मैं अब तक विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि यह सब हुआ है।
कोई आठ दिन पहले हमारी महापौर, अपने समर्थक कुछ पार्षदों के साथ कलेक्टर से मिलीं। निगमायुक्त के विरुद्ध एक ज्ञापन दिया। निगमायुक्त से महापौर की पटरी नहीं बैठ रही है। इससे पहले चार निगमायुक्तों से भी उनकी पटरी नहीं बैठी थी।
ज्ञापन सम्भागायुक्त को सम्बोधित था जिसमें निगमायुक्त की शिकायत की गई थी कि वे (निगमायुक्त), जनहित से जुड़े, महापौर परिषद् के निर्णयों के क्रियान्वयन में बाधाएँ खड़ी कर रहे हैं। ज्ञापन में चेतावनी दी गई थी कि यदि तीन दिन में निगमायुक्त को ‘ठीक’ नहीं किया गया तो महापौर और महापौर परिषद् के सदस्य, ‘जन आन्दोलन’ शुरु कर देंगे। कलेक्टर के अनुरोध पर ‘तीन दिन’ को ‘पाँच दिन’ कर दिया गया। किन्तु सात दिनों के बाद भी कुछ नहीं हुआ और महापौर तथा उनके समर्थक पार्षदों ने भी कुछ नहीं किया। आठवें दिन, लोकसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही आचार संहिता प्रभावी हो गई।
अब, हमारी महापौर और उनकी मण्डली को कम से कम, लोकसभा चुनावों के परिणामों की घोषणा हो जाने तक (अर्थात् 16 मई तक) तो निगमायुक्त को झेलना ही पड़ेगा।
महापौर और निगमायुक्त में से कौन सही है और कौन गलत, यह आकलन मेरे विचार का विषय नहीं है। मुझे तो इस स्थिति पर आश्चर्य हो रहा है कि ‘लोकतन्त्र’ कहाँ से कहाँ आ गया!
निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की विधि सम्मत, जनहितकारी इच्छाओं का क्रियान्वयन कराना जिन अधिकारियों का कानूनी उत्तरदायित्व है, उनके सामने निर्वाचित जनप्रतिनिधि इतने विवश, असहाय, बौने और दुर्बल हो गए कि उन्हें ज्ञापन देने पड़ रहे हैं? वह भी अधिकारियों को ही? वह भी तब, जबकि महापौर की पार्टी की ही सरकार प्रदेश में राज कर रही है? और इससे भी बड़ी बात यह कि इतनी गम्भीर सार्वजनिक उपेक्षा, अवमानना के बाद भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी कुर्सियों पर बने हुए हैं?
यह सब देख कर मुझे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से जुड़ी कुछ घटनाएँ अनायास ही याद हो आईं। तय कर पाना कठिन हो गया कि अतीत पर गर्व किया जाए या वर्तमान पर रोया जाए?
सबसे पहले याद आए-गो. ना. सिहं अर्थात् गोविन्द नारायण सिंह।
सम्भव है, गोविन्द नारायणसिंह का नाम आज की पीढ़ी के लिए अनजाना ही हो। वे मध्यप्रदेश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्यमन्त्री थे। यह अलग बात है कि यह करिश्मा करने के लिए उन्हें दलबदलू बनना पड़ा था। वे न केवल सफल और लोकप्रिय जननेता थे अपितु कुशल प्रशासक भी थे। उन्हें नियमों, विधिक प्रावधानों और प्रक्रियाओं की पूरी जानकारी थी। कामचोर अधिकारी उनका सामना करने से कतराते और घबराते थे। कहा जाता था कि वे जब वल्लभ भवन (मन्त्रालय) के गलियारों में चल रहे होते थे तो उनका सामना करने से बचने के लिए अधिकारी को जो दरवाजा नजर आता, उसी में घुस जाता था। फिर भले ही वह दरवाजा शौचालय का ही क्यों न हो!
अपने जन सम्पर्क भ्रमण में मिलने वाले सामूहिक आवेदनों पर वे खुल कर टिप्पणी करते थे। उनकी एक ‘नोट शीट’ मैंने देखी थी. जन सम्पर्क के दौरान एक गाँव के लोगों ने, वर्षा काल में अपने गाँव का सम्पर्क बनाए रखने के लिए नाले पर ‘रपटा’ (जिसे मालवा में ‘रपट’ कहा जाता है) बनवाने का अनुरोध किया था। विभागीय प्रक्रिया पूरी कर यह आवेदन जब मुख्यमन्त्रीजी की टेबल पर पहुँचा तो विभागीय सचिव की अन्तिम टिप्पणी में रपटा निर्माण को अव्यवहारिक घोषित करते हुए निरस्त करने की अनुशंसा की गई थी। गो. ना. सिंह ने उस टिप्पणी को सिरे ही निरस्त कर दिया और लिखा - ‘सेक्रेटरी साहब! आपकी ऐसी तैसी। रपटा तो बनेगा।’
और कहना न होगा कि रपटा बना।
ऐसी ही दो-एक घटनाएँ कल।
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कुछ सरकारी टिप्पणियाँ ऐसी ही होती हैं जिन की ऐसी तैसी ही ठीक है।
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