होता तो मैं वहीं वापस कर देता। अरे! बोली, आपने तो मुझे नई बात सिखा दी। सम्मान और पुरस्कार में फर्क होता है। मैंने कहा पुरस्कार तो कभी भी आपसे हाथ जोड़ कर ले लेते हैं लोग। सम्मान तो आप अपनी मर्जी से देते हैं। सम्मान होता तो ले लेते हैं। लेकिन जो सम्मान नहीं है और पुरुस्कार है तो नहीं लेता हूँ मैं।
प्रश्न - सर! आपकी स्मृतियों में बहुत सारा साहित्य भी है और क्योंकि आप एक राजनेता के रूप में देश और समाज की सेवा करते रहे हैं और आज भी कर ही रहे हैं। संसदीय राजभाषा समिति के माननीय सदस्य रहे हैं। हम जानना चाहते हैं कि आपके देखे हिन्दी की प्रगति हुई है या हम अभी वहीं ठिठके हुए हैं?
उत्तर - पहले तो एक बात, दो बार रिकार्ड करो मेरी बात को कि दुर्भाग्य से मैं आजादी की लड़ाई का सिपाही नहीं रहा। ये मेरा दुर्भाग्य था। मैं केवल आजादी की लड़ाई लड़ने वाले सिपाहियों का, सेनानियों का, नेताओं का पोस्टमेन था। मुझे खुद पता नहीं कि इस पत्र में क्या है? बस उन्होंने कह दिया नन्दराम! जा रहे हो उधर तो ये ‘बहुरंग’ (राकेश शर्मा की ओर इशारा करते हुए क्योंकि वे ‘बहुरंग’ साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक हैं) वाले को दे देना उधर। तो हमें क्या पता इसमें क्या हैै? उम्र ही 14-15 साल की थी और दोनों घरों का संघर्ष था। यहाँ भी भीख माँगो, रामपुरा में भी भीख माँगो। मेरे सगे ननिहाल में मैं भीख माँगता था। मेरी सगी फूफी और सगा फूफा वहीं थे। लेकिन रोटियाँ माँगनी पड़ती थीं। और जिन लोगों के यहाँ रोटियाँ माँगता था उन लोगों ने मेरा राजनीतिक व्यक्तित्व बनाया। लेकिन पार्लियामेंट में जाने के बाद में (उसके पहले मैं यहाँ विधानसभा सभा चुका था) तो मुझे राजभाषा समितियों में रखा गया। 11 वर्षों के वहाँ के संसदीय जीवन में मैं लगभग 20 समितियों में रहा।
आप मुझे ये बताइए कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक जो अच्छे पढ़ा रहे हैं, उनके बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जा रहे हैं। आप इन्दौर में ही देख लेना जाकर, उनके माता-पिता तो यहाँ सरकार की तनख्वाहें ले रहे हैं। लेकिन बच्चे प्राइवेट स्कूल में जा रहे हैं। और जब उनसे कहा ऐसा क्यों कर रहे हो? तो बोले, बच्चे नहीं मानते हैं साहब! बच्चे वहीं जाना चाहते हैं। जब आपके बच्चे आपकी बात नहीं मानते तो आपके बच्चे कहाँ हैं? हमारे यहाँ बड़ा स्कोप है भारत में। माँ बेटा साथ में खड़ा हो या बिटिया खड़ी हो। ये किसका बेटा है? तो माँ कहती है ‘मेरा बेटा है।’ और पिता खड़ा हुआ है, पिता से पूछो कि ये किसका बेटा है? तो ‘साहब! आप ही का है।’ अरे तुम्हारा भला हो! पुरुष घबरा के देखता है अपनी पत्नी की तरफ। वो हाँ करे तो हाँ हो। आए दिन देख रहे हो कि नहीं देख रहे हो? वो बच्चा वहाँ जाकर सीधे अंग्रेजी में हस्ताक्षर करना शुरु करता है। हिन्दी में अपना नाम नहीं लिखेगा। अंग्रेजी में लिखेगा। तो, हम ऐसी पढ़ियों के अभिभावक हैं। तो कम से उनसे कहो कि हिन्दी में हस्ताक्षर करें। आपके बच्चों से भी कहो। सबसे कहो। (हिन्दी में हस्ताक्षर करना) बड़ा अटपटा मानते हैं बच्चे।
अब इस उम्र में कहाँ जाएँ? बताओ कि हम आए हैं और हमारी व्यवस्था ऐसी करना, वैसी करना। बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन अच्छे कवि सम्मेलन गैर हिन्दी प्रदेशों में होते हैं। महाराष्ट्र में होते हैं, बंगाल में होते हैं, तमिलनाडु में होते हैं। हिन्दी प्रदेशों में तो प्रदर्शन गड्ड़-मड्ड हो जाते हैं।
प्रश्न - वहाँ हिन्दी सम्प्रेषित होती है? सुनते हैं
उत्तर - अरे! आराम से। कोई कमी नहीं है। हिन्दी के सम्प्रेषण में तो कोई झगड़ा ही नहीं है किसी तरह का। लेकिन एक बात जरूर कहना चाहूँगा। राजभाषा समिति में रहकर के मैंने सीखा है, जैसी हिन्दी आ रही है, वैसी आने दो। रोको मत। आपका एक बच्चा तोतला बोल रहा है तो आप क्या करते हो? उसका बोलना बन्द नहीं करवाते हो और पड़ौसियों को बुलवाते हो, ‘यार! देखो और सुनो, ये कैसा बोलता है।’ तो, जैसी आ रही है वैसी आने दो। ये हिन्दी की शुद्धता का समय नहीं है। उसके (हिन्दी के) आने का समय है। जैसी आ रही है, आने दो। लोग अपने आप सीधा कर लेंगे और आपको इन्दौर में रहकर के सीधा फर्क लग जाएगा।
हिन्दी वाले सोचें
