(इस आलेख की प्रेरणा ज्ञानदत्तजी पाण्डेय की पोस्ट मन्दी से और बाद में उन्हीं के ब्लाग पर प्रकाशित श्री जी. विश्वनाथजी की जी विश्वनाथ: मंदी का मेरे व्यवसाय पर प्रभाव पोस्ट से मिली है। सो इसे, इन दोनों की ‘पुछल्ला पोस्ट’ मानी जाए तो मुझे न तो आपत्ति होगी न ही अचरज।)
मन्दी के दौर का शोर अब उतना नहीं सुनाई दे रहा जितना कुछ दिनों पहले तक सुनाई दे रहा था। शायद इसलिए कि या तो हम लोगों ने इसकी आदत डाल ली है या फिर इसे अपरिहार्य मान, इसे सर-माथे कबूल कर लिया है। मेरे कस्बे में इससे प्रभावित लोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जाने वाली है। किन्तु मेरे परिचय क्षेत्र में यह संख्या तनिक अधिक बड़ी है। ऐसे लोगों में मेरे बेटे के मित्र ही हैं। मेरा बेटा एक विदेशी कम्पनी के हैदराबाद कार्यालय में पदस्थ है और उसके साथी भारत तथा दुनिया के अन्य देशों में कार्यरत हैं। इनमें से कुछ से मेरी ‘चेटिंग’ होती रहती है तथा अधिसंख्य के बारे मे इन्हीं से जानकारी मिलती रहती है।
कोई डेड़ महीना पहले तक सबके सब घबराए हुए थे। हर कोई आशंकित था कि अगले दिन उसकी नौकरी बचेगी भी या नहीं। मुझे आर्थिक क्षेत्र की गतिविधियों का विश्लेषण करना नहीं आता। किन्तु ‘जीवन बीमा व्यवसाय’ के कारण इन गतिविधियों के निष्कर्षों की जानकारियाँ प्रायः ही मिलती रहती हैं। गिनती की ये जानकारियाँ इतनी सटीक होती हैं कि इनके के दम पर मैं अपने ग्राहकों पर प्रभाव जमाने में सदैव ही सफल हुआ हूँ।
निष्कर्षों की इसी श्रृंखला में मुझे बताया गया (भरोसा दिलाया गया) कि जिस स्तर की नौकरियों में मेरा बेटा और उसके मित्र लगे हुए हैं उस स्तर की नौकरियों पर कोई असाधारण खतरा बिलकुल ही नहीं है। नौकरी किसी की नहीं जाएगी। हाँ, यह हो सकता है कि इन बच्चों के वेतन कम कर दिए जाएँ या फिर, इसी वेतन में इनके काम के घण्टों में वृध्दि कर दी जाए। कोई अपरिहार्य और असाधारण स्थिति में ही किसी की नौकरी खतरे में पड़ सकती है। मुझे कहा गया कि मैं अपने बेटे को और उसके मित्रों को अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से कह दूँ कि उनमें से किसी की नौकरी नहीं जाएगी।
डरा हुआ तो मैं भी था। अभी भी हूँ ही। बेटे के बेरोजगार होने से नहीं अपितु, उसके बेरोजगार हो जाने से उसके मन में उपजने वाली निराशा/हताशा के भय से। फिर भी मैंने अपने स्वरों में अधिकाधिक आत्म विश्वास का (स्वीकार करता हूँ कि 'सम्पूर्ण आत्म विश्वास' का नहीं) पुट देते हुए बेटे को भरोसा दिलाया। उसे आगाह भी किया कि उसका वेतन कम हो सकता है। कहा कि अपने तमाम मित्रों तक मेरी यह बात पहुँचाए और चाहे तो मेरा नाम ले कर पहुँचाए। पता नहीं, मेरी बात पर मेरे बेटे को