बार-बार, बात-बे-बात रोने वाले को मालवी में ‘रोन्या’ और ‘रोतल्या’ कहते हैं। चिट्ठा जगत के कृपालु मुझे ‘रोन्या’ या ‘रोतल्या’ कहें तो मुझे तनिक भी (निमिष मात्र को भी) बुरा नहीं लगेगा।
यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरी कुछ पोस्टों पर एकाधिक कृपालुओं ने, मेरे रोने को भी अपनी टिप्पणियों में स्थान दिया है। अधिकांश ने मेरी इस ‘कमजोरी’ पर चिन्ता जता कर मुझे इससे उबरने का ‘अपनत्वपूर्ण’ परामर्श दिया तो कुछ ने जिज्ञासा जताई - मैं बार-बार रोता क्यों हूँ?
सबसे पहले तो मेरी चिन्ता करने वालों के प्रति हार्दिक आभार और कृतज्ञता। सच कह रहा हूँ, यदि मित्रों ने मुझे नहीं सम्हाला होता तो मैं तो अब तक जीवित भी नहीं रह पाता। जब भी अवसर मिलता है, मैं कहता हूँ कि मैं तो उधार का जीवन जी रहा हूँ। जैसे मित्र मुझे मिले, ईश्वर सबको वैसे मित्र दे और मुझ जैसा मित्र किसी को न दे। मेरे मित्र ही मेरी अमूल्य परिसम्पत्तियाँ हैं और मैं सब मित्रों का अयाचित, अवांछित उत्तरदायित्व।
किन्तु ईश्वर की कृपा सचमुच में अकूत और चिरन्तन है। चिट्ठा जगत में आकर मेरी परिसम्पत्तियाँ तो सहस्रगुना हो गईं! जो मुझे जानते नहीं, जिन्होंने मुझे देखा नहीं, मुझसे कभी बात नहीं की ऐसे अनगिनत चिट्ठाकारों ने मानो मुझे अपने परिवार में सम्मिलित कर लिया। पल-प्रति-पत शुष्क होते जा रहे इस समय में कौन किसके रोने की चिन्ता करता है? किसी के आँसुओं की कौन परवाह करता है? कोई रो रहा है तो रोता रहे। प्रत्येक के पास अपनी-अपनी असमाप्त व्यस्तताएँ हैं।
किन्तु चिट्ठा जगत ने मुझे न केवल हौसला दिया, अपितु वह ऊष्मापूर्ण अपनत्व दिया जो व्यक्ति की जीवनी-शक्ति बढ़ाता है, व्यक्ति का एकान्त नष्ट करता है, उसे वह आश्वस्ति भाव और निश्चिन्तता देता है जिसके दम पर आदमी की हर परेशानी बहुत ही छोटी, बहुत ही हलकी और आसानी से झेली जा सकने वाली हो जाती है।
मैं बहुत जल्दी रुँआसा हो जाता हूँ। छोटी-छोटी (और अर्थहीन) बातें भी मुझे रुला देती हैं, यह सच है। ऐसा क्यों है-इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है। किन्तु अपनी इस दशा पर मुझे तनिक भी संकोच और लज्जा नहीं है। मैं एक सामान्य मनुष्य हूँ जिस पर सारे आवेग-सम्वेग अपना प्रभाव डालते हैं। मैं इनसे न तो बच पाता हूँ और न ही बचने का प्रयत्न करता हूँ। रुलाई और हँसी को मैं न तो रोक पाता हूँ और न ही इन्हें रोकने का कोई प्रयत्न ही करता हूँ।
‘रोना‘ मेरे तईं एक सहज प्राकृतिक क्रिया है जिसे मैं निर्बाध रूप से पूरी होने देने के पक्ष में हूँ। मेरा बचपन देहात में बीता जहाँ एक का दुख, सबका दुख होता है-आज भी। सो, जिस मिट्टी से मेरी मानसिकता गूँधी गई वह शायद ऐसी ही भावनाओं के पानी से तैयार हुई होगी। विवाह प्रसंगों में मैं वधु की विदाई के क्षणों में भाग आता हूँ। मेरी इस बात पर हर कोई अविश्वास ही करेगा किन्तु यह शब्दशः सच है कि मेरे ‘पाणिग्रहण संस्कार’ के बाद जब मेरी पत्नी की विदाई का क्षण आया तो मैं अपने मित्रों के साथ जनवासे चला आया। वहाँ रुक जाता तो लोग देखते कि नव विवाहित वर वधु, जोड़े से रो रहे हैं। मेरी इस बात की पुष्टि मेरी जीवन संगिनी से की जा सकती है। आज भी मुझसे ‘बेटी की विदाई’ न तो देखी जाती है और न ही झेली जाती है।
मैं ऐसा ही हूँ। अपने रोने को लेकर कोई हीन भाव मुझे नहीं सताता और न ही ‘लोग क्या कहेंगे’ वाला ‘लोक भय’ मुझ तक आ पाता है। हाँ, हँसी के मामले में तनिक सावधानी बरतने का यत्न अवश्य करता हूँ। मेरा हँसना किसी की अवमानना, उपहास का कारण न बने, इस चिन्ता के अधीन यथा सम्भव चैकन्ना रहने की कोशिश करता हूँ और अपवादों को छोड़ दूँ तो कहने की स्थिति में हूँ कि ऐसे प्रयत्नों में मेरी सफलता का प्रतिशत पर्याप्त आत्म सन्तोषदायक है।
किन्तु एक मामले में मैं अपवादस्वरूप ही सफल हो पाता हूँ। वह है - अपने आवेश पर नियन्त्रण कर पाना। यह मेरी इतनी बड़ी कमी है जिसके कारण मुझे अनगिनत बार, अच्छी-खासी हानि झेलनी पड़ी है। यह क्रम अब भी निरन्तर बना हुआ है। ऐसे प्रत्येक अवसर पर मेरा विवेक मुझे टोकता रहता है किन्तु बुध्दि भ्रष्ट हो जाती है और मैं खदु ही अपना शत्रु साबित हो जाता।
किन्तु मेरे समस्त हितचिन्तक एक बात जानकर शायद प्रसन्न हों। यह रोना, मेरी दुर्बलता कभी नहीं बन पाया। अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से कह पा रहा हूँ कि मेरे भावातिरेक का मनमाना उपयोग (इसे आप ‘दुरूपयोग’ भी कह सकते हैं) करने की सुविधा आज तक मैंने किसी को उपलब्ध नहीं कराई। सब निराश ही हुए।
सो, समूचा चिट्ठा जगत मुझ ‘रोन्या’ अथवा ‘रोतल्ये’ को जिस चिन्ता और अपनत्व से अब तक सहेजे हुए है, वह चिन्ता और अपनत्व बनाए रखिएगा। मेरे मित्र ही मेरी अमूल्य परिसम्पत्तियाँ और जीवनी शक्ति हैं।
और मैं? मैं तो ऐसा ही हूँ। ‘सुधरने’ की क्षीणतम सम्भावना (सम्भावना क्या, आशंका) भी नहीं है। आखिरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे?