किसी भी हिन्दी की संस्था में, जैसे मान लिजिए मैं इस पर उंगली नहीं उठाता हूँ कभी भी। क्यों नहीं साल में दो-चार सम्मेलन गुजरातियों (साहित्यकारों) के होते हैं? क्यों नहीं साल में दो-चार सम्मेलन मराठियों (साहित्यकारों) के होते हैं? आप उनसे उम्मीद करोगे कि वो हिन्दी की सेवा करें। लेकिन हम उनको अपी जाजम पर बैठने के लिए कब बुलाएँगे? ये कहिएगा उनसे जो अपने पदाधिकारी हैं। ये उपदेश वाली बात नहीं हैं, फटकार वाली बात नहीं है। निवेदन है, आग्रह है हमारा। तो, इन सारी बातों पर सोचना चाहिए, हिन्दी वालों को, हमें सोचना चाहिए। और हिन्दी सरलतम भाषा है। हिन्दी को जटिल मत बनाओ। गले उतरती भाषा का उपयोग करो। ये बात आपसे कोई नहीं कहेगा। न किसी ने कही है इसलिए इसका अहंकार नहीं है। नम्रतापूर्वक कह रहा हूँ आपसे।
जिसने भी संस्कृत को देव भाषा कहा, उसने हिन्दी के साथ अन्याय किया। वो तो देवताओं की भाषा हो गई! मनुष्यों की भाषा बची ही नहीं! अरे! अब आप संस्कृत कहाँ बोलेंगे? आपके बच्चे संस्कृत शालाओं में नहीं जाते। ये (संस्कृत) तो ‘देव भाषा’ हो गई! देवताओं की भाषा है! तो, इंसानों की भाषा तो सचमुच हिन्दी है। आपको मेरी ये बातें कड़वी लग सकती हैं। मुझे पता है, आप बाद में सम्पादन कर सकते हैं। आप इन अंशों को निकालना चाहें तो निकाल दीजिएगा। मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
अगली बात, अँग्रेजी के बारे में विशेष कह रहा हूँ इसे प्रमुखता के साथ उछालो कि अँग्रेजी एक भाषा है, उसके पास ज्ञान नहीं है। ज्ञान की तलाश में तो अँग्रेज भी हमारे ही यहाँ आता है। और, जो अंग्रेजी में पढ़-लिख लिया है उसका भविष्य भारत में नहीं है। उसे बाहर ही जाना है। आपके पास उसका भविष्य है क्या? वो जानता ही नहीं है उसके पास ज्ञान तो हिन्दी का है और भाषा अँग्रेजी। तुम समझा ही नहीं सकोगे कि क्या मतलब होता है। जिसने ‘देव भाषा’ को सिद्ध कर दिया उसने हिन्दी के रास्ते में कुछ ऐसा कर दिया है जिससे कि दस बार सोचो कि (बाहर/विदेश में) जाते हैं कि नहीं जाते हैं।
यह बनावटी बौद्धिकता का वर्ष है। लोग बौद्धिक होने की कोशिश करते हैं। बनावटी बौद्धिकता का ये युग चल रहा है। तो बनावटी बौद्धिकता को बर्दाश्त करना हिन्दी वालों के लिए बहुत मुश्किल है। संस्कृत वाले कर जाएँगे क्योंकि वो ‘देव’ है
प्रश्न - आप बालपन से ही कवि सम्मेलन से जुड़े हुए हैं। उस समय जो मंच हुआ करते थे जहाँ कविता पाठ होते थे और आज भी आप कवि मंचों से जुड़े हुए हैं। कितना फर्क दिखता है? कविता से कहाँ पहुँची?
उत्तर - ये जो आप बात कर रहे हैं ये कवियों पर सीधी उठती उँगली है । लेकिन मैं जानना चाहता हूँ, श्रोता कैसे हैं आपके? अगर श्रोता न हों तो कविता पाठ किस काम का? किसके लिए काम का है? और, पहले कवि सम्मेलन होते थे साहित्य के लिए, संस्कृति के लिए, संगीत के लिए। आजकल कवि सम्मेलन होते हैं मनोरंजन के लिए। तो, उस कवि ने क्या बिगाड़ा है कि आप उससे मनोरंजन लिखवा रहे हो? अरे साहब! कवि सम्मेलन सफल होना चाहिए। तो, इसलिए वो अच्छी कविताएँ लिखनेवाला कवि, अच्छी कविताएँ एक तरफ रख देता है और लोकप्रिय कविताएँ सुनाने की कोशिश करता है। लेकिन एक समय ऐसा आता है कवि सम्मेलन के तीन-चार घण्टों में कि जिसमें बौद्धिक कविताएँ सुनी जाती हैं और वो घण्टे, डेढ़ घण्टे का समय थोड़ा मनोरंजन का होऔर ताली बजनी चाहिए। तो फिर बड़ा मुश्किल है। बहुत कठिन है ये काम और सवेरे का अखबार पढ़कर, शाम को उस पर आप कविता सुनाओ तो कौन सुनेगा? किसे फुरसत है? क्यों सुनेगा? अखबार पढ़ना बन्द कर दिये विष्णु ने तो। मेरे पास 5 अखबार आते हैं और मैं उनको मुश्किल से 20 मिनट में पढ़ लेता हूँ। खुश रहता हूँ। तो, ये जो पीढ़ियों के और श्रोताओं की पीढ़ियों में जो बदलाव आता चला जा रहा है, उसका असर है कि कई अँग्रेजी शब्दों का उपयोग करना पड़ रहा है। हिन्दी का झगड़ा कतई नहीं है। जैसे ट्रेन लेट है तो, आप लिखते हो - ट्रेन लेट है। देवनागरी नागरी से तो झगड़ा नहीं है न? उसमें लिख दिया करो! क्या बिगड़ता है? लेकिन उसको अंग्रेजी लिपि में लिखोगे। जैसे, मैं उस अखबार का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन वो इस तरह जैसे एक अभियान है, नाम ही अंग्रेजी लिपि में लिखे तो कौन पढ़ेगा? कौन समझेगा उसे? उसका नाम तो हिन्दी में लिखो यार! तो, हिन्दी के लिए कोई बुरा समय नहीं है। हिन्दी के लिए समय अच्छा है। लेकिन पीढ़ियों को थोड़ा-सा जगाइये आप। पीढ़ियाँ जाग जाएँ तो हिन्दी का थोड़ा और ज्यादा हित होगा।
प्रश्न - सर! आपने फिल्मों में भी गीत लिखे?
