राखी पर मैं घर में अकेला ही बैठा हूँ। पत्नी तो हिम्मत करके मायके चली गई है किन्तु मैं उसके जैसा हिम्मतवाला नहीं हो सका।
हर साल की तरह इस साल भी जीजी को फोन किया था तय करने के लिए कि कि वह राखी पर आ रही है या फिर मैं ही उसके पास चला जाऊँ। उसने न तो आने की हामी भरी और न ही मुझे आने को कहा। यह सब इशारों-इशारों में नहीं, खुल्लम खुल्ला हुआ। सो, इस राखी पर मैं घर में अकेला ही बैठा हुआ हूँ।मेरी राखी इस बार भारत सरकार और मनमोहनसिंह की खुली अर्थनीति से बनी समाजिकता की भेंट चढ़ गई। जीजी ने इनका नाम तो नहीं लिया लेकिन जो कुछ कहा, वह इन्हीं का कहा हुआ था।
उसने कहा कि यदि मैं आऊँ तो त्रिभुवनदास जवेरी और वोडाफोन के और ऐसे ही सारे विज्ञापन देख कर इनमें से किसी एक की सलाह पर अमल करके ही आऊँ। ‘वर्ना आने का क्या फायदा?’ जीजी ने कहा। मैंने कहा कि उसकी रक्षा करने के वचन का ‘रीन्यूअल’ करने का मौका मुझे साल में इसी दिन मिलता है। मेरा जवाब सुनकर वह बहुत हँसी। बोली - ‘मेरी रक्षा की फिकर छोड़। तू अपनी ही कर ले तो बहुत है।’ उसने कहा - ‘बड़े नेता की बात तो छोड़, तेरे वार्ड का पार्षद भी तेरी नहीं सुनता। शहर का कोई गुण्डा-बदमाश तेरी नमस्ते का जवाब नहीं देता। पुलिस का अदना सा जवान भी तुझे नहीं जानता। तू तो भला आदमी है। रक्षा की जरुरत तो तुझे ही है।’ जीजी की बातों से मुझे शर्मिन्दगी होने लगी। फोन के दूसरे सिरे पर बैठे-बैठे ही उसने ताड़ लिया। मुझे दुलराती बोली -‘देख भैया! मैं जानती हूँ कि तू ईमानदार, नेक, चरित्रवान और साफ बोलने वाला है। लेकिन अब तेरा जमाना नहीं रहा। तू खुद जानता है कि तेरी इन्हीं बातों के चलते तू अब तक बाबू की कुर्सी पर ही बैठा हुआ है और तेरे जूनीयर तेरे सेक्शन हेड हो गए हैं। तू तो अपने अफसर की चापलूसी भी नहीं कर पाता। तेरे जैसे लोगों की जगह अब किस्सों-कहानियों, किताबों में या फिर समारोहों के भाषणों में ही रह गई है। मुझे तो तुझ पर गर्व है लेकिन तेरे कारण मुझे अपने सर्कल में झेंपना पड़ सकता है।’
मैं, जन्म से लेकर अब तक के सिलसिले को तोड़ना नहीं चाहता था। फिर, भाई-बहन के नाम पर हम दोनों ही एक दूसरे के लिए ‘इकलौते’ हैं। सो मैंने इसरार किया - ‘मैं तेरे किसी भी मिलने वाले के सामने नहीं आऊँगा। चुपचाप आऊँगा और राखी बँधवा कर वैसा ही चुपचाप चला जाऊँगा।’ जीजी बोली-‘यही तो! तेरा चुपचाप आना ही सबसे ज्यादा बोलेगा। तू जानता है कि तेरे जीजाजी की सोशल लाइफ ऐसी है कि मेरी कोठी पर रात तो होती ही नहीं। तू अपने हिसाब से भले ही अँधेरे में आएगा लेकिन मेरे यहाँ तो उजाला ही रहेगा। फिर, तू स्टेशन से मेरी कोठी तक या तो पैदल आएगा या बहुत हुआ तो ताँगे से। कन्धे पर झोला लटकाए, हाथ में पोलीथिन में लिपटा कोई पौधा लिए, ताँगे से उतरता हुआ तू! नहीं भैया, मैं तो इस सीन की कल्पना से ही पसीना-पसीना हो रही हूँ। तू खुद ही तय करले कि राखी के पवित्र त्यौहार पर तू मेरा स्टेटस बढ़ाएगा या कम करेगा?’ मैंने कहा - ‘भाई-बहन के रिश्तें में ये सारी बातें नहीं आतीं। यह तो तेरे और मेरे बीच की बात है।’ जीजी बोली-‘तू सही कह रहा है। लेकिन भैया! अब तो सब कुछ ग्लोबल और ओपन है।’
