एक अठवाड़े से अधिक हो गया। न तो कुछ लिखा और न ही कुछ पढ़ा। और तो और, ई-मेल से मिलने वाले चिट्ठों पर भी टिप्पणी नहीं कर पाया। बेटे की, मँहगी पढ़ाई वाले कम से कम चार और वर्ष तथा उसके बाद उसके विवाह के उत्तरदायित्व से चिन्तित एक बूढ़ा पिता और एक लालची बीमा एजेण्ट जितना व्यस्त होना चाहिए था, लगभग उतना ही व्यस्त मैं भी रहा - 31 मार्च की भागदौड़ में।
इस बीच एक दुर्घटना का शिकार भी हो गया। आहत और क्षत-विक्षत तो हूँ किन्तु तन से नहीं। मन से।
राजनीतिक दलों द्वारा उम्मीदवार चयन में ‘जीतने की सम्भावना’ को एकमात्र आधार बनाने के कारण अनेक अवांच्छित लोग विधायी सदनों में पहुँच जाते हैं। इन्हें रोकने के लिए मतपत्र अथवा इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प उपलब्ध कराने के लिए चलाए जा रहे अभियान से मैं भी जुड़ा हूँ। निर्वाचन आयोग ने यह सुझाव, भारत सरकार को भेज भी दिया है। किन्तु इसे स्वीकार कर लिया जाएगा, इसमें हर किसी को सन्देह ही है। ऐसे में, मताधिकार कानून की धारा 49 (ओ) का प्रचार-प्रसार अपने कस्बे में व्यापक स्तर पर कर सकूँ, इस हेतु अत्यधिक उत्साहित और प्रयत्नरत था। मन-मस्तिष्क में पूरी योजना स्पष्ट थी। रोटरी, लायंस, जैन सोश्यल ग्रुप, इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे समस्त प्रतिष्ठित और सूचीबध्द संगठनों की मासिक बैठकों में जाकर, इस प्रावधान की जानकारी देना और लोगों से आग्रह करना कि वे मतदान केन्द्र पर जाकर, मतदान न करने का अपना निर्णय अंकित कराने की प्रक्रिया पूरी करें। यह भी सोचा था कि इस हेतु शाम को छोटी-छोटी नुक्कड़ सभाएँ की जाएँ।
मैं इस सबमें आगे बिलकुल ही नहीं रहना चाहता था। चाहता था कि अधिकाधिक लोग इससे जुड़ें। संगठनों की बैठक में भी दो-तीन लोग पहुँचें। एक बोले, बाकी दोनों उसे मानसिक मजबूती देते रहें। नुक्कड़ सभाओं को लेकर भी यही विचार था। अभियान की प्रारम्भिक जानकारी लोगों को देने के लिए अखबारों में रख कर पर्चे पहुँचाना भी तय हो गया था। पर्चों के खर्च की भी व्यवस्था कर ली गई थी। पर्चा लिखवाने का काम एक मित्र के जिम्मे किया गया था-काम बाँटने और अधिकाधिक लोगों की भागीदारी प्राप्त करने की सद्इच्छा से। पर्चा किससे लिखवाना है, यह भी सुस्पष्ट था।
किन्तु इनमें से कुछ भी नहीं हो सका। जिन मित्रों को काम दिया था, उन सबने आश्चर्यजनक रूप से उदासीनता जताई। मजे की बात यह है कि ये तमाम मित्र वर्तमान त्रासदियों, विसंगतियों और प्रदूषित राजनीतिक परिस्थितियों पर जोरदार बहसें करते हैं और ‘हालात फौरन बदले जाने चाहिए’ जैसे जुमले कहते नहीं थकते। मुझे इन सब पर बड़ा भरोसा था। इन सबकी बातों को मैं इनकी पीड़ा और मन में छायी बेचैनी मानता था। किन्तु इनमें से एक को भी इस काम के लिए फुरसत नहीं मिली। सबके सब एक साथ, समान रूप से उदासीन और निस्पृह रहे। मैं ने जब भी बात की तो इन सबने ऐसे बात की मानो यह सब मेरा निजी काम (जैसे कि मेरे बेटे या बेटी की शादी) है जिसमें ये सब सहयोग कर मुझे और मेरे कुटुम्ब को उपकृत कर रहे हों। जिन मित्र के जिम्मे पर्चा लिखवाने का काम था, उन्हें जब तीसरी बार याद दिलाया तो निर्विकार भाव से बोले - ‘अरे! दादा, मैं तो भूल ही गया।’ उनका यह उत्तर मेरे लिए किसी जवान मौत से उपजे सदमे से कम नहीं था।
मेरा विचार क्रियान्वित नहीं हो पाया इससे अधिक वेदना मुझे इस बात से हुई कि जो लोग परिवर्तन की चाह रख कर निजी बहसों में झण्डाबरदारी करते रहे, काम करने के नाम पर उनमें से एक ने भी गम्भीरता और ईमानदारी नहीं बरती। किसी के पास इस काम के लिए समय नहीं था। कोई भी अपनी दुकान से उतरने को या कि घर के काम से समय निकालने को क्षण भर भी तैयार नहीं था। सबके सब ईमानदारी से बेईमानी बरत गए।
हमारे लोकतन्त्र का यही सबसे बड़ा संकट है। लोग इसे बेहतर स्थितियों में देखना तो चाहते हैं किन्तु सहयोग करते रहते हैं इसे बदतर बनाने में। कोई भी, कुछ भी खोने को तैयार नहीं। आर्थिक हित छोड़ दीजिए, मेरे मित्र तो समय और श्रम देने को भी तैयार नहीं हुए।
सदमे के पहले क्षण तो मुझे सब पर गुस्सा ही आया किन्तु अगले ही क्षण अपनी मूर्खता पर हँसी आ गई। उन बेचारों ने तो वही किया जो उनका स्वभाव था। मैं ने उन्हें जिम्मेदार और प्रयत्नवादी, परिवर्तनवादी मान लिया, उनसे अपेक्षा कर ली, यह मेरा ही तो अपराध था! उन ‘बेचारों’ का क्या दोष?