उत्तर - फिल्मों के लिए लिखे और करीब 25-26 फिल्मों में लिखे। लेकिन मैं बम्बई में रह नहीं सकता था, इसलिए और नहीं लिखे। अब जैसे मेरा प्रसिद्ध गीत है ‘रेशमा और शेरा’ का ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’। जयदेव वह गीत लिखवाने के लिए भोपाल आए। तब मैं मिनिस्टर था और मिनिस्टर की हैसियत में ही मैंने वह गीत लिखा। तो क्या, मिनिस्टर ने गीत लिखा? रात को मैं दफ्तर से, वल्लभ भवन से घर आया और हारमोनियम लेकर मैंने जयदेवजी से कहा, वे मेरे स्वप्न पुरुष थे, मेरे सपने में आते थे जयदेव। मैं चाहता था कि उनके साथ काम करूँ। उनकी डायरी में मेरे 70 गीत चले गए। उनके साथ ही चले गए। मर गए तो डायरी कहाँ गई, आज तक पता नहीं। उन्होंने किसको दिये, मुझे क्या पता? तो, जैसे-जैसे समय मिलता गया, मुझसे लिखवाते गए। मैं लिखता गया। आज भी कोई लिखवाएँ तो आज भी लिख दूँ। लेकिन यहाँ। बम्बई आकर लिखो, नहीं लिखूँगा! यहाँ आ जाओ, बैठो, गाऊँ, लिखो। गाँव देखो, वातावरण देखो, उसके बाद हमसे गीत की बात करो। दो घण्टे में लिख दिया था मैंने ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’। कोई दिक्कत नहीं हुई।
प्रश्न - राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों की कोई स्मृति, जो आपके प्रेरणा स्रोत रहे हों उनमें से कोई ऐसे कवि, जिसे आज याद करना चाहें
उत्तर - दिनकर जी की अध्यक्षता और यशवन्त रावजी चौहान, सुरक्षा मन्त्री, दिल्ली का रामलीला मैदान। चीन के आक्रमण का समय। सुनने वाले कम से कम पौन लाख से ज्यादा लोग, 75-80 हजार और मैंने कविता पढ़ी ‘चलो देश के लौह लाड़लों, माँ ने तुम्हें बुलाया है’। और जनता के सामने झोली फैला दी। दिनकरजी के पास, लाखों रुपये इस झोली में आ पड़े। कान के बुन्दे, गले के हार, महिलाओं ने, सबने, किसी ने घड़ियाँ, किसी ने नोट। सब डाल दिए। वे सब राष्ट्रीय कोष में गए। यह उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि दिनकरजी ने अपनी डायरी में इसका उल्लेख किया। दिनकरजी ने डायरी लिखी, उसमें लिखा कि मुझे मेरा उत्तराधिकरी आज मिल गया।
प्रश्न - आपके, काव्य जगत के जो प्रेरणा स्रोत हैं उनके नाम आप बताएँ।
उत्तर - बहुत अच्छा किया जो ये सवाल कर लिया। मैं सबको बताता हूँ। कविता के क्षेत्र में मेरे तीन लोग हैं जिनका मैं आभारी हूँ - दिनकरजी एक, दूसरे शिवमंगल सिंहजी सुमन और तीसरे, हमारे भवानी प्रसादजी मिश्र। अगर भवानी भाई नहीं होते तो मैं कहाँ होता? भवानी भाई ने एक वाक्य ऐसा बोल दिया है वहाँ, समिति की दीवारों पर इसे लिखवा दो। मैं लाल किले (के कवि सम्मेलनों) पर बहुत पसन्द किया जाता था। लाल किले पर मैंने कोई 30 कवि सम्मेलन पढ़े होंगे। कवि सम्मेलन शुरु होने से पहले लोग कहते थे कि बैरागी को बताओ हमको, तो ठीक है। तो पहले मैं दिखाया जाता था खड़ा कर के कि लो देख लो साहब! ये बैरागी आ गया। अब बैठो, सुनो। तो, सवेरे सात बजे तक आखरी कविताएँ मैंने ही पढ़ी हैं अब तक। लेकिन भवानी भाई के इस वाक्य ने मेरी जिन्दगी बदल दी। मेरे पक्ष में लोगों ने, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सम्पादकजी ने लिखा, छापा उस समय। लेकिन लोगों ने अटपटा भी कहा कि ये तो सब तुकबन्दी है। तुकोजीराव है, ऐसा बताते रहे, कहते रहे। तो मैंने भवानी भाई को लिखा। भवानी भाई जब बम्बई आकाशवाणी में थे तभी उन्होंने मुझे ढूँढ लिया था। तब भवानी भाई ने मुझे खुले पोस्ट-कार्ड पर लिख कर कहा कि ‘बैरागी! तुम जैसा लिखते हो, लिखते रहो। नदी, निकलने से पहले ये तय नहीं करती कि वो कितना लम्बा, कितना चौड़ा और कितना गहरा बहेगी। उसका काम है बहते रहना, समुद्र तक चले जाना और समुद्र में विलीन हो जाना। रहा सवाल आलोचकों का? तो, आलोचकों की परवाह मत करो। क्योंकि संसार में आलोचकों के स्मारक नहीं बनते हैं।’ तो, उसके बाद, आज तक, किसी की परवाह नहीं की। सम्मान सबका किया। सम्मान किया कि बैठो, बोलो।
प्रश्न - आपने गद्य भी खूब लिखा है और बहुत परिमार्जित गद्य है क्योंकि मुझे भी सौभाग्य मिला थोड़ा आपको पढ़ने का। मैं जानना चाहूँगा कि आपको गद्य लिखने की प्रेरणा किनसे मिली?
