24 अप्रेल की सवेरे कोई साढ़े आठ बजे कोमल का फोन आया - ‘मामा साहब! गणपति स्थापना कर रहे हैं। पधारिए.’ मैंने उसे बधाई दी और कहा कि पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार हम पति-पत्नी, 28 अप्रेल की सवेरे उसके यहाँ पहुँच जाएँगे.
कोमल मेरा छोटा भानजा है. मेरे कस्बे से कोई दो सौ किलामीटर दूर, राजस्थान के छोटे से गाँव निकुम्भ में रहता है. मेरी बड़ी बहन, गीता जीजी उसी के साथ रहती है. कोमल के बड़े बेटे मनीष का ब्याह 28 अप्रेल को होना था।
कोई आठ घण्टे बाद ही, अपराह्न साढ़े चार बजे फिर कोमल का फोन आया। घबराते हुए उसने कहा - ‘मामा साहब! अभी-अभी पिताजी शान्त हो गए हैं. किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा है. किन्तु अन्तिम संस्कार आज ही करेंगे. बाकी काम-काज कब और कैसे होगा, यह सब रात में ही तय करेंगे.’कोमल के पिताजी याने मेरे जीजाजी याने जिस मनीष के विवाह में हमें जाना था, उसके दादाजी. मैंने समय का हिसाब-किताब लगाया और पाया कि मैं तत्क्षण भी निकलूँ तो भी जीजाजी के अन्तिम संस्कार में सम्मिलित नहीं हो सकता. सो, तय किया कि रात को कोमल से बात करके अगली सवेरे ही निकलूँगा.
रात कोई दस बजे कोमल ने बताया कि उठावना (तीसरा) अगले ही दिन, 25 अप्रेल को ही, सवेरे ग्यारह बजे करना तय हुआ है.25 अप्रेल की बड़ी सवेरे साढ़े पाँच बजे हम पति-पत्नी निकुम्भ के लिए निकले और साढ़े दस बजते-बजते वहाँ पहुँचे. मालूम हुआ कि चूँकि विवाह हेतु गणपति स्थापना की जा चुकी थी, चाक न्यौता जा चुका था, मण्डप तान दिया गया था, पत्रिकाएँ बाँटी जा चुकी थीं। सो विवाह आयोजन स्थगित कर पाना सम्भव नहीं रह गया था। इसलिए केवल उठावना ही नहीं, पगड़ी और शोक निवारण तक की समस्त उत्तरक्रियाएँ आज ही सम्पादित कर ली जाएँगी.
ग्यारह बजते-बजते हमारा, लगभग पूरा कुटुम्ब वहाँ एकत्र हो चुका था. हम सब कोई चौदह-पन्द्रह परिवार थे. कोई आठ-दस वर्षों के बाद हम सब एक दूसरे को एक साथ देख रहे थे। अपने-अपने अहम् के टापुओं पर बैठे हुए हम सब, मोटे तौर पर तीन गुटों में बँटे हुए थे और स्थिति यह थी कि प्रत्येक गुट ने कम से कम किसी एक गुट का बहिष्कार तो किसी गुट ने दो गुटों को बहिष्कार कर रखा था। किसी के यहाँ उपस्थित मंगल प्रसंग पर बुलाने पर भी नहीं जाना इस बहिष्कार का प्रकटीकरण था तो किसी ने तो निमन्त्रण भेजना ही बन्द कर रखा था। किन्तु मैंने देखा कि इस शोक प्रसंग पर प्रत्येक परिवार का कोई न कोई प्रतिनिधि उपस्थित था और पूरे मनोयोग से उत्तरक्रियाओं में अपनी-अपनी भूमिका निभा रहा था जबकि कोमल की ओर से सीधी सूचना कुछ ही लोगों को मिली थी। अधिकांश को, किसी तीसरे से ही यह शोक समाचार मिला था।अचानक ही मेरे मन में विचार आया कि शोक प्रसंग में बिना बुलाए, भाग कर आने वालों में से कितने लोग, मनीष के विवाह में भागीदारी करेंगे.
चूँकि काम कम और फुर्सत अधिक थी, सो मैंने धीरे-धीरे कुटुम्बियों को टटोलना शुरु किया। कुछ को विवाह का निमन्त्रण मिला था था और कुछ को भेजा ही नहीं गया था। जीजी का बहिष्कार करने वाले गुट में से जिनको निमन्त्रण भेजा गया था उनसे मैंने सहज भाव से पूछा कि मनीष के विवाह के अवसर पर उनसे मिलना होगा या नहीं? मुझे उत्तर मिला-‘आने का कोई सवाल ही नहीं उठाता. आज मिल लिए सो मिल लिए. अगला मिलना इसी तरह किसी मौत-मरण में ही होगा.’
