सूचनाएँ तो इस बार भी मुझे बहुत सारी मिलीं किन्तु इस बार मुझे, हिन्दी के सन्दर्भ में बोनस भी मिला। यह बोनस था - इन्दौर के युवा कर सलाहकार श्री मनीष डफरिया को सुनने का रोमांचक और आश्वस्तिदायक अनुभव।
मनीष अभी चालीस पार भी नहीं हुए होंगे। उनकी जड़ें रतलाम में ही हैं। उनका जन्म रतलाम में ही हुआ। उनके बारे में न तो पहले कुछ सुना और न ही उन्हें देखा। बस, दैनिक भास्कर में उनकी कुछ टिप्पणियाँ अवश्य पढ़ी थीं। किन्तु मुझ जैसा कुटिल व्यक्ति, ऐसी टिप्पणियों से आसनी से प्रभावित नहीं होता। सो, मैने मनीष का नोटिस कभी नहीं लिया। किन्तु सात मार्च को उनका व्याख्यान सुनने के बाद उनकी अनदेखी कर पाना न तो उस समय सम्भव हो पाया और न ही आगे हो सकेगा।
स्थिति यह रही कि कार्यक्रम समाप्ति के बाद मनीष से मिलने के लिए मैं देर तक रुका रहा और उनके उद्बोधन के लिए उन्हें विशेष रूप से बधाइयाँ दीं।
अपने उद्बोधन के पहले ही वाक्य से मनीष ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। मुझे उम्मीद थी कि अपनी बात कहने के लिए वे अंग्रेजी का ही सहारा लेंगे जिसे समझने के लिए मुझे अतिरिक्त रूप से सतर्क/सावधान रहना पड़ेगा और अतिरिक्त परिश्रम भी करना पड़ेगा। किन्तु मनीष ने सुखद रूप से मुझे नाउम्मीद किया। वे हिन्दी में ही न केवल शुरु हुए अपितु आज के दौर के युवाओं की अपेक्षा बहुत ही सुन्दर और लगभग निर्दोष हिन्दी में बोले। किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने अंग्रेजी से परहेज किया। वे अंग्रेजी में भी बोले और पूरी सहजता और धड़ल्ले से बोले। कोई पचहत्तर मिनिट का उनका व्याख्यान सचमुच में धाराप्रवाह था। वे या तो साँस लेने के लिए रुके या पानी पीने के लिए या फिर बिजली चले जाने के कारण। किन्तु केवल धराप्रवहता ही उनके व्याख्यान की विशेषता नहीं थी। स्पष्ट उच्चारण, धीर-गम्भीर स्वर, शब्दाघात का उन्होंने सुन्दर उपयोग किया। उन्हें शायद भली प्रकार पता था कि उनका विषय भाषा के सन्दर्भ में नीरस और ‘निर्जीव तकनीकी’ है। सो, रोचक उदाहरणों से उन्होंने इन दोनों दोषों को सफलतापूर्वक दूर किया। यही कारण था कि सवा घण्टे के उनके भाषण में लोगों को झपकी लेने का एक भी क्षण नहीं मिल पाया। उन्होंने श्रोताओं को भरपूर गुदगुदाया और लोगों की मुक्त कण्ठ वाहवाही लूटी। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे सहायक वक्ता थे किन्तु प्रमुख वक्ता के रूप में पहचाने और स्वीकार किए गए। किन्तु जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह थी - उनका व्याख्यान, अधिकार भाव और आत्म विश्वास से लबालब था। ये दोनों तत्व उन्हीं व्यक्तियों के व्याख्यानों में आ पाते हैं जिन्हें अपने विषय की केवल विशेषताएँ ही नहीं, कमियाँ और दोष भी मालूम हों। विषय मनीष पर क्षण भर भी हावी नहीं हो पाया। उल्टे, पूरे पचहत्तर मिनिट तक वे विषय को, एक कुशल नट की तरह, मन माफिक अन्दाज में अंगुलियों पर नचाते रहे।