उत्तर - मुझे गद्य लेखक बनाने का श्री गणेश यदि किसी ने किया है तो दो लोग हैं। राहुल बारपुते, नईदुनिया के सम्पादक थे और फिर राजेन्द्र माथुर। कई बार मुझसे लोगों ने कहा कि इनके होते हुए (इनके सम्पादन में) आप क्यों लिख रहे हो? मैंने कहा - इनको अधिकार है कि अगर मैंने गलत या अनुचित लिखा हो तो ये उस अंश को काट दें। ये वो डॉक्टर हैं जो बीमार का सुख चाहते हैं। विवाद नहीं चाहते हैं। तो उस डॉक्टर के सामने जाने में मुझे काई आपत्ति नहीं। उन्होंने तो शुरु करवाया, लेकिन डॉ. धर्मवीर भारती और कन्हैयालालजी मिश्र प्रभाकर, उनका तो मैं एकलव्य हूँ। और फिर तीसरे महावीर अधिकारी। इन्होंने मेरे गद्य को परिष्कृत किया और ढूँढ़ कर पढ़ना और फिर पत्र लिखना, समझाना कि ऐसा नहीं, ऐसा होना था। ये काम इन लोगों ने किया। इन पाँच लोगों ने मुझे गद्यकार बनाया।
देवभोग और जूठन
और एक बात कह देता हूँ मैं आपसे साफ। यदि आप देवताओं के नैवेद्य में से कुछ खाओगे तो आपने देवभोग में से खाया है। लेकिन अगर किसी भिखमंगे की थाली में से उठाकर खाया है तो कहंेगे, भुक्खड़ है, किसी के भी यहाँ से लेकर के खा लिया। इसलिए वो प्रसाद नहीं माना जाता। ये सब वो लोग हैं जिन्होंने पीढ़ियों को प्रसाद दिया। मैं (धर्मवीर) भारतीजी के मुँह लगा हुआ था। एक दिन मैंने उनसे कहा कि आपने मेरी ये किताब ‘कच्छ का पदयात्री’ चार किश्तों में ‘धर्मयुग’ में छाप दी। लेकिन मेरी कविताएँ क्यों नहीं छापते? तो ये सुनते ही उन्होंने कहा कि ‘सुनो बैरागी! हम तुम्हारी कविता कभी नहीं छापेंगे।’ मैंने कहा कि कमाल कर रहे हो आप! क्यों नहीं छापेंगे?’ बोले, ‘हम तुम्हारे पाठक कम करना नहीं चाहते हैं, इसलिए नहीं छापेंगे। धर्मयुग में छपी हुई कविता कौन पढ़ता है? कोई नहीं पढ़ता।’ ये धर्मयुग के सम्पादक का कथन है। बहुत बड़ी बात है। बोले कि हम तुम्हारी कविताएँ छापेंगे तो लोग तुम्हें पढ़ना बन्द कर देंगे। आज तुम्हारा गद्य छापते हैं, कुछ भी छापते हैं तो लोग पढ़ते हैं और प्रतिक्रिया करते हैं। हमको भी लिखते हैं और तुमको भी लिखते हैं। अद्भुत है। मैं तो आज भी भारती जी को, उनकी आत्मा को प्रणाम करता हूँ। प्रभु! उनकी आत्मा का आशीर्वाद बरसता रहे हम पर। भवानी भाई का यह कहना है कि ‘नदी पहले तय नहीं करती रे.....! उसका काम है बहने का। बहने दो उसे।’ है न कितनी बड़ी बात कि आलोचकों की परवाह मत करो, सम्मान करो? उनके स्मारक नहीं बनते कहीं पर भी। आप मुझे बताओ, पूरे किसी देश में आलोचक का स्मारक आपने पढ़ा हो, पत्रकारिता में? मुझे नाम बताओ!
प्रश्न - आप कभी डॉ. रामविलास शर्मा से मिले? वे आपके समय के बड़े आलोचक थे।
उत्तर - मैं उनसे, उनके घर जाकर मिला था। क्या कहूँ उनके सम्बन्ध में...? वे बड़े आदमी थे। वे आलोचकों की मर्यादा समझते थे। आज के लोग आलोचकों की मर्यादा को कहाँ समझ रहे हैं? उसकी मर्यादाएँ क्या हैं, उसके तथ्य बिन्दु क्या हैं? एक किनारे वाली नदी सारे संसार में कहीं हो तो बता दो मुझे जिसका एक ही किनारा हो? आलोचना भी नदी है जिसके दोनों किनारे होने चाहिए और अगर आपके आलोचक के पास एक ही किनारा है तो वो आलोचना नहीं है। वो निन्दा है।
प्रश्न - एक सवाल यह है कि ‘वीणा’ का मालवी अंक आपके निदेशन में उस समय छपा। उसकी परिकल्पा कैसे की थी?
उत्तर - नहीं। मेरे निदेशन पर नहीं। उस वक्त के जो लोग वहाँ पर बैठे हुए थे, डॉक्टर श्यामसुन्दर व्यास जैसा आदमी बैठा हुआ था तो हम उनसे कहने का अधिकार भी रखते थे। टेलीफोन करते तो वह व्यक्ति सुनता था। जो वहाँ आज बैठते हैं उस समिति में, (उनमें से) कई के नाम भी मैं नहीं जानता लेकिन फिर भी ‘वीणा’ आती है उसमें कोई अच्छी बात दिखाई तो मैं टेलीफोन करता हूँ उनको। आज भी करता हूँ। वो सुझाव माँगते हैं तो कहता हूँ - ‘यार! सुझाव? इतने वर्षों से चल रही है यह पत्रिका! इसमें क्या सुझाव देंगे? जैसी चल रही है, अच्छी चल रही है। बस, इतना ही है कि प्रूफ की गलतियाँ नहीं रहें, इसका ध्यान रखो।’ प्रूफ की गलतियों पर कन्हैयालालजी मिश्र ‘प्रभाकर’ ने मुझसे एक बहुत अच्छी बात कही। बोले - ‘बैरागी! आजकल देखता हूँ (वे अच्छे सम्पादक थे) कि वर्तनी की गलतियाँ बहुत हैं।’ तो मैंने कहा - ‘कैसा लगता है दादा आपको? आप कैसे पढ़ लेते हो?’ तो वो हँसकर बोले, ‘प्रूफ की गलतियों को और वर्तनी की गलतियों को हमने हिन्दी का नया अलंकार मान लिया है।’
प्रश्न - आपके साहित्य पर कुछ शोध कार्य भी हुआ है?
