‘काँग्रेसी कवि‘ और ‘काँग्रेस का कवि’ का फर्क

महाराष्ट्र के दलित साहित्यकारों, बुद्ध/बौद्ध दर्शन के अकादमिक अध्येताओं,  डॉ. भीमराव आम्बेडकर पर प्राधिकार की हैसियत प्राप्त व्यक्तित्वों में प्रोफेसर रतनलाल सोनग्रा एक जाना-माना नाम है। मई 2018 में, दादा श्री बालकवि बैरागी के निधनोपरान्त मुझे प्राप्त सन्देश उलटते-पुलटते मुझे सोनग्राजी का यह पत्र मिला। 

अपनी राजनीतिक और साहित्यिक निष्ठाओं के निर्वहन को लेकर दादा कहा करते थे - “मैं ‘काँग्रेसी कवि’ हूँ, ‘काँग्रेस का कवि’ नहीं।” सोनग्राजी के इस पत्र में उद्धृत दादा की कविता, दादा के इस वक्तव्य को सुस्पष्टता से व्याख्यायित करती है।

इसीलिए यह पत्र दे रहा हूँ।

बचपन में ‘चंदामामा’ मासिक पत्रिका पढ़ने का बहुत शौक था। उस समय ‘चंदामामा’ का इन्तजार करना किशोरों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। हर पहली तारीख के बाद किताबों की दुकान पर जाकर हम ‘चंदामामा’ की पूछताछ करते थे। जब भी मासिक पत्रिका हमारे हाथ में आती उसका प्रारम्भ हमेशा एक चित्रमय कविता से होता था। मुझे याद है, आज से 65 साल पहले मैने पहली बार बालकवि बैरागी की कविता ‘चंदामामा’ में पढ़ी थी। एद्रोंक्लीज नाम के एक लड़के की कहानी उस कविता में कही थी जो जंगल में जाकर रहता है, और वहाँ एक शेर के पैर में चुभा काटा निकालता है। बड़ी सुन्दर कविता थी वो। आज भी उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं। तबसे बालकवि बैरागी मेरे जीवन में जुड़ गये थे।

कुछ साल बाद शिक्षा पूरी कर मैं अहमदनगर के पाथर्डी जिले में एक कॉलेज में लेक्चरार नियुक्त हुआ। तब मैंने एक पत्र लिखकर बालकविजी को हिन्दी विभाग के कार्यक्रम के लिए निमन्त्रित किया था। उनका पत्र आया कि कभी अहमदाबाद आयेंगे तब सूचित करेंगे। अहमदनगर को उन्होंने शायद अहमदाबाद समझ लिया था। मैंने पत्र लिखकर उन्हें महाराष्ट्र के अहमदनगर की बात स्पष्ट की। 

वे एक बार मुम्बई में कवि सम्मेलन में आमन्त्रित थे। उन्हे मिलने मैं बिड़ला मातोश्री सभागार गया। तब मैं भिवण्डी कॉलेज में प्रोफेसर था। बालकविजी ने मुझे और मेरी बिटियों को अपने रिश्तेदार के ‘मानस महल’ में निमन्त्रित किया। मुम्बई में उनका सौहार्दपूर्ण व्यवहार हमारे लिए बहुत ही अहोभावपूर्ण रहा।

यह 1975 के विधान सभा चुनावों की बात है।  काँग्रेस बुरी तरह हार चुकी थी। तब काँग्रेस की और से मुझे प्रचार में भेजा गया। मैने वहाँ बहुत सी जन-सभाएँ की जिनमें भाजपा के मुख्यमन्त्री वीरेन्द्र कुमार सकलेचा के गाँव जावद में भी सभा हुई। बालकविजी के मनासा गाँव में भी मैं गया। तब से मध्यप्रदेश से मेरे मधुर सम्बन्ध हो गए। 

1979 में बालकविजी को मैने अपने कॉलेज में हिन्दी दिवस पर आमन्त्रित किया। बालकवि जी मुम्बई के डॉ. आंबेडकर महाविद्यालय में कार्यक्रम करने आये थे। उन्होंने बड़ी ओजस्वितापूर्ण अपनी रचनाएँ सुनाई। उनकी आवाज सुनकर मुझे महाराष्ट्र के महान जनगायक अमर शेख की याद आ गई। बालकविजी की कविताएँ बहुत ही प्रभावशाली और क्रान्तिकारी थी।  

गाँधी जयन्‍ती पर लिखी अपनी कविता में वे कहते हैं -

बापू तेरे जनम दिवस पर,कवि का मन भर-भर आता।
इस बेला में तू होता तो, तड़प-तड़प कर मर जाता।। 

घाटे की दूकानें बापू, हमने बीसों खोलीं।
तेरे फूल-कफन तक हमने, लगा दिये हैं बोली।।
या तो नोचेंगे नेहरु को, या आराम करेंगे। 
दाँव लगा तो राजघाट तक को नीलाम करेंगे।।

तुझसे अब क्या छुपा है बापू, खुला पड़ा सब खाता। 
इस बेला में तू होता तो, तड़प-तड़प कर मर जाता।।

यह कविता आज तो बहुत अधिक सार्थक हो रही है।

बालकविजी राजनीति की उत्तम सूझबूझ रखते थे। सोनिया और राजीव गाँधी के विवाह पर जो टिप्पणियाँ हुईं उनके जवाब में बालकविजी ने बहुत सुन्दर उत्तर दिया था - ‘बहू हमेशा, दूर की लायी जाती है।’ बालकविजी अपने विचारों से, लेखों से बहुत ही विचारोत्तेजक कार्य करते थे।

एक बार वे भारत सरकार की ओर से साम्यवादी गणराज्य जर्मनी में गये थे। वहाँ के जर्मन गणतन्त्र की खुशहाली पर एक पुस्तक लिखी जो उन्होंने अपने छोटे भाई को भेंट की थी। जिसका नाम था ‘बर्लिन से बब्बू को’। उन्होंने यह किताब बडे़ प्रेम से मुझे भी पढ़ने के लिए भेजी थी।

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प्रो. रतनलाल सोनग्रा, 201 साराह एनक्लेव, विमान नगर, पुणे - 411014, 
मोबाईल 98223 28822

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