विश्वास हुआ या नहीं किन्तु जब मैंने उससे कहा ‘घबराना मत। यह एक ‘टेम्परेरी फेज’ है और हम सब तुम्हारे साथ हैं’ तो सुनकर उसकी आवाज मे जो बदलाव आया उससे लगा कि उसे मेरी पहली वाली बात पर भले ही भरोसा न हुआ हो किन्तु बाद वाली बात से अवश्य उसे राहत मिली है। बाद में उसके दो-तीन मित्रों ने भी मुझसे सम्पर्क किया और मेरी बातें सुनकर ‘थैंक्यू अंकल! आपकी बातों से कान्फिडेन्स बढ़ा’ जैसी बातें कहीं।
इसी मुद्दे पर सोचते-सोचते अचानक ही मेरा ध्यान एक आर्थिक विशेषज्ञ की उस टिप्पणी पर गया जिसमें कहा गया था कि भारतीयों की अल्प बचत की मानसिकता के कारण हमारी अर्थ व्यवस्था डूबने से बच गई। इस टिप्पणी का सन्देश था कि अल्प बचत की विभिन्न योजनाओं में मध्यमवर्गीय भारतीयों द्वारा जमा कराई गई रकम से सरकार को वह आर्थिक मजबूती मिली जिसके कारण वह नाम मात्र के दो आर्थिक पेकेज देकर ही मुक्त हो गई। यदि हमारे मध्यमवर्गीय भारतीय भी ‘खाओ, पीओ और खुश रहो’ वाली पाश्चात्य अवधारणा को अंगीकार कर लेते तो हमारी हालत तो अमरीका से भी गई गुजरी हो चुकी होती।
इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के लाभों के नाम पर हमारे असंख्य युवकों को भरी-भरकम वेतन वाली नौकरियाँ मिली हैं। इन युवकों में ऐसे युवक बड़ी संख्या में हैं जो निम्न मध्यम वर्ग से आए हैं और जिन्होंने इतने भारी भरकम वेतन की कल्पना भी कभी नहीं की थी। दूर क्यों जाऊँ? मेरे बेटे के पहले वेतन की रकम, मेरी पत्नी के वर्तमान वेतन की रकम से अधिक थी जबकि मेरी पत्नी की नौकरी को इक्कीसवाँ वर्ष चल रहा है। ऐसे परिवरों के बच्चों ने यदि धरती छोड़ दी हो या कि ‘खाओ, पीओ और खुश रहो’ वाली अवधारणा को अपना लिया हो तो ताज्जुब नहीं।
अचानक धनवान बन रहे ऐसे युवकों की संख्या बढ़ ही रही है। वेतन के लिफाफे की मोटाई से इनके पालकों की आँखें फट रही हैं और बोलती बन्द हो रही है। ऐसे पालक अपने बच्चों को कोई ‘आर्थिक परामर्श’ देने का अधिकार और साहस, दोनों ही खो रहे हैं। सो, ऐसे युवकों के लिए ‘आर्थिक स्वतन्त्रता’ का अर्थ ‘आर्थिक स्वच्छन्दता’ होने लगा है। वे बचत बिलकुल ही नहीं कर रहे हैं और बिना बात के, अनावश्यक चीजें खरीद रहे हैं। मेरे एक मित्र के बेटे के पास लगभग 25 टी शर्ट ऐसे हैं जिनकी तह भी उसने, खरीदने के बाद से अब तक नहीं खोली है। मेरे मित्र, उसके पिता ने दारिद्र्य का चरम देखा है। वह गर्मियों की छुट्टियों में मजदूरी कर, अपने स्कूल की, साल भर की फीस जुटाता था फिर भी उसे ‘पूअर ब्वायज फण्ड’ से मदद लेनी पड़ती थी। नई किताबें तो वह कभी नहीं खरीद पाया था। ऐसे पिता के बेटे द्वारा की गई ऐसी खरीदी, इन युवकों का चारित्रिक प्रतिनिधित्व ही करती है।