उत्तर - पाँच पी. एचडी. मुझ पर हुई हैं। 3 तो ये आपके सामने रखी हुई हैं और दो की प्रतियाँ मुझे नहीं मिली हैं। मुझे मकान बहुत बदलने पड़े हैं न! किताबें भी मेरी 40 निकलीं हैं लेकिन ये 15-16 ही बची हैं। जो पी. एचडी. करने के लिए ले जाता है, वापस लाता ही नहीं। मैं माँगता हूँ तो कहता है ‘हाँ, अभी लाता हूँ।’ मैं कुछ नहीं कहता। हँस कर रह जाता हूँ। मैं जानता हूँ कि कन्या और किताब घर से जाने के बाद नहीं आती है। आती है तो बताओ?
(राकेश शर्मा - आनी भी नहीं चाहिए।)
अरे साहब! हिन्दी (के पाठकों से) में किताब वापस आ जाए? किताब तीन तरह से ली जाती है, खरीदकर, माँगकर, और चुराकर। देखते होंगे लोग चुराते भी हैं किताब। चुरा के भी चले जाते हैं। (ज्यादातर चुराते ही हैं। रचनाएँ चुरा लेते हैं, किताब तो लेते ही हैं।)
प्रश्न - सर! एक सवाल आपके उस राजनेता के स्वरूप पर करना चाहेंगे। आपने उस समय का पूरा आन्दोलन देखा, स्वतन्त्रता देखी और उसके बाद देश के विकास के लिए समर्पित राजनेता देखे। एक ही उद्देश्य था-भारत और उसकी समृद्धि का। सब मिलकर के वही काम कर रहे थे। आज भी आप देख ही रहे हैं। कितना फर्क हो गया है राजनीतिक सोच में?
उत्तर - होगा। जैसे-जैसे नई पीढ़ियाँ आएँगीं, वो अपनी आकांक्षा अपनी और महत्वाकांक्षाओं और अपनी हीन महत्वाकांक्षाओं के साथ आएँगी। तो, आकांक्षा राजनीति को स्वीकार है। महत्वाकांक्षा का राजनीति में स्वागत है। लेकिन हीन महत्वकांक्षा का न जनता में स्वागत है, न राजनीति में स्वागत है। लेकिन आपके पास में कौन-सी पार्टी कब बने और कब टूट जाए। आपको कोई नुकसान नहीं। कुछ नहीं कह सकते और संविधान आने के बाद में इन बातों पर लोग विवाद तो करते हैं पर उसको अन्ततः स्वीकार नहीं करते। संसद में ऐसे दिन हमने कभी नहीं देखे जैसे आज देख रहा हूँ। विधान सभा में भी ऐसे दिन कभी नहीं देखे जैसे आज-कल देख रहे हैं। लेकिन, कुल मिलाकर मैं अभी इस देश में और इस देश के सन्दर्भ में लोकतन्त्र को अत्यन्त आवश्यक समझता हूँ। अभिव्यक्ति की आजादी को अत्यन्त जरूरी समझता हूँ। लोगों का बोलना बन्द कर देंगे तो काम नहीं चलेगा आपका। उन्हें बोलने दीजिए और उनसे कहिएगा कि जरूर बोलिएगा। पर वन-वे भी संवाद मत कहिएगा कि मैं तो बोलूँ मगर आप मत बोलना। ये नहीं चलेगा कभी भी।
अब, जाकर, इसका (साक्षात्कार का) सम्पादन करने के बाद आप खुद इसको देखना कि इसमें रोचकता है कि नहीं। वरना ये सारा का सारा मामला नीरस हो जाता। अगर आप दस बार हँसते नहीं, मुस्कुराते नहीं तो नीरस हो जाता सारा का सारा।
तो, देश के लिए बहुत आवश्यक है। और, अभी भी हमको याद रखना चाहिए कि 5 लाख 80 हजार गाँवों का देश है। (यह देश) शहरों का नहीं है। शहरों में तो लोग आजकल आ जाते हैं और जैसे-तैसे रहते हैं। पड़ौसी, पड़ौसियों को नहीं पहचानता। यहाँ, (अपने गाँव में) अगर मैं बिस्तर पर हूँ तो दस टेलिफोन आ जाते हैं कि बिस्तर पर क्यों हैं आप? वहाँ कोई नहीं पूछता। मेरे पास, कभी-कभी अपने रामदरसजी मिश्र, वो दिल्लीवाले पुराने हैं। (दिल्ली में) मुझसे चार-पाँच साल पुराने वो टेलीफोन करके पूछा करते हैं मुझसे ‘बैरागी! तुम्हारी तबीयत कैसी है?’ हमको लगता है जैसे पिता अपने पुत्र से पूछ रहा है। ‘पहले से अच्छा ही हूँ। ठीक हूँ।’
प्रश्न - सर! संसद का कोई संस्मरण सुनाइये।
उत्तर - देखो भाई! ये संस्मरण ऐसा है कि इसमें इधर-उधर कोई इशारे बाजी नहीं चलेगी। मैंने संस्मरण लिखा जरूर है लेकिन कहाँ छपा, मुझे नहीं पता।
एक मैं था और एक जिसने सरगोधा की जमीन पर पाकिस्तान के टैंक उड़ा दिये थे। वो था, कर्नल अय्यूब। झुँझनूँ से था वो, एम. पी. और बलराम जाखड़ हमारे अध्यक्ष थे। उनकी दूसरी टर्म थी। पहली टर्म कर चुके थे वो। तो, भगतसिंह, राजगुरु और अपना तीसरा नाम, सुखदेव, वहाँ (जहाँ इन तीनों शहीदों का अन्तिम संस्कार किया गया था) उस गाँव की यात्रा और उनको दर्शन कराने के लिए त्रिमूर्तियों ने, तीनों ने मुझसे कहा कि साहब चल सकते हो क्या? मैंने कहा कि चलो, चलते हैं। तो, मैं और अय्यूब हम दोनों गए साथ में। वहाँ जाकर के दर्शन किए तीनों के और दर्शन करने के बाद मैंने जाखड़ साहब ने कहा कि मैं यहाँ थोड़ा-सा आराम कर लूँ। कुर्सी पर तो उनका पी.ए. और वो बैठे रह गए।
