क्या धुलेण्डी और क्या रंग पंचमी! दोनों ही इस बार लगभग बेरंगी निकलीं। कोई दूसरा त्यौहार होता तो इतना नहीं खटकता किन्तु होली ही तो वह इकलौता त्यौहार है हमारा जिसमें सब एक रंग हो जाते हैं। बाकी सारे त्यौहार तो कहीं न कहीं सीमा रेखा खींचे रखते हैं। होली ही तो वह त्यौहार है जो सबको निर्बन्ध, उन्मुक्त होने का और मुक्त कण्ठ से ‘होली है’ चिल्लाने का अवसर समान रूप से उपलब्ध कराता है। त्यौहारों और उत्सवों की भीड़ में यही तो एकमात्र समाजवादी त्यौहार है! किन्तु इस बार इसके रंगों की शोखी में और लोगों के उत्साह में एकदम कमी अनुभव हुई।
धुलेण्डी को सवेरे अचानक ही तबीयत गड़बड़ हो गई। रक्त चाप अचानक ही बढ़ गया। इतना कि बिस्तर पकड़ना पड़ा। दीपावली की तरह होली भी हमारी कॉलोनी में सामूहिक रूप से मनती है। पूरी कॉलोनी के पुरुष पूरी कॉलोनी में घर-घर जाकर होली खेलते हैं और मुँह मीठा करते हैं। प्रत्येक गली में, मकानों के सामने मिठाइयों और नमकीन पकवानों की टेबलें सज जाती हैं।
टेबलें तो इस बार भी उतनी ही सजीं लेकिन आने वालों की संख्या लगभग एक तिहाई रह गई। उन्हीं में से कुछ कृपालुओं ने अन्दर आकर मुझे रंग लगाया। मुझे लगता रहा, बाहर सब कुछ परम्परानुसार ही चल रहा होगा। किन्तु कोई पाँच-सात मिनिट में ही बड़ा बेटा वल्कल और मेरी उत्तमार्द्ध अन्दर आ गए। मैंने टोका - ‘दोनों अन्दर आ गए हो, बाहर, घर के सामने अपनी ओर से कौन खड़ा है?’ वल्कल ने कहा - ‘सब निपट गया पापा।’ मैंने अविश्वास से पूछा - ‘इतनी जल्दी? ऐसे कैसे?’ वल्कल ने जवाब दिया - ‘इस बार तो लोग आए ही नहीं।’ इस कॉलोनी में यह मेरी छठवीं होली थी। इससे पहलेवाले पाँच सालों में, हर बार हम लोगों को, आनेवालों का स्वागत करने में बीस-पचीस मिनिट लगते थे । उसके बाद भी लगता था कि कई लोग छूट गए हैं। किन्तु इस बार यह क्या हुआ? मुझे लगा कि मेरी तबीयत तो यह समाचार सुनने के बाद खराब होनी चाहिए थी।
लगभग पूरा दिन सोता रहा। किन्तु जब-जब भी आँख खुली, गली में आने-जानेवालों की हलचल ध्यान से सुनने की कोशिश करता रहा। मुझे निराशा मिली। मेरी गली के बच्चों के अलावा, हुड़दंगियों की एक भी टोली नहीं निकली। उधर टेलीविजन पर होली के सिवाय कुछ भी नहीं था। प्रत्येक चैनल पर होली के रंग, होली की बहार और होली की मस्ती छाई हुई थी। चैनलें तो सारे देश में होली की मौजूदगी की खबर दे रही थीं जबकि मेरी गली में सन्नाटा था।
रंग पंचमी तो इससे भी अधिक फीकी निकली। दिन भर घर में ही था। प्रतीक्षा करता रहा कि कोई न कोई तो रंग लगाने आएगा ही। लेकिन कोई नहीं आया। घबरा कर दो-एक बार गली में, इस छोर से उस छोर तक देखा - एक भी ऐसा संकेत या हलचल नहीं जो रंग पंचमी होने का अहसास कराए।