सो, इस समय मैं इस सदमे से तो उबर अवश्य गया हूँ किन्तु आगे कैसे क्या करना है, यह स्पष्ट नहीं है। कृपालु मित्रों ने यह तो जता ही दिया कि जो भी करना है, मुझे अपने अकेले के दम पर ही करना है।
देखता हूँ, कितना कुछ कर पाता हूँ। कर भी पाता हूँ या नहीं?
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सबसे कठिन कार्य तो उस विकल्प को उपलब्ध कराना है. यदि यह विकल्प इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में मिलने लगे तो फिर लोगों को प्रोत्साहित किया जा सकता है.वैसे इसके लिए एक निर्धारित प्रक्रिया तो है, परन्तु सरल नहीं है.
ReplyDeleteमैने भी महसूस किया कि आप कुछ दिनों से कुछ लिख नहीं रहे हैं ... कुछ आलेखों में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प उपलब्ध कराने के लिए चलाए जा रहे अभियान के बारे में पढा है ... यदि ऐसी सुविधा दी जा रही है तो हमें अवश्य उसका लाभ उठाना चाहिए ... इसके लिए लोगों में जागरूकता लानी चाहिए ... लेकिन आपका कहना सही है ... लोग भाषण देने में जितने तेज होते हैं काम करने में उतने ही पीछे ...हमारे लोकतन्त्र का यही सबसे बड़ा संकट है।
ReplyDeleteमैं भी कमोबेश ऎसी ही स्थिति से दो - चार हुई हूँ ,इस मुद्दे को लेकर । जो लोग देश में सब कुछ बदल डालने पर आमादा थे ,जब उनसे मैंने इस बारे में बात की तो वार्तालाप का सिलसिला एकाएक झटके से रुक गया । फ़ोन पर बातचीत झट से संक्षिप्त करते हुए हमें हमारे प्रयास की सफ़लता के लिए बधाई दे डाली । अगली बार भूल से फ़िर उसी जगह फ़ोन लग गया ,तो ऎसी बेरुखी देखने को मिली मानो हम कोई उधार माँग रहे हों । मैंने फ़िर भी हार नहीं मानी है । मुझे लगता है कि ये वो लोग हैं जो जानते हैं कि संसद के गलियारे साफ़ होने पर इनकी झोली में रुखी सूखी कमाई ही हाथ आ सकेगी । कैसे कर सकेंगे ये बेचारे गुज़ारा ? बस इसी वजह से नहीं चाहते कि अच्छे लोग आगे आएँ । गलत कामों को सही ठहराने के लिए ग़लत लोगों का आगे रहना ज़रुरी है । वैसे भूल आपकी भी है , जो आप जैसा अनुभवी शख्स ये मान बैठा कि तूफ़ानी हवाओं के बीच मोमबत्तियाँ जलाने सारी दुनिया का अँधियारा दूर हो जाएगा । अँधकार मिटाने की कूव्वत सिर्फ़ सूरज में है और सूरज हज़ारों में नहीं होते । आपको अकेले ही चलना होगा । " मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल , लोग साथ आते गये कारवाँ बनता गया ।"
ReplyDeleteदेखिये बेगानी जी,
ReplyDeleteमेरा मानना तो स्पष्ट है, की शुरुआत तो आपको ही करनी पड़ेगी... बाद में कोई जुड़े या नहीं, ये उनकी सिरदर्दी है, लेकिन आप आपना काम ईमानदारी से करें, अकेले चलें.... पहले अपने परिवार को साथ लें, कारवां नहीं बढा तो भी गम नहीं, लेकिन कारवां बढेगा- इसे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता....
ज्यादा लिख दिया तो छोटा बच्चा समझकर भूल जाना....