हमने कहा, ‘साहब ये सामने (भारत-पाकिस्तान सीमा की) बाड़ लगी है। हम वहाँ तक हो आएँ? पाकिस्तान के वो खड़े हुए हैं रेंजर सिपाही वहाँ पर उनसे मिल आएँ?’ बोले जाओ। तो हम गए वहाँ पर। वहाँ के गार्ड (सिक्यूरिटी वाले जिसकी ड्यूटी थी) ने कहा, ‘आप तो बैरागी हैं आपको तो मैं जानता हूँ।’ मैंने कहा - ‘आपको मेरा नाम कैसे पता?’ बोले, ‘कल ही आपकी कविता अमृतसर से प्रसारित हुई थी टेलिविजन पर और मैंने पूरी कविता सुनी।’ मैंने कहा - ‘धन्यवाद आपका।’ बोले, ‘साहब, ये कौन हैं?’ मैंने कहा, ‘ये भी पार्लियामेंट के मेम्बर हैं। हमारी लोकसभा के।’ ‘तो आइए, साहब! चाय पी लीजिए।’ हमसे गार्ड ने कहा। उन्होंने दरवाजा खोला। हम भीतर गए तो वो ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ देने की तैयारी करने लगे। मैंने कहा, ‘मैं गार्ड ऑफ ऑनर मैं नहीं लूँगा। ये लेंगे। इनको दो।’ उन्होंने गार्ड ऑफ ऑनर उसको (अय्यूब को) दे दिया। मैं अय्यूब के पास में खड़ा रहा अलग से। गार्ड ऑफ ऑनर पूरा हुआ तो उन्होंने मुझसे पूछा, ‘साहब! आपने खुद नहीं लेकर गार्ड ऑफ ऑनर इनको क्यों दिलवाया?’ मैंने कहा, ‘ये वो व्यक्ति है जिसने आपके टैंक सरगोधा में तोड़े हैं। खुद ने। इसलिए, काम तो इसने किया और गार्ड ऑफ आनर मैं कैसे ले लूँगा यार?’ तो वो बोले, ‘अरे सर!......।’ मैंने कहा, ‘इसमें अरे सर! की क्या बात है? दाना-पानी उसी को दो जिसने कुछ काम किया हो। आपसे कोई पूछे तो (जो मैंने कहा, वह) कह देना।’ बोले, ‘पूछे तो क्या साहब! अब तक तो मेरे लिए (सेना में) सवाल तैयार हो चुका होगा।’ फिर बोले, ‘आइए साहब! आप थोड़ा-सा, एक-आध खेत देख लीजिए। अच्छी, हरी-भरी फसलें खड़ी हैं। फसलों को ही देख लीजिए।’ फसलों को देखने गए उन गार्डाे के साथ हम लोग। (हम लोगों का लोक सभा सदस्य होना) उन लोगों के लिए कुछ विशेष पद था। हम वहाँ गए तो एक-दो कि. मी. भीतर चले गए। वापस आए तो उन्होंने चाय पिलाई।
लौट कर हम जाखड़ के सामने बैठ गए। वापस दिल्ली लौट आए हम लोग।
तीसरे दिन राजीव गाँधी ने बुलाया मुझे। मुझे एकदम याद आया। चपरासी से मैंने पूछा, ‘मुझे अभी क्षेत्र का कोई काम नहीं है, घर का कोई काम नहीं है। मुझे क्यों बुला रहे हैं?’ वो बोला, ‘साहब! अब ये तो वो ही जानें कि क्यों बुला रहे हैं।’
मेरी एक आदत है आज भी कि जब तक नेता मुझे बैठने के लिए नहीं बोले, मैं नहीं बैठता हूँ। खड़ा ही रहता हूँ। जब वो बोले कि बैठ जाइए, तब बैठता हूँ। तो, मैं जाकर राजीवजी के सामने खड़ा हो गया। वे बैठे हुए थे। वे भी खड़े हो गए। हम दोनों खड़े-खड़े बात कर रहे थे। उनके दफ्तर का दरवाजा ऐसा है कि अन्दर के लोग, बाहर, लाइन में लगे खड़े लोग देखते रहते हैं कि अन्दरवाले बातें कर रहे हैं। मुझे देखकर राजीवजी ने कहा, ‘बैरागीजी मुझे आपसे एक विशेष निवेदन करना है। आप हमारे बहुत सीनियर मित्र हैं और बहुत सीनियर कार्यकर्ता हो आप तो।’ मैंने कहा - ‘फरमाइए राजीव जी।’ बोले, ‘परसों आपको पाकिस्तान की सीमा में इतना नहीं घूमना था। जाना ही नहीं था भीतर। मान लीजिए वो आपको वापस नहीं आने देते तब फिर देश की क्या स्थिति होती? आपके कारण देश पर एक युद्ध लग जाता। दोनों पार्लियामेण्ट मेम्बर थे और अभी भी हो।’ राजीवजी की बात सुनकर मुझे अपनी नादानी अनुभव हुई। माफी माँग कर बाहर आया। बाहर आते ही मैंने अय्यूब से कहा (मेरी ही तरह, अय्यूब को भी बुलाया था) कि ‘अय्यूब! मैं तो माफी माँग कर आया हूँ। आप भी जाकर माफी माँगिए जाकर कि गलती हो गई हमसे।’ उनने जाकर माफी माँगी। फिर जाखड़ साहब ने कहा, कि ‘मेरा तो तभी मन था कि तुम्हें वहीं कह दूँ। लेकिन मैंने इसलिए नहीं कहा कि प्रधान मन्त्री ही तुम्हें समझाएँ।’ ये हमारे लोक सभा के संस्मरण हैं।
प्रश्न - इन्दिरा गाँधी और लोहिया से जुड़ा कोई संस्मरण?