सो, मुझे लगा कि मन्दी के इस दौर में हमारी पारम्परिक भारतीय (आप इसे मध्यवर्गीय मानसिकता की) दो अवधारणाएँ मुझे समस्या का ‘शर्तिया निदान’ लगीं। पहली है-नियमित और निरन्तर बचत करो। तथा दूसरी है - अपनी आवश्यकताएँ कम रखो।
पहली अवधारणा पर मुझे कुछ ऐसा सूझा - नियमित बचत भी ऐसी हो कि आप तत्काल उसका उपयोग कर सकें। अर्थ जगत की भाषा में जिसे ‘केश लिक्विडिटी’ कहते हैं, वही। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आजकल बच्चे नौकरी पर लगते ही उससे फौरन ही असन्तुष्ट हो जाते हैं और बेहतर नौकरी की तलाश में जुट जाते हैं। यह सहज मनोवृत्ति बन गई है। इस तलाश की जानकारी यदि वर्तमान नियोक्ता को हो जाए तो वह, कानूनी सुरक्षा अपनाते हुए फौरन ही नौकरी से निकाल देता है। यदि दुर्भाग्य से ऐसा हो गया तो आपकी केश लिक्विडिटी आपको आपका अवमूल्यन होने से बचाएगी। अपनी चाहत के वेतन और शर्तों वाली नई नौकरी पाने के लिए आप प्रतीक्षा कर सकते हैं। यदि केश लिक्विडिटी नहीं होगी तो आपको तत्काल ही नौकरी की आवश्यकता होने के कारण सम्भव है, आपको पहले वाले वेतन से कम वेतन वाली नौकरी स्वीकार करनी पड़े। यह स्थिति आपको सदैव ही कचोटती रहेगी और आपका आत्म विश्वास हिल जाएगा। किन्तु यदि आपके हाथ में लाख-दो लाख रुपये हैं तो आप दो-चार महीने रुक कर प्रतीक्षा कर सकते हैं। मन्दी के नाम पर भी यदि आपकी नौकरी जाती है तब भी यह केश लिक्विडिटी आपको सर्वाधिक सहायक होगी।
दूसरी अवधारणा आपको हर हाल में खुश बने रहने में सहायक होगी। अपनी आवश्यकताएँ कम रखने से आपको बचत करने में अपने आप ही सहायता मिलेगी। आप हर हाल में मस्त रहेंगे और जिन्दगी का आनन्द लेते रहेंगे। वर्ना भगवान न करे कि आज आप ए.सी. में हैं और कल कूलर को भी तरसें!
मैंने ये दोनों बातें मेरे बेटे को बताईं और समझाईं। मुझे यह अनुभव कर अच्छा लगा कि उसे दोनों ही बातें न केवल तत्काल ही समझ में आ गईं अपितु वह इन उसने भरोसा दिलाया कि वह इन दोनों पर अमल भी करेगा। मेरे पास कोई कारण नहीं है कि उसके भरोसा दिलाने पर भरोसा न करूँ।
मुझे लगता है कि अवधारणागत स्तर पर यदि हम भारतीय बने रहें तो कोई भी संकट हमें डिगा नहीं सकता। किन्तु यदि हम ‘देस’ में रहकर ‘परदेस’ के रंग-ढंग अपनाएँगे तो वर्णसंकर हो जाने के संकट झेलने और भुगतने को अभिशप्त होंगे ही।
मुझे यह ठीक वैसा ही लग रहा है कि हम अंग्रेजी वापरें, अंग्रेजीयत नहीं। वैश्वीकरण, उदारीकरण से मिले अवसरों के लाभ तो उठाएँ किन्तु भारतीय बन कर और भारतीय बने रहकर ही।
मुमकिन है, मेरी सोच आधी-अधूरी हो। फिर भी मैं, मन्दी के मारों को अपनी यह, बिना माँगी सलाह दे रहा हूँ।
मानें तो आपकी मर्जी। न मानें तो ‘व्हाट गोज आफ माई फादर’?