मैं भली भाँति समझ रहा था कि जीजी न केवल सच कह रही है बल्कि वह मेरा भला भी चाह रही है। वह बात और चिन्ता भले ही अपने स्टेटस की कर रही थी किन्तु वास्तव में मुझे उपहास से बचाना चाह रही थी। मैंने निरुपाय हो पूछा-‘तो मैं क्या करूँ?’ जीजी शायद इसी सवाल की प्रतीक्षा कर रही थी। तत्काल बोली -‘एक काम कर। तू मुझे एक मँहगा और खूबसूरत कार्ड भेज दे। मेरे यहाँ आने के लिए तुझे जितना भी खर्च करना पड़ता, उसके मुकाबले, मँहगे से मँहगा कार्ड भी तुझे सस्ता ही पड़ेगा। वह कार्ड मेरे सर्कल में मेरा स्टेटस बढ़ाएगा और तेरा स्टेटस छुपा लेगा। तू चुपचाप आने-जाने की बात कर रहा है लेकिन मैं तेरे कार्ड को अपने ड्राइंग रूम में बड़ी शान से एक्जिबिट करूँगी और अपनी सहेलियों के सामने इतराऊँगी। जमाना भी तो अब कार्ड का ही हो गया है। रिश्ता भले ही न निभा पाएँ, कार्ड तो होना ही चाहिए।’
मैंने जीजी का कहना मान लिया। उसे कार्ड भेज दिया है।
आसपास के घरों से बच्चों, किशोरियों के खिलखिलाने की आवाजें आ रही हैं। बन रहे व्यंजनों की गन्ध नथुनों में समा रही है। पूरे मुहल्ले में राखी के त्यौहार ने डेरा डाल दिया है।
बस, एक मैं ही हूँ जो घर में अकेला बैठा, अपनी सूनी कलाई को घूर रहा हूँ।
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बस, एक मैं ही हूँ जो घर में अकेला बैठा, अपनी सूनी कलाई को घूर रहा हूँ।
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मै भी इसी पंक्ति मे हुं।
वैरागी जी,इतने उदास ना हो.....समय के साथ साथ सब बदल रहा है....अब हरिक रिश्ता अर्थ से तौला जाता है...हम तो यह सब बहुत पहले ही समझ चुके हैं....सो अब ऐसे मौकों पर चुप्पी साध लेते हैं..
ReplyDeleteभईये, आप ही की तरह हम भी बैठे हैं...क्या किया जाये.
ReplyDeleteहम भी अकेले ही थे.. पर कुछ देर पहले हमारी राखी आ गई और हमारी कलाई पर एक राखी शोभा बढ़ाने लगी.... वरना..
ReplyDeleteIndian Postal Service ki registered post ki badaulat hum bhi sooni kalaai liye baithe hein....:-(
ReplyDeleteचलिए, इस अकेलेपन ने आपका ब्लॉगिया मौन तुड़वा दिया. तो क्या मैं ईश्वर से ये इल्तिजा करूं कि वो आपको ऐसे हमेशा अकेला रखे ताकि आपको ब्लॉग लिखते रहने की लगातार प्रेरणा मिलती रहे?
ReplyDeleteपर नहीं, मैं चाहूंगा कि ईश कृपा से आप भीड़ भाड़ में बैठकर, बेहद व्यस्तता में भी नियमित लिखते रहें :)
Ravi ji ki baat par gaur kiya jaye.. :)
ReplyDeleteआप का पुनर्प्रवेश अच्छा लगा। लेकिन अब वापस मत लौटिएगा।
ReplyDeleteरक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!
आप आए तो!किसकी रक्षा, कैसा बन्धन! जाने दीजिए। बस लिखिए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
फिक्र न करें बैरागी जी - हम भी डाक में आई राखी से काम चला रहे हैं बरसों से!
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा। सुकून मिला।
Jai ho
ReplyDeleteaa to gae mere bhai saahab
वैरागी जी,
ReplyDeleteआप इतने अच्छे कथा- लेखक भी हैं, आज तक पता ही न था. इतने सच्चे कथानक के लिए बहुत बहुत बधाई! लिखते रहिये.