अब लज्जित नहीं लौटूँगा

यह तो मैं भली प्रकार जानता हूँ कि हम सब दोहरा जीवन जीते हैं - घर में कुछ और, बाहर कुछ और। किन्तु इसमें पूरब-पश्चिम का या कि एक सौ अस्सी अंश का अन्तर हो सकता है, इसी उलझन में डाल दिया मुझे उत्सवजी ने।

सत्तर पार कर रहे उत्सवजी बीते कुछ वर्षों से अस्वस्थ चल रहे हैं। अपने स्वास्थ्य के प्रति वे अत्यधिक चिन्तित और सतर्क रहते हैं। चिकित्सक के परामर्श को ईश्वर के आदेश की तरह मानते और पालते हैं। औषधि सेवन तथा आहर-दिनचर्या की उनकी समयबद्धता और नियमितता अविश्वसनीय होने की सीमा तक विस्मयजनक है। आहार-निषेधों के पालन में चरम-अनुशासित हैं। प्रातःकालीन चाय से लेकर शयनपूर्व त्रिफला सेवन तक, सब कुछ सुनिश्चित समय पर। तय करना कठिन कि वे घड़ी के अनुसार चल रहे हैं या घड़ी उनका अनुसरण कर रही है? उत्सवजी की दिनचर्या से आप अपनी बन्द घड़ी चालू करने के लिए समय मिला सकते हैं।

उत्सवजी की दिनचर्या की नियमितता और औषधि सेवन तथा आहार निषेधों के मामले में उनके दोनों बेटे-बहुएँ चौबीसों घण्टे ‘सावधान मुद्रा’ में कुछ इस तरह रहते हैं मानो वे उत्सवजी की दिनचर्या का अक्षरशः पालन कराने के लिए ही जी रहे हैं। उत्सवजी को बिना रसे की सब्जी नहीं चलती, प्रातःकालीन नाश्ते के उनके व्यंजन सुनिश्चित और सुनिर्धारित हैं। मीठा उनके आसपास दिखाई भी नहीं देना चाहिए और उनकी रोटी पर घी का छींटा भी नहीं पड़ना चाहिए। किसी से मेल-मिलाप, अपना व्यवहार निभाने के लिए बेटों-बहुओं को बाहर जाना हो तो उत्सवजी की दिनचर्या की और आहार व्यवस्थाएँ सुनिश्चित करना पहली और एकमात्र अनिवार्य शर्त होती है।

उत्सवजी से मिलने के लिए जब-जब भी जाता हूँ, तब-तब, हर बार स्वयम् पर लज्जित होकर ही लौटता हूँ। मैं बहुत ही आलसी, अनियमित और अनिश्चित आदमी हूँ। इतना कि साफ-सफाई से नमस्कार कर लूँ तो औघड़ का दर्जा प्राप्त कर लूँ। महीने में दो-तीन दिन (किन्तु लगातार दो-तीन दिन नहीं) तो बिना स्नान किए रह लेता हूँ। यदि किसी पूरे सप्ताह नियमित दिनचर्या निभा लूँ तो मेरी उत्त्मार्द्ध चिन्तित हो जाती हैं - कहीं अस्वस्थ तो नहीं? मेरा तो कुछ भी निश्चित नहीं। कोई नियमित दिनचर्या न निभाना ही मेरी दिनचर्या है। सो, मैं सदैव ही उत्सवजी के सामने निश्शब्द और नत-मस्तक रहता हूँ।

इन्हीं उत्सवजी ने मझे उलझन में डाल दिया। एक प्रसंग में उत्सवजी के साथ घर से बाहर, पूरे दो दिन रहा तो क्षण भर को भी नहीं लगा कि ये वही उत्सवजी हैं। जिस प्रसंग में हम लोग गए थे, वहाँ दैनन्दिन व्यवस्थाएँ तो सब थीं किन्तु सब अनिश्चित। जहाँ सौ-दो सौ लोगों का जमावड़ा हो वहाँ ऐसा होता ही है। न चाय का कोई समय और न ही नाश्ते का। भोजन भी घोषित समय से भरपूर विलम्ब से। मुझे लग रहा था कि इन दो दिनों में उत्सवजी कहीं अस्वस्थ न हो जाएँ। लेकिन उत्सवजी ने मुझे ‘अकारण भयभीत और निरा मूर्ख व्यक्ति’ प्रमाणित कर दिया। उत्सवजी ने एक क्षण भी अनुभव नहीं होने दिया कि वे अस्वस्थ है और किसी आहार निषेध के अधीन चल रहे हैं। इन दो दिनों में उत्सवजी ने वह सब किया जिसके लिए उनके घर में, उनके सामने बात करना भी अपराध माना जाता है। औषधि सेवन की समयबद्धता को तो उन्होंनें खूँटी पर टाँगा ही, दोनों दिन, निर्धारित व्यंजनों से अलग व्यंजनों का नाश्ता किया, कम से कम दो बार बिना रसे की सब्जियों के साथ पूड़ियाँ खाईं, दोनों दिनों के नाश्त में और चारों समय के भोजन में मुक्त भाव से मिष्ठान्न केवल सेवन ही नहीं किया, जो मिठाई अच्छी लगी, उसे दूसरी-तीसरी बार भी ली। मुझे लगा था कि यह अनियमितता वे मुझसे छिपा कर बरतेंगे। किन्तु नहीं, उन्होंने सहज भाव से सब कुछ मेरे सामने, मेरे साथ ही किया और मिष्ठान्न के लिए तो मेरी मनुहारें भी कीं। मैं हर बार, अविश्वास और विस्मित दृष्टि से उन्हें देखता रहा किन्तु उन्हें मेरी इस दृष्टि से क्षण भर को भी असुविधा नहीं हुई। इसके विपरीत, मैं दोनों ही दिन असहज बना रहा।

