यह घटना मेरे कस्बे में आठ मार्च को घटी। आठ मार्च याने अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस।
इन दिनों यहाँ नौंवीं और ग्यारहवीं कक्षाओं की परीक्षाएँ चल रही हैं। ये परीक्षाएँ स्थानीय स्तर पर हो रही हैं, बोर्ड स्तर पर नहीं। जैसा कि चलन हो गया है, नकल करने (और अध्यापकों द्वारा नकल कराने) का काम धड़ल्ले से चलता है। इसकी रोकथाम के लिए जाँच मण्डलियाँ घूम-घूम कर छापामारी करती रहती हैं। इसी क्रम में एक जाँच मण्डली ने, एक शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पर छापा मारा। वहाँ परीक्षा प्रारम्भ हुए दस-पाँच मिनिट ही हुए थे। एक-एक कमरे का चक्कर लगाने के बाद मण्डली के सदस्यों को सुखद आश्चर्य हुआ कि लगभग सवा दो सौ (नवमीं कक्षा की लगभग 150 और ग्यारहवीं कक्षा की लगभग 70) लड़कियों में से एक भी लड़की नकल नहीं कर रही थी।
किन्तु जाँच मण्डली की यह खुशी कुछ पल भी नहीं ठहर पाई। अचानक एक लड़की कसमसाई तो मण्डली के एक अनुभवी सदस्य को सन्देह हुआ। उसने लड़की को टोका और उसकी तलाशी ली। लड़की की जेबों में से अधिक नहीं, कोई पाँच-सात पर्चियाँ बरामद हुईं। बस! फिर क्या था? एक के बाद एक, सब लड़कियों की तलाशी ली गई तो सब हक्के-बक्के रह गए और सबके छक्के छूट गए। लगभग प्रत्येक लड़की के पास से, नकल करने के लिए तैयार की गई एक से अधिक पर्चियाँ बरामद हुईं। सब पर्चियों को एकत्र किया गया गया तो विद्यालय के कार्यालय की, कचरे की दो टोकरियाँ (डस्ट बिन) लबालब भर गईं।
प्रकरण तो खैर एक भी लड़की का नहीं बना क्योंकि नकल करते हुए कोई नहीं पकड़ी गई थी किन्तु जाँच दल के सदस्य हतप्रभ थे। घटना का विवरण सुनाते हुए उनमें से एक ने मुझसे कहा - ‘नकल करने के मामले में लड़कों को दुस्साहस की सीमा छू जाते देखना तो अब हमारी आदत में आ गया है। किन्तु लड़कियाँ ऐसा साहस प्रायः नहीं करतीं। लेकिन यहाँ? बाप रे! इन्होंने तो लड़कों को एक मुश्त, थोक के भाव, पीछे छोड़ दिया। यहाँ तो सबकी सब साहसी निकलीं।’
यह समाचार अलगे दिन अखबारों में तीन कॉलम शीर्षक सहित प्रकाशित हुआ। मुझे अपना जमाना याद आ गया। तब यदि कोई लड़का नकल करते पकड़ा जाता तो उसके माँ-बाप लज्जा के मारे, दो-तीन दिनों तक सहज नहीं हो पाते थे और लड़के की दुर्गत हो जाती थी। किसी लड़की के नकल करने की बात तो तब कल्पनातीत ही होती थी। आज मैं सोच रहा हूँ कि अखबारों में यह खबर पढ़कर कितने पालकों को शर्म आई होगी और कितनों ने अपनी लड़कियों को टोका होगा।
मेरी चिन्ता सुन कर मेरी उत्तमार्द्ध ने अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से कहा - ‘माँ-बाप पूछते और उन्हें शर्म तब आती जब उन्होंने अखबार पढ़ा होगा। मँहगाई के इस जमाने में अखबार खरीद पाना उनके बस की बात नहीं। और रही पढ़ने की बात! तो उन बेचारों को दो जून की रोटी और अपनी बेटी की फीस की जुगाड़ से फुर्सत मिले तो अखबार पढ़ें। और योग-संयोग से यदि किसी ने पढ़ भी लिया होगा तो यही कहा होगा कि उनकी बेटी ने कौन सा अनोखा काम कर दिया? सारा जमाना यही तो कर रहा है?’
मैं निरुत्तर हो गया।
यह सब मेरे कस्बे में हुआ और ऐन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हुआ।
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