मुझे मेरी इस कमजोरी सहित अपनाए रखने का उपकार कीजिएगा।
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आप शान से रोना-धोना जारी रखें! जो होगा देखा जायेगा!
ReplyDeleteअल्यूमीनियम की पतीली में पानी जल्दी उबल जाता है। उस से भी अधिक संवेदनशील धातु के आप बने हैं। तुरंत ही भावातिरेक के शिकार हो जाते हैं। बहुत लोगों में यह गुण होता है। यह रोना नहीं है। मुश्किल यह है कि आप इसे रोना कहते हैं।
ReplyDeleteएक आप ही नहीं है रोने वाले. दुनिया में और भी हैं. एक कन्फेसन तो सार्वजनिक यहाँ भी है -
ReplyDeletehttp://nuktachini.debashish.com/47
वैसे, बचपन में मुझे भी "पेना" या "पेनपेना" के नाम से चिढ़ाया जाता था - जाहिर है कि क्यों.
और, आपकी मानवीय संवेदनाओं से भरी पोस्टें, मैं शर्त लगा सकता हूं कि हर पाठक - जी हां, एक बार फिर - हर पाठक के नेत्र सजल करते ही होंगे...
रो पाना एक बहुत बड़ा गुण है। समाज अस्वाभाविक दबाव डालकर पुरुषों में से इस गुण को उखाड़ फेंकता है। आपकी संवेदनशीलता आपके उन बहुत सारे गुणों में से एक है जिसके कारण आपके मित्र आपको इतना चाहते हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
विदेशी कहावत है शायद इस्रायली - आंसू का स्थान आत्मा के लिए वही है जो शरीर के लिए साबुन का.
ReplyDeleteयह तो मानवीय संवेदना को जाहिर करने का एक जरिया है और आप इस से अछूते नहीं ..यही बात अच्छी है ..
ReplyDeleteमन अनायास अच्छा हो गया आपकी ईमानदार अभिव्यक्ति से ...नमन
ReplyDeleteहंस तो सब लेते है विष्णु भैया रोना हर किसी के बस का नही।मुझे भी रोना नही आता लेकिन एकाध बार जब आता है तो ऐसा लगता है दिल का सब मैल धुल गया,सब बोझ हल्का हो गया।आप तक़दीर वाले है जो हर किसी के छोटे से छोटे दुःख मे शामिल हो जाते हैं।आप अच्छे और सच्चे इंसान है आपको पढ कर लग जाता है इसके लिये आपको किसी के सर्तिफ़िकेट की ज़रूरत नही है।
ReplyDeleteबैरागी जी, मेरे दृ्ष्टिकोण से तो आप जिसे अपनी कमजोरी मान बैठे हैं,वास्तव में वो तो आपके व्यक्तित्व का सबसे उज्जवल पहलू है.ऎसे संवेदनशील व्यक्तित्व आज के जमाने में बहुत मुश्किल से ही मिलते है जिनका अपना हृ्दय किसी दूसरे के दुख को भी अपना मान कर द्रवित हो जाए.
ReplyDeleteऐसी संवेदनशीलता भावुकता, आजके समय में असहज है बैरागी जी ! इस ईमानदारी को प्रणाम !
ReplyDeleteविष्णु बैरागी जी, आप अकेले ही नही संवेदनशीलता ओर भावुक, दुनिया मै बहुत से लोग आप को मिलेगे, ओर होना भी चाहिये किसी के दुख को जो अपना समझे वो ही इंसान होता है,हम दुसरो के संग हंस तो लेते है, लेकिन किसी के आंसू अपनी आंखो मे लेना किसी बाहदुर का ही काम है.
ReplyDeleteधन्यवाद
आप अकेले नहीं हैं - हम भी बीच बीच में रुदन करते रहते हैं। देखा ही होगा। यह बड़ा रिलीज है। यह तो फुरसतिया जैसे हैं जो रोने का मजा किरकिरा करने आ जाते हैं! :-)
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