उत्तर - मैं उनके सामने लोक सभा में नहीं रहा। लोहिया की तो मैंने सिर्फ एक सभा मन्दसौर में सुनी थी जिसमें उन्होंने, एक ही वाक्य में अंग्रेजी की ऐसी-तैसी कर दी थी। मन्दसौर की सभा थी। करीब उसमें 20 हजार लोग थे सुनने वाले। मैं तो काँग्रेस का था। लेकिन, ‘राम मनोहर लोहिया हैं’, इसलिए मैं सुनने गया। उन्होंने बहुत अच्छी बातें कहीं। उसमें एक बात ये कही कि अंग्रेजी में हस्ताक्षर वो करे जिसकी या तो माँ अंग्रेज है या बाप अंग्रेज है। अब यहाँ ऐसे लोग कितने हैं? अरे! बड़ी चोट करनेवाली बात थी। उन्होंने कहा कि भई! न आपकी माँ अंग्रेज, न आपके पिता अंग्रेज। आप भारत में पैदा हुए हो और अंग्रेजी-अंग्रेजी करते फिर रहे हो?
प्रश्न - लम्बित कार्य। आपको लग रहा है कि हमें ये पूरा करना चाहिए?
उत्तर - नहीं मेरे पास दो, तीन काम हैं। इन दिनों हो क्या रहा है कि दो कामों के लिए मुझसे ज्यादा पूछ-ताछ होती है। कमलेश्वरजी का वाक्य में ‘कोट’ कर रहा हूँ। कमलेश्वर की भी ये स्थिति हो गई थी। बीमार भी हो गए थे। तो, उनसे किसी ने पूछा कि आजकल क्या कर रहे हो? तो, बोले कि ‘आजकल भूमिकाएँ लिख रहा हूँ और विमोचन कर रहा हूँ।’ आप बताइए! मुझे कभी विमोचन समारोह में देखा आपने? नहीं। मेरे पास पाण्डुलिपियाँ बहुत आती हैं। इन पर मुझे लिखना होता है और मैं लिखता हूँ। यह पाण्डुलिपि जयपुर वालों की पड़ी है। इस पर भी लिखना है मुझे। और कुछ एक-दो लेख लिखने हैं। अब जैसे, दीपावली विशेषांकों के लिए के लिए अभी से पत्र आने लग गए हैं। तो, कुछ लेख लिखने हैं, कुछ कविताएँ लिखनी हैं। जो सूझे, वो लिखो और उससे जो कुछ मिल जाए उसे सरस्वती का दिया हुआ मानो। सरस्वती देती हैं। लेकिन फिर ये एक वाक्य आप कहीं न कहीं कोट करो, ‘हमारे पास देवी-देवता तो सैंकड़ों हैं, हजारों हैं, करोड़ो हैं। लेकिन एक देवी ऐसी है हमारे पास जो कभी क्षमा नहीं करती। वो है सरस्वती। सरस्वती ने आज तक किसी को भी माफ नहीं किया। उसको लगा कि इसने थोड़ी इधर-उधर कर दी है तो उसने उसकी भी ऐसी की तैसी कर दी है। वो जो कुछ कर सकती थी, किया उसने। बड़े-बड़े कवियों को पागल होते हुए आपने देखा होगा। वो किसी को क्षमा नहीं करती। वो या तो मण्डित करती है या पण्डित करती है या दण्डित करती है। बाकी, चौथी कोई प्रक्रिया उसके पास नहीं है। लोग आपको जबरदस्ती ही कहते हैं, ‘आओ पण्डितजी!’ क्या लिखा है (हमने)? क्या किया है (हमने)? मुझे कहते हैं, ‘आइए पण्डितजी! बैठिए।’ अब मैं काहे का पण्डित हूँ? लेकिन सरस्वती पण्डित बना देती है। दूसरा, बाहर जाते हुए लोगों से पूछो तो कहेंगे कि पण्डित आदमी है। पढ़ा-लिखा है। या फिर वो मण्डित करती है- ‘अरे! सरस्वती-पुत्र है! क्या बात है!’ या फिर दण्डित करती है कि ‘अरे जा भाड़ में। क्यों सरस्वती को बदनाम कर रहा है।’
मैं सरस्वती-पुत्र निराला के दरवाजे से लौट आया। इन्दौर के एक बहुत बढ़िया कवि हुए हैं। रमेश मेहबूब जिसका नाम है। वे साथ में थे। उन्होंने कहा, ‘ये (निरालाजी) पागल हो रहे हैं यार! मारेंगे। मैं तेरे साथ, भीतर नहीं आऊँगा।’ और यूँ सीढ़ियों पर खड़े हुए वापस लौट आया। लेकिन मुझे तसल्ली तब हुई कि जब भवानी भाई ने कहा, ‘मैंने भी निराला को नहीं देखा यार!’
प्रश्न - एक सवाल अन्त में यह है - आप श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति के उपाध्यक्ष हैं। इस संस्था ने सौवर्ष से ऊपर की अपनी आयु कर ली है और काम कर रही है। इसे अब और क्या करना चाहिए?