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यह मेरा सौभाग्य है कि ज्ञान जी के उस लेख पर मेरी टिप्पणी दर्ज थी और आज आपके इस पुछल्ले लेख पर भी, चूकि मै अनियमित पाठक हूँ हमेंशा पढ़ना नही होता है, दोनो लेखा पर नजर पड़ी जैसे ये लेख मेरे लिये ही लिखे गये है।
ReplyDeleteयह यही है कि भारतीय जीवन शैली विश्व के सभी देशो में सर्वश्रेष्ट जीवन शैली है, यहाँ व्यक्ति अपने परिवार के लिये कमाता है जबकि पाश्चत देशो में सिर्फ अपने लिये यही कारण है कि आज वे मंदी से जूझ रहे है। और तो और जो भारतीय परिवार पश्चात अनुकरण कर रहे है उनका भी यही हाल है।
आप का आलेख अक्षरश सत्य है। लेकिन इस देश में बहुत लोग हैं जो सारा जीवन न्यूनतम मजदूरी पर काट देते हैं माह में 15-20 दिन जिन्हें रोजगार मिला होता है। वे तो अपनी रोज की रोटी-पानी का ही जुगाड़ कर पाते हैं और हमेशा कर्ज में डूबे रहते हैं। वे बचाते भी हैं तो कर्ज चुकाने को। देश में बहुसंख्या ऐसे ही लोगों की है। मंदी का उन पर ही सब से बड़ा असर पड़ा है।
ReplyDeleteशानदार लेख. लेकिन हमें हमारे आस पास कहीं मंदी का असर नहीं दिख रहा है. यहाँ तक की मजदूरी करने वालों में भी नहीं. कभी कभी लगता है की यह सब बेकार का हल्ला हो रहा है परन्तु शहरों में तो असर है क्योंकि नौकरियों में कटौती जो हो रही है. हम लोगों की क्रय शक्ति बरकरार है अमरीकियों की भले कम हो गयी हो जिसे हम मंदी कह रहे हैं.
ReplyDeleteवल्कल भैया और उनके साथी कम से कम ऐसी कंपनियों में काम कर रहे हैं जहाँ नियमों के मुताबिक़ कॉस्ट कटिंग की जाती है। लेकिन, मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ मंदी के इस दौर में केवल दिल कडा़ करके ही काम किया जा सकता है। क्योंकि, मीडिया में तो मंदी मालिक का फ़ायदा करवाने के लिए ही आई लग रही है। यहां तो महीनों से लोगों को तनख्वाह नहीं मिल रही है, 10 से 12 घंटे काम करवाया जा रहा है। अगर आपने नहीं किया तो मालिक के लिए और चांदी वो बचे लोगों से दोगुना काम करवा लेगा या ट्रेनिंग के नाम पर मुफ़्त में....
ReplyDeleteअनुभव के दो बोल सुने, अच्छा लगा… पूरी तरह से सहमत…
ReplyDeleteभारत में तो दरअसल बहती गंगा में हाथ धोया जा रहा है। कंपनी मालिक और प्रबंधन को यह बेहतरीन मौका मिला है कि वो इस 'मंदी' के नाम पर जो चाहे कर ले, जैसे भी चाहे पैसा बचाने के तरीके लागू करे, नौकरी बवाने के लिए कोई भी व्यक्ति विरोध करने से रहा। अजीब अजीब से रास्ते अपनाए जा रहे हैं पैसे बचाने के लिए। टॉयलेट पेपर तक में कटौती की जा रही है।
ReplyDeleteजिन लोगों से प्रबंधन परेशान है उनसे पीछा छुड़ाने का उनको बाहर का रास्ता दिखाने का इससे बेहरत मौका फिर कभी नहीं मिलेगा। कोई भी इस मौके को खोना नहीं चाहता।
मंदी हो न हो पर उसका हल्ला ज्यादा है। कहीं शेर आया शेर आया वाली बात न हो जाए।
आज का आम भारतीय अभी भी उसी संस्कृति से जुडा है जो सादा जीवन और उच्च विचार की शिक्षा देती है। इसी लिए कुछ ऐ.टी. के कर्मचारियों को छोड़ कर सभी नौकरपेशा अपनी सीमाओं में ही बंधे रहे हैं और उनपर किसी भी संकट के बादल नहीं छाए इस मंदी के बाज़ार में भी।