तीसरे दिन घर वापसी यात्रा के दौरान मैंने उत्सवजी से बात की तो उनके उत्तर ने मुझे जड़ों से हिला दिया। उत्सवजी का कहना था कि घर से बाहर, अपनी सुविधाओं को ताक पर रखकर मेजबान की व्यवस्थाओं में सहयोग करना हमारा दायित्व भी है और शिष्टाचार-सौजन्य की माँग भी। जहाँ तक घर की बात है तो वहाँ तो चरम अनुशासन अपनाया ही जाना चाहिए फिर भले ही घरवालों को असुविधा क्यों न हो। आखिर, वृद्ध और अस्वस्थ सदस्य की चिन्ता करना उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है और अस्वस्थ सदस्य का अधिकार। उत्सवजी ने सहजता से प्रति प्रश्न किया - ‘भला अपने ही घर में मैं समझौते क्यों करूँ? बीमार नहीं हो जाऊँगा?’ मैंने पूछा - ‘घरवालों की सुविधा को ध्यान में रखकर कभी-कभार समझौता करने में, अनियमितता बरतने में हर्ज ही क्या है?’ उत्सवजी ने उसी सहजता से तत्क्षण उत्त्र दिया - ‘घर तो घर है। बाहर का कोई आयोजन थोड़े ही है? और यदि घर में ही समझौते करने लगा तो घर और बाहर में फर्क ही क्या रह जाएगा?’ मैंने पूछा - ‘कभी घरवालों को हमारे सहयोग की आवश्यकता हो तो सहयोग नहीं करना चाहिए?’ उत्सवजी ने सपाट स्वरों में कहा - ‘मेरी चिन्ता करने, मेरी देख-भाल करने के सिवाय उनके पास और काम ही क्या है? और यदि है तो उनकी वे जानें।’

घर आकर, उत्सवजी की अनुपस्थिति में मैंने उनके बेटों-बहुओं से जानने की कोशिश की तो सब फीकी हँसी हँस कर मौन साध गए। हाँ, उनके कुछ अन्तरंग मित्रों ने बताया कि अपने शहर से बाहर ही क्यों, उत्सवजी तो अपने कस्बे में ही, घर से बाहर के आयोजनों में भी इसी प्रकार सारे निषेधों को ताक पर रखकर, सहज भाव से आहार अनियमितता बरतते हैं और अपनी अतृप्त अच्छाएँ पूरी करते हैं।

मुझे अभी भी इस सब पर विश्वास नहीं हो रहा है। घरवालों को ‘थोड़ा बहुत’ परेशान तो हम सब करते हैं किन्तु उनकी चिन्ता करते हुए अपनी सुविधाओं को त्यागने में भी देर नहीं करते। किन्तु उत्सवजी तो आठवाँ आश्चर्य बने हुए हैं। ये सारी बातें सोचते हुए मुझे उत्सवजी पर क्रोध आया। जी किया कि उनकी खबर ले लूँ। किन्तु अगले ही पल अपनी मूर्खता पर झेंप आ गई। भला मेरी क्या औकात कि मैं उत्सवजी को बदल सकूँ? सो, वह विचार छोड़ कर मन नही मन उत्सवजी को धन्यवाद दिया। अब जब भी उनसे मिल कर लौटूँगा तो मुझे स्वयम् पर लज्जा नहीं आएगी।

उत्सवजी! लज्जा भाव से मुझे मुक्त करने के लिए धन्यवाद।
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3 comments:

  1. पसंद अपनी-अपनी. कहा जाता है कि सिद्धांत, अक्‍सर हमारी कमजोरियां होते हैं और कारण, बहाने.

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  2. अनुशासन जीवन में रहे पर शासन न करे, आवारगी बड़ी भाती है हमें।

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  3. अपनों को परेशान करना और दूसरों के सामने सहज रहना, अजीब ही है। लेकिन दूसरों के सामने भी सहज नहीं रहेंगे तो आप स्‍वयं ही परेशान होंगे दूसरों को क्‍या? लेकिन कभी अपनों के साथ अत्‍यधिक समझौते भी आपको निरर्थक सा व्‍यक्ति बना देते हैं। हर बात में युद्ध है जी। लेकिन आपने लिखा बहुत सहजता से है, इसके लिए शुभकामनाए।

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