मेरे कस्बे में आए दिनों किसी न किसी साधु-सन्त के प्रवचन आयोजित होते रहते हैं। जब-जब भी ऐसा होता है, मेरी शामत आ जाती है।
साधु-सन्त के अथवा/और उनके मत के अनुयायी आग्रह करते हैं कि मैं ऐसे प्रवचनों में नियमित रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराऊँ। कोई पन्द्रह बरस पहले तक मैं ऐसा कर लिया करता था। अब नहीं करता। कर ही नहीं पाता।
बरसों तक ऐसे प्रवचन सुनने के बाद मुझे लगने लगा कि कोई भी साधु-सन्त नया कुछ भी नहीं कह रहा है। सनातन से चली आ रही, चिरपरिचित बातें दुहराई जा रही हैं। केवल भाषा का, वक्तृत्व शैली का और प्रस्तुति का अन्तर होता है। बातें सबकी सब, वही की वही। कुछ चीजों में जरूर अन्तर आया। ऐसे आयोजनों की संख्या बढ़ने लगी है, आयोजन अधिक व्यवस्थित होने लगे हैं, आयोजनों का प्रचार-प्रसार अधिक व्यवस्थित तथा अधिक आकर्षक तरीकों से होने लगा है। प्रचार-प्रसार में पहले आयोजन को प्राथमिकता दी जाती थी, अब सम्बन्धित साधु-सन्त को दी जाती है। याने, प्रचार अभियान व्यक्ति (साधु-सन्त) केन्द्रित हो गया है। साधु-सन्तों के नाम पर उनके अनुयायियों के संगठन बनने लगे हैं। आयोजनों की भव्यता और इस भव्यता के प्रदर्शन को प्रमुखता दी जाने लगी है। पाण्डालों में भीड़ बढ़ने लगी है। किसी-किसी साधु-सन्त के प्रवचानों में पाण्डाल छोटा पड़ जाता है।
एक घटना ने मेरा मोह-भंग न किया होता तो मैं भी इस सबका हिस्सा अब तक बना रहता। कोई पन्द्रह वर्ष पहले एक सन्त के, सात दिवसीय प्रवचन सुनने गया था। दो दिन तक तो सब ठीक-ठाक चला। तीसरे दिन गाड़ी पटरी से उतर गई। बिना किसी सन्दर्भ-प्रसंग के सन्तश्री ने अकस्मात कहना (इसे ‘सूचित करना’ कहना अधिक उचित होगा) शुरु कर दिया कि उनके अनुयायियों को आयकर विभाग के छापों का डर नहीं सताता। सन्तश्री के अनुसार, अनुयायियों का कहना था कि उन्होंने, सन्तश्री के चित्र अपने विभिन्न कमरों में और स्नानागारों के बाहर लगा रखे हैं। आयकर विभाग वाले जब-जब भी आते हैं, तब-तब वे, उन कमरों, स्नानागारों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते। मुझे लगा, ये सन्त नहीं, साधु वेश में आयकर विभाग से सेटिंग कराने वाला कोई कुशल और प्रभावी मध्यस्थ है।
एक और सन्त की कथनी और करनी में दुस्साहसपूर्ण अन्तर देखकर मैं हतप्रभ रह गया। विचित्र शैली में व्याख्यान देनेवाले ये सन्त अपने प्रत्येक प्रवचन में राजनीति को शौचालय निरुपित करते। किन्तु, उनके प्रवास के दौरान एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उनके हाथों किसी राजनेता का सम्मान न हुआ हो। इन सन्तश्री ने मेरे कस्बे से प्रस्थान का अपना निर्धारित कार्यक्रम एक-एक कर पूरे तीन दिन स्थगित किया। वे चाहते थे कि राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर का कोई न कोई राजनेता उनके प्रस्थान के समय उपस्थित हो, उन्हें विदा दे। इसके लिए उन्हें मोबाइल पर एक के बाद एक अनेक राजनेताओं से बात करते देख कर मुझे गहरी निराशा हुई।
ये और ऐसे ही कुछ प्रसंग ऐसे रहे कि मैंने साधु-सन्तों के ऐसे प्रवचनों में जाना बन्द करना ही श्रेयस्कर समझा। सो, अब मैं ऐसे प्रवचन सुनने नहीं जाता और लोगों से चर्चा करने के बाद अनुभव करता हूँ कि मेरा निर्णय बिलकुल सही है।