ReplyDeleteयदि हम भारतीय बने रहें तो कोई भी संकट हमें डिगा नहीं सकता। किन्तु यदि हम ‘देस’ में रहकर ‘परदेस’ के रंग-ढंग अपनाएँगे तो वर्णसंकर हो जाने के संकट झेलने और भुगतने को अभिशप्त होंगे ही।
ReplyDeleteजब मोटा लिफ़ाफ़ा मिल रहा होता है तो ये वर्णसंकर प्रजाति भौतिक साधनों को जुटाने में ही अपनी सारी कमाई लगा देती है क्यों कि पश्चिम से आने वाला पैसा वहाँ से अकेले नहीं आता, बल्कि अपने साथ वहाँ की अपसंस्कृति भी लाता है। मन्दी के बाद इन्हें ही झेलना पड़ता है।
बिल्कुल सही लिखा है। डुबाने वाला चार्वाक का ऋण लो और घी पियो वाला सिद्धात ही है! आवश्यकता कम रखना और बचत में ही बचत है।
ReplyDeleteअजी हम विदेश मै रह कर भी भारतीय बने है, ओर यहां भी मंदी आई है, लेकिन हमे इतनी दिक्कत नही होती जितनी इन गोरो को, क्यो कि हम लोग अपनी उस गरीबी को नही भुळे, जो हम ने देखी है, किस तरह हमारे मां बाप ने मेहनत कर के हमे इतना बडा किया, लेकिन भारत मै भी बहुत से नोजवान है जो यह सब बाते भुल गये है, ओर आज जितना कमाते है, उसे लुटा कर ही सांस लेते है, मां बाप को भुल से गये है.
ReplyDeleteधन्यवाद
भारतीय संस्कृति , भारतीय संस्कार इंसान को किसी भी परिस्थिति का सामना करने का बल देते हे, हमारी बचत की मानसिकता तो कारण हे ही मंदी से सामना करने की मगर यहा पारिवारिक जोड़ भी इतना मजबूत हे की इंसान को कोई ना कोई सहारा मिल ही जाता हे जैसा की आपने अपने बेटे से कहा " हम साथ हे तुम्हारे" तसल्ली मिलती ही इंसान को की कोई हे उसके साथ जो हर हालत मे उसका साथ निभाएगा,यही भावना मन से टूटने से बचाती हे इंसान को और हिम्मत देती हे परिस्थिति का सामना करने की......अच्छा लेख ...धन्यवाद
ReplyDeleteबैरागी जी बिल्कुल सटीक टिप्पणी आपने की है । भले ही अमेरिका ने भारत के मध्यवगॆ को मंदी के लिए दोषी माना था लेकिन उसे पता लग गया कि मंदी क्या होता है । औऱ मंदी से भारतीय व्यवस्था बच क्यो गई । इसी मंदी ने पूंजीवाद को समाजवाद के आगे घूटने टेकने पर मजबूर किया । बरना पूंजीवाद का ताना तो आसमान छू रहा था वह कैसे गिर गया किसी को पता नही चला । लेकिन आम भारतीय की बचत की जो सोच रही उसी ने भारतीय व्यवस्था को बिगरने नही दिया । बरना यहां के भी पूजीपति और अच्छी कम्पनी में काम करनेवाले वाले लोगो ने भी वही करने पर उतारू हो चले थे । जेट एयरवेज में काम करनेवालो को पता लग गया ...कल तक इसी कम्पनी में काम करनेवाले लड़के लड़किया लोगो को पैसा खचॆ करने का अक्ल सिखा रही थी लेकिन ज्यो ही उन्हे कम्पनी से निकाल-बाहर किया ... दिन में तारे दिखने लगे । धन्यवाद
ReplyDeleteमेरो नाम केभिन एडम्स, बंधक ऋण उधारो एडम्स तिर्ने कम्पनी को एक प्रतिनिधि, म 2% ब्याज मा ऋण दिनेछ छ। हामी विभिन्न को सबै प्रकार प्रदान
ReplyDeleteऋण। तपाईं यस इमेल मा अब हामीलाई सम्पर्क गर्न आवश्यक छ भने: adams.credi@gmail.com