होली पर दोनों बेटे घर आए जरूर किन्तु मानो खानापूर्ति करने। वल्कल एक बहुराष्ट्रीय कम्प्यूटर कम्पनी में काम करता है। वह शनिवार की रात आठ बजे पहुँचा। आया बाद में, जाने की तैयारी पहले करने लगा। उसे धुलेण्डी के दिन ही लौटना था। सो, कौन सी ट्रेन, कितने बजे जाएगी, बार-बार यही चिन्ता करता रहा। इतना ही नहीं, नौकरी का काम भी लेकर आया जिसे शनिवार और रविवार की रातों में देर तक लेप टॉप पर निपटाता रहा।
छोटा बेटा रविवार रात कोई दस बजे पहुँचा। वह इंजीनीयरिंग के तीसरे साल (छठवें सेमेस्टर) में है। कोचिंग क्लास और डांस क्लास की एक प्रतियोगिता के कारण वह जल्दी नहीं आ पाया। वह आया तब तक मोहल्ले की होली जल चुकी थी। वह लस्त-पस्त हालत में आया था। आते ही जो सोया तो धुलेण्डी की दोपहर में उठा। तब तक सामूहिक होली मिलन की खानापूर्ति हो चुकी थी और गली में सन्नाटा छा चुका था। वल्कल तो चूँकि सामूहिक होली मिलन में घर का प्रतिनिधित्व कर रहा था सो उसे तो रंग लगा। किन्तु तथागत पर तो रंग का एक छींटा भी नहीं पड़ा।
घर में आनन्द तो छाया हुआ था किन्तु होली का नहीं, दोनों बेटों के आने का। मुझे लगा (और अभी भी लग रहा है) कि सब कुछ बदल रहा है। आनेवाले दिनों में, त्यौहारों पर बच्चे आएँ या न आएँ किन्तु बच्चों का घर आना ही त्यौहार होगा।
धुलेण्डी को मोबाइल दिन भर ‘बीप-बीप’ करता रहा। धड़ाधड़ एसएमएस आए जा रहे थे। एसएमएस के शुभ कामना सन्देश मुझे नहीं रुचते। फिर भी, भेजनेवाले का नाम जानने की उत्सुकता के अधीन एसएमएस पढ़ता रहा। सन्देशों की भीड़ में एक सन्देश ऐसा मिला जिसमें होली की बधाई के स्थान पर नसीहत दी गई और आग्रह किया गया था कि इस नसीहत को अधिकतम लोगों तक पहुँचाऊँ। नसीहत इस प्रकार थी - ‘कृपया होली, रंग पंचमी पर रंग खेलने से बचें और दूसरों को भी निरुत्साहित करें। अपना एक और अमूल्य दिन व्यर्थ न जाने दें। कामकाजी (प्रोडक्टिव) बनें। समय, ऊर्जा और पानी नष्ट न करें। कृपया इस सन्देश को अधिकाधिक लोगों को फारवर्ड भी करें।’
बदलाव की बयार चल पड़ी है। त्यौहार खानापूर्ति बन कर रह जानेवाले हैं। टेलीविजन की चैनलें और रेडियो के कार्यक्रम ही हमें त्यौहारों की सूचना देंगे और वे ही हमारे त्यौहार मनवाएँगे भी।
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बस, बने रहें त्यौहार!!
ReplyDeleteआपको पढ़ा, अच्छा लगा.
विगत कुछ दिनों से व्यस्तता के चलते सक्रियता में व्यवधान हुआ है, क्षमाप्रार्थी हूँ, जल्द ही सक्रियता पुनः हासिल करने का प्रयास है.
अनेक शुभकामनाएँ.
मौजूदा व्यवस्था का संकट हम से त्यौहार छीन रहा है। बहुत कुछ छीन चुका है। हम उस के प्रति गंभीर नहीं। होश तब आए जब सब कुछ छिन चुका हो।
ReplyDeleteabki bar aapse milane jaroor aayenge ji...
ReplyDeleteआपको पढ़ना अच्छा लगता है।
ReplyDelete"आनेवाले दिनों में, त्यौहारों पर बच्चे आएँ या न आएँ किन्तु बच्चों का घर आना ही त्यौहार होगा।" आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत ।
शुमकामनायें।