लोग मुझसे पूछते हैं - ‘आप प्रवचन सुनने नहीं गए?’ मैं प्रति प्रश्न करता हूँ - ‘आप गए थे?’ वे हाँ में उत्तर देते हैं तो मैं पूछता हूँ - ‘महाराजजी की कौन सी बात आपको अच्छी लगी?’ जवाब मिलता है - ‘बात तो याद नहीं लेकिन महाराजजी व्याख्यान बहुत अच्छा देते हैं।’ मैं पूछता हूँ - ‘महाराजजी का कौन सा उपदेश आप अपने आचरण में उतार रहे हैं?’ जवाब मिलता है -‘उनका काम है कहना, अपना काम है सुनना। उन्होंने कह दिया, अपन ने सुन लिया। यह आचरण बीच में कहाँ से आ गया?’ मैं पूछता हूँ - ‘जब आप उनकी बात मानते नहीं तो सुनने क्यों जाते हैं?’ जवाब मिलता है - ‘जाना चाहिए। सब जाते हैं सो अपन को भी जाना चाहिए। नहीं जाएँगे तो लोग क्या कहेंगे? वहाँ जाकर आप भले ही कुछ मत सुनो। पर सबको नजर आना चाहिए कि आप धार्मिक हो, वहाँ गए हो।’ ऐसे जवाब सुनकर मुझे निराशा होती है।
मेरा विश्वास है कि इस देश के केवल सौ साधु-सन्त तय करलें तो देश की दशा और दिशा बदल सकती है। किन्तु एक भी सन्त ऐसा करने को तैयार नजर नहीं आता। मैं अनुभव करता हूँ कि सब अपने आप को, बड़ी सावधानी से केवल उपदेश तक सीमित रखते हैं, उपदेश से आगे बिलकुल नहीं बढ़ते। वे चाहें तो अतिक्रमण न करने, कर-चोरी न करने, यातायात के नियमों का पालन करने, वृक्षारोपण करने, पोलीथीन का उपयोग न करने जैसी ज्वलन्त बातों के लिए अपने अनुयायियों को संकल्पबद्ध कर सकते हैं। किन्तु एक भी साधु-सन्त यह जोखिम लेने को तैयार नजर नहीं आता। इन बिन्दुओं पर कुछ सन्तों से मेरी विस्तृत बात हुई। सबने निराश किया। मेरी धारणा है कि ये सब डरते हैं कि यदि इन्होंने लोगों को संकल्पबद्ध करना शुरु कर दिया तो इनके पाण्डाल खाली रह जाएँगे। कभी-कभी लगता है, सब अपनी-अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं।
मेरे एक आत्मीय, अपने समाज के धार्मिक आयोजनों की व्यवस्थाएँ अत्यन्त सतर्कता, चिन्ता, समर्पण और निष्ठा से करते हैं। कभी-कभी ये आयोजन एक-एक माह की अवधि के होते हैं। वे अपना काम-धन्धा छोड़ कर आयोजन की व्यवस्थाएँ देखते हैं। मैं ने जब-जब उनसे कहा - ‘आप तो प्रतिदिन महाराजजी के प्रवचन सुनते हैं। आप भाग्यशाली हैं जो आपको इतना धर्म-लाभ होता है।’ तब-तब (हाँ, प्रत्येक बार) उन्होंने कहा - ‘मैं कोई व्याख्यान-आख्यान नहीं सुनता। व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी लेता हूँ, सो व्यवस्थाओं तक ही सीमित रहता हूँ। बाकी सब फालतू बाते हैं। सब धतिंगेबाजी है।’ मैं हतप्रभ रह जाता हूँ और हर बार कहता हूँ - ‘आप सचमुच में धार्मिक हैं। इतनी स्पष्टता तथा ईमानदारी से सच बोल रहे हैं और अपना धर्म निभा रहे हैं।’
लोगों के आग्रह के बाद भी मैं प्रवचन सुनने नहीं जाता हूँ तो वे कहते हैं - ‘आप अधर्मी और धर्म विरोधी हैं।’ मैं प्रति प्रश्न करता हूँ -‘मैं प्रतिदिन अपने घर में देव पूजा करता हूँ, हनुमान चालीसा, आदित्यहृदय स्तोत्र और श्रीगणेश अथर्वशीर्ष का तथा प्रति मंगलवार और शनिवार को सुन्दरकाण्ड का पाठ करता हूँ। वैष्णव सम्प्रदाय का हूँ सो तुलसीमाला पहनता हूँ। फिर भी मैं अधर्मी और धर्म विरोधी हूँ?’ वे कहते हैं - ‘क्या गारण्टी कि आप सच बोल रहे हैