इस किताब को प्रतिबन्धित करने का मूर्खतापूर्ण विचार भी अविलम्ब ही निरस्त कर दिया जाना चाहिए। महाराष्ट्र सरकार ने तो प्रतिबन्ध लगाने की मूर्खता कर भी दी है। यह मूर्खता भी फौरन ही वापस ले ली जानी चाहिए। जो लोग किताब को प्रतिबन्धित कर रहे हैं या प्रतिबन्धित करने की माँग या विचार कर रहे है, वे गाँधी और गाँधी के सम्मान की नहीं, अपने स्वार्थ की जुगत भिड़ा रहे हैं।
हम बड़े चतुर और स्वार्थी लोग हैं। इसीलिए, आत्म-बल, साहस और संकल्प के मामले में विपन्न भी। अपनी आत्म-विश्वासहीनता हम अपने महापुरुषों पर थोपते हैं। हम प्रतीकों के महिमामण्डन और उनके सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जाने में माहिर लोग हैं। इसीलिए अपने महापुरुषों का असम्मान हम खुद भले ही कर लेंगे किन्तु कोई दूसरा यह करे तो कभी सहन नहीं करेंगे।
गाँधी की सर्वकालिकता और चिरन्तन प्रांसगिकता ने उन्हें सबकी ‘विवश अनिवार्यता’ बना रखा है। उनकी भी, जिन्होंने गाँधी की हत्या की और उनकी भी, जो गाँधी और गाँधी की विरासत पर एकाधिकार बनाए रख कर, सत्ता पर अपना कब्जा कायम रखना चाहते हैं।
गाँधी न तो ‘परा मानव’ थे न ही ‘मानवेतर।’ देवता तो वे कभी थे ही नहीं। वे आप-हम जैसे एक ही सामान्य मनुष्य थे - तमाम कमियों और अच्छाइयों वाले सामान्य मनुष्य। लेकिन, कथनी और करनी में चरम एकरूपता उन्हें असाधारण बनाती है। इस दृष्टि से वे ‘असाधारण रूप से साधारण मनुष्य’ हुए। उन्होंने उपदेश नहीं दिए। जो उन्हें सच और जनानुकूल लगा, उस पर उन्होंने अमल किया। उन्होंने कभी भी अपनी बात को अन्तिम सच मानने का आग्रह नहीं किया। अपने अन्तर्विरोधी मन्तव्यों पर उन्होंने साफ-साफ कहा कि ऐसे मामलों में उनकी बादवाली बात को माना जाए। अपने किसी कृत्य पर जब उन्हें शर्मिन्दगी हुई तो उसे उन्होंने स्वीकार किया और असाधरणता यह बरती कि उसकी आवृत्ति नहीं होने दी। गाँधी की गलतियों की सर्वाधिक जानकारी हमें गाँधी से ही मिलती है जबकि हम अपनी गलतियाँ छुपाने में जी-जान लगा देते हैं। गाँधी की यह पारदर्शिता ही उन्हें सबसे अलग (‘इकलौता’ होने की सीमा तक अलग) बनाती है।
हम अपने आत्म-बल पर भले ही अविश्वास करें किन्तु अपने महापुरुषों के आत्म-बल पर सन्देह न करें। हम उन्हें ‘देवता’ नहीं बनाएँ, मनुष्य ही बने रहने दें और यदि उनमें कोई कमियाँ हैं तो उन्हें सहजता से स्वीकार करें। जो समाज अपने महापुरुषों के व्यक्तित्व विश्लेषण से आँखें चुराता है वह किसी और पर नहीं, अपने उन्हीं महापुरुषों पर अत्याचार और उनके प्रति अपराध करता है।
गाँधी के सम्मान के प्रति हमारी यह चिन्ता वस्तुतः हमारा श्रेष्ठ पाखण्ड है। हम ‘गाँधी को’ मानने के लिए मरने-मारने पर उतारू हैं किन्तु ‘गाँधी की’ सुनने के लिए हमें पल भर का अवकाश नहीं है। गाँधी की दुहाई देना हमारे लिए लाभ दायक है और गाँधी के रास्ते पर चलना घाटे का सौदा। गाँधी ने भीड़ में खड़े अन्तिम आदमी की चिन्ता में निजत्व का विसर्जन कर दिया और हम निजत्व के लिए उसी अन्तिम आदमी के प्राण लेने में भी संकोच नहीं करते।
गाँधी को अपने बचाव और सुरक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि है भी तो जोसफ लेलिवेल्ड जैसों से नहीं, गाँधी की दुहाई देनेवाले हम भारतीयों से है।
फौलादी गॉंधी के हम, अपनी ही ऑंच से पिघल जानेवाले मोमी रक्षक हैं।
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बहुत सही कह रहे हैं हम.. जो लोग हंगामा मचा रहे हैं उन्होंने किताब तक देखी नहीं होगी....
ReplyDeleteचर्चा में आने के लिए किसी पर भी कीचड़ उछालो... और मरा व लब्धप्रतिष्ठित हो तो कोई रिस्क नहीं :)
ReplyDeleteप्रतिबन्ध लगाना विज्ञापन की ही एक विधि है।
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