उत्तर - एक तो आपने ये अच्छा अभियान चलाया है। ‘हमारे रचनाकार’ की रेकार्डिंग का। अपने साहित्यकारों को रेकॉर्ड करना। लेकिन इसमें छँटनी अच्छी कीजिएगा आप। जिसके भी सामने केमरा लगा हो उसकी छँटनी जरा ठीक करो। इसका ध्यान रखो आप और मना तो आप किसी को कर नहीं सकते! जो भी कलम वाला हैं वो आपके ऊपर तरह-तरह के प्रयोग करवाएगा। तो, उसकी छँटनी करो। दूसरा, आपके में मन में जो था, आपने प्रकट किया कि प्रकाशन भी करेंगे इसका आप। तो, प्रकाशन करते समय इस बात का ध्यान रखो कि बातें जैसी हुई वैसी छपे। उसमें अपने आप को प्रकट करने की कोशिश नहीं करें।
तीसरा, उसमें जो को रोचक अंश हो, तो उनको थोड़ा विशेष अच्छी तरह से छापो कि पहली नजर उस पर पड़े और उसमें अगर कोई चित्र दो तो प्रामाणिक चित्र दो। (चित्र देना) बहुत जरूरी होता है। कई बार चित्र देने होते हैं। उनकी प्रामाणिकता होनी चाहिए। और चौथी बात है कि आप इस प्रकाशन को किसी ऐसी संस्था के माध्यम से बाजार में दें कि जिससे आपको कुछ मिल सके। क्योंकि हिन्दी के पाठक मुफ्त में किताब चाहते हैं। वो कभी ये नहीं चाहते कि हमने ये किताब खरीदी। ये, जैसे दीपावली आ रही है, महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल इन तीन (प्रदेशों) में दीवाली के बजट के साथ ही बजट होता है कि इतने रुपयों की किताबें खरीदेंगे। हमारे यहाँ तो कोई नहीं है। हम तो खरीदते ही नहीं है और उल्टा लड़ते हैं सम्पादक से, आपने हमको अंक नहीं भेजा। मैं समझता हूँ कि (आपने) काफी अच्छा काम किया भले ही देर से शुरु हुआ। साधन बाद में मिले होंगे या फर्ज बाद में जुटे होंगे। लेकिन अच्छा हुआ।
प्रश्न - एक और संकल्प हम लोग लेकर चल रहे हैं। ‘मध्य प्रदेश साहित्य कोश’ बनाया है। इसमें आपका (साहित्यकारों का) समग्र लेखन हमारे पास रहेगा और ऐसे ही और जो स्थापित रचनाकार और लेखक हैं उनका पूरा साहित्य लेकर हम एक जगह समिति के पुस्तकालय में उसे संग्रहित करेंगे।
उत्तर - इसमें बहुत आप फँस जाएँगे। बहुत ही मुश्किल हो जाएगा। जैसे, अभी प्रेमचन्द का सन् 1915 में उन्होंने प्रकाशित किया था एक उपन्यास ‘वीर दुर्गादास’। अब, प्रेमचन्द और दुर्गादास का क्या सम्बन्ध था? आज कहीं नहीं मिल रहा है वो। उस पर प्रेमचन्द पीठ कोई कार्यक्रम करना चाहती है और किताब नहीं है। तो जब आप समग्र ढूँढते फिरेंगे तो कमियाँ बहुत रह जाएँगी।
अब मेरी 40 किताबों में से मेरे पास 16 किताबें हैं। अच्छा, मैं कहूँ आपसे कि मैंने इतनी किताबें दे दीं लायब्रेरियों में। तीन जगह (लायब्रेरियों) में दे दीं। तीन-चार जगह दे दीं। (मेरे) परिवार में किसी ने मुझ पर अंगुली नहीं उठाई कि ये किताबें क्यों दे रहे हो आप? उनको कोई मतलब नहीं इनसे। दूसरा प्रश्न ये है कि परिवारों में समस्या ये होती है कि सरस्वती आपको कितना दे रही है? सबकी नजर, धीरे से उस पर जाती है।
‘कलम’ एक कठिन काम है। जैसे मेरा एक गीत देखिए। आज से 50 साल पुराना। मेरे एक पाठक/श्रोता ने माँगा। छत्तीसगढ़ के, रायगढ़ जिले के गोण्डातरई के एक रिटायर्ड शिक्षक ने। लिखा, ‘आपने फलानी जगह एक गीत गाया था। वो मुझे भेज दो।’ गीत है - ‘जब तक मेरे हाथों में हैं नीलकण्ठिनी लेखनी/दर्द तुम्हारा पीने से इंकार करू तो कहना’। उसने मई में यह पत्र लिखा। मेरे पास तो है नहीं यह गीत! तो, यह गीत तलाशने में मुझे कितना संघर्ष करना पड़ा ये भी बता देता हूँ। कहीं नहीं मिला। मुझे उस किताब का नाम ही नहीं मालूम जिसमें ये छपा है कि मैं कह दूँ कि भैया यह किताब देख लो। लेकिन चमत्कारिक संयोग देखिए कि यह कल ही मिल गया। मिला भी कहाँ? ठेठ मेरठ में जहाँ मैं अपने एक प्रशंसक के यहाँ रुका हुआ था। उसकी, 1971 की डायरी में उसने लिख रखा था। तो, समग्र का काम कभी पूरा नहीं होगा। जब भी करोगे, जितना भी करोगे अधूरा ही रहेगा।
प्रश्न - सर! बहुत-बहुत धन्यवाद। हमने आपका बहुत समय लिया। इतनी देर तक (लगभग पौने दो घण्टे) लगातार बोलने में आपको अत्यधिक कष्ट भी हुआ होगा। उस सबके लिए हमें क्षमा कर दीजिएगा। हम आए तो थे बिलकुल खाली, बिलकुल रीते किन्तु लौट रहे हैं लबालब भरे हुए, भरपूर समृद्ध होकर। हम आपके आभारी और कृतज्ञ हैं। ईश्वर आपको सदैव पूर्ण स्वस्थ और सक्रिय बनाए रखे। आपकी छाया और आपकी कलम का ‘सारस्वत-आशीष’ हम सबको मिलता रहे। प्रणाम सर!
उत्तर - आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। आपसे बातें करके मुझे ताजगी मिली। समृद्ध अतीत को याद करना सदैव सुखकारी और प्रेरक होता है। आपकी वजह से मुझे यह सब एक बार फिर मिला। धन्यवाद। फिर आइएगा। जल्दी आइएगा।
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साक्षात्कार शुरु करने से पहले, ‘समिति’ की और से, शाल ओढ़ाकर सम्मान करते हुए ‘समिति’ के प्रचार मन्त्री श्री अरविन्द ओझा और गुलाब-माला पहना कर स्वागत करते हुए श्री राकेश शर्मा।
और दादा श्री बालकवि बैरागी। यह चित्र मैंने लिया थाा
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