किन्तु इस उत्तर ने नए प्रश्न खड़े कर दिए. वह कौन सा कारण है कि मंगल प्रसंगों पर तो हम बार-बार बुलाने पर भी नहीं जाते और शोक प्रसंग पर, तीसरे आदमी से सूचना मिलने पर भी भाग कर पहुँच जाते हैं और प्रयास करते हैं कि अन्तिम संस्कार में अवश्य ही सम्मिलित हो जाएँ?
समाधानकारक उत्तर कहीं से नहीं मिला। सबने लगभग एक ही उत्तर दिया - ‘ऐसा ही होता है.’ बार-बार कुरेदने पर कुछ वरिष्ठों और सयानों ने बताया कि ‘कुटुम्बियों‘ और ‘रक्त सम्बन्धियों’ की पहचान ऐसे ही क्षणों/प्रसंगों में होती है. बात मुझे बिलकुल ही समझ में नहीं आई. यदि हम सचमुच में ‘कुटुम्बी’ या ‘रक्त सम्बन्धी’ हैं तो यह भाव, उत्सवों, मंगल प्रसंगों पर, उजागर क्यों नहीं होता? उस समय क्यों हम सारी मनुहारों की उपेक्षा करते हैं? क्यों एँठे, इतराए बने रहते हैं? मैं ने खुद ने मेरे जीजाजी का बहिष्कार कर रखा था किन्तु मेरा और जीजी का परस्पर आना-जाना बना हुआ है। मैं जीजी की भावनाओं की चिन्ता करते हुए निकुम्भ पहुँचा था।
मेरी जिज्ञासा का समुचित उत्तर मुझे अब तक नहीं मिला है. तलाश करने पर अधिक निराशा ही मिली जब मालूम हुआ कि पूरे समाज में और प्रत्येक कुटुम्ब में यह स्थिति (कहीं कम तो कहीं अधिक) समान रूप से बनी हुई है. एक परिचित ने तो अधिक कष्टदायी अनुभव सुनाया. मेरी पूरी बात सुनकर उन्होंने बताया कि ठीक ऐसा ही प्रसंग उनके कुटुम्ब में भी आया था तो उन्होंने सबसे कहा कि कुटुम्ब में परस्पर बहिष्कार बन्द किया जाना चाहिए. किन्तु शुरुआत कौन करे? तब इन्होंने कहा कि शुरुआत वे करने को तैयार हैं किन्तु सब लोग वचनबध्द हों कि सारे कुटुम्बी बहिष्कार करना छोड़ देंगे. उन्हें दुख और आश्चर्य हुआ जब उन्होंने पाया कि कोई भी वचनबध्द होने को तैयार नहीं है. सबने कहा - ‘तुम शुरुआत तो करो. बाद की बाद में देखेंगे.’ मेरे ये परिचित बोले - ‘बैरागीजी! मेरे कुटुम्बियों और रक्त सम्बन्धियों ने शुरुआत से पहले ही मेरी बात का अन्त कर दिया और अब हम भी एक दूसरे के यहाँ मौत-मरण में जाने के लिए चैबीसों घण्टों तैयार बने रहते हैं.’
आपमें से कोई यदि मुझे इस व्यवहार का तार्किक औचित्य प्रदान कर सकें तो मुझे उपकृत कीजिएगा। अन्यथा ‘कुटुम्बी’ अथवा ‘रक्त सम्बन्धी’ की एक ही व्याख्या सत्य लगती रहेगी कि सच्चे कुटुम्बी अथवा/और रक्त सम्बन्धी वे ही होते हैं जो आपके यहाँ किसी के मरने की प्रतीक्षा अत्यधिक आतुरता से कर रहे होते हैं कि ‘तुम्हारे यहाँ कोई मरे तो हम दौड़ कर आएँ।’
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जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
ReplyDelete( Treasurer-S. T. )
आप ने रक्त संबंधों में आई दरार को बखूबी पहचान लिया है और हमारे भीतर भरे अहंकार को भी।
ReplyDeleteबात दुखद है लेकिन फिर भी कभी भी न मिलने से तो कम से कम दुःख के समय में अपना अहम् त्याग कर सहारा देने के लिए तो पहुंचना ही चाहिए.और फिर परिचित को अगर अपने कहे पर पूर्ण विश्वास होता तो उन्हें किसी को भी वचनबद्ध करने की ज़रुरत नहीं थी. अपने विश्वास पर खुद अपनी तरफ से शुरूआत करते, बस!
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