बजट जैसे, तकनीकी शब्दावली वाले विषय पर निर्दोष हिन्दी में ऐसे अधिकार भाव और आत्म विश्वास से धाराप्रवाह बोलते हुए मैंने अब तक किसी को नहीं देखा। सो, मनीष डफरिया तो मेरे लिए ‘हिन्दी के आश्वस्ति पुरुष’ बन कर सामने आए। यही मेरे लिए बोनस रहा। हिन्दी की वर्तमान दुर्दशा को लेकर मेरे मन में जो निराशा, क्षोभ और आक्रामक-आवेश उपजता रहता है, मनीष के इस व्याख्यान से इस सबमें थोड़ी देर के लिए ही सही किन्तु भरपूर कमी मैने अपने आप में अनुभव की।
मुझे बाद में मालूम हुआ कि मनीष को ऐसे व्याख्यान देने का यथेष्ठ अभ्यास है और उनके श्रोताओं की संख्या प्रायः की ढाई-तीन सौ तो होती ही है। वे इन्दौर स्थित, आई आई एम में, आयकर विषय के प्राध्यापक भी हैं।
मनीष की सफलता और शिखरों पर उनकी कीर्ति पताका का लहराना सुनिश्चित और असंदिग्ध है। उम्मीद करें कि वे हिन्दी का हाथ और साथ कभी नहीं छोड़ेंगे अपितु हिन्दी को तथा हिन्दी के माध्यम से खुद को विशिष्ट रूप से स्थापित कर वैसी ही अपनी पहचान भी बनाएँगे।
मनीष! अच्छी हिन्दी आपकी और आप हिन्दी की पहचान बनें। यह आज की आवश्यकता है।
शुभ-कामनाएँ।
-----
आपकी बीमा जिज्ञासाओंध्समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
राजेश डफरिया...डफरिया फैमिली ऑफ रतलाम...पूरी चार्टड एकाउन्टेन्टस की ही फैमिली है..मनीष भी उसी परिवार के हैं...अच्छा लगा आपके माध्यम से उनके विषय में सुनकर.
ReplyDeleteरश्क हो रहा है मनीष से। हम भी क्यूं न सीए हुए
ReplyDeleteबहुत दिन बाद आपका ब्लाग देखा। मनीश जी के बारे मे जानकर बहुत खुशी हुयी। धन्यवाद
ReplyDeleteयह वाकई बेहद अफसोसजनक है िक हमारे अनेक साथी जो ऊंचे ओहदों पर हैं वे सामान्य बोलचाल में भी आंग्ल भाषा को प्रयुक्त करने में अपनी शान समझते हैं। और यह तो मेरे िलए अकसर ही आश्चयर्िमिश्रत अवसाद का िवषय होता है िक इनमें से अिधकांश लोगों को तो ढंग से आंग्ल भाषा भी नहीं आती और उपर से तुरार् यह िक िहंदी तो जैसे ये जानते ही नहीं हैं। मैं िजस सं्थान में कायर्रत हूं उसी में मेरे एक सहयोगी का एक िकस्सा बताना चाहता हूं हाल ही में मैंने उनसे लंबी बातचीत की तो वे बार-बार इस बात पर जोर दे रहे थे िक हर व्यिक्त को अंग्रेजी आना िकतना आवश्यक है। जब मैंने उनसे यह कहा िक अंग्रेजी तो आना चािहए लेिकन क्या यह आवश्यक है िक हम उसका थोथा प्रदशर्न करते रहें। तो उन सज्जन का कहना था िक यह तो अितअावश्यक है। यह बात दीगर है िक न तो उन्हें आंग्ल भाषा ठीक से आती है और खैर िहंदी तो हमारे देश में अिधसंख्य लोगों को नहीं आती।
ReplyDeleteमनीषजी जैसे प्रतिभावान युवा से आपने रूबरू होने का अवसर दिया. आभार.
ReplyDeleteManish sir ki aadao per to hum pahele se hi fida thy pur aap bhi kuch kam nahi hai ( Bhagwan kare aapko apne ghar ka swami hone ki permission mil jaye ) hum bhagwan se prathana karte hai
ReplyDeleteManishji ke baare me jaan kar na sirf accha laga balki garva bhi hua...Dhanywaad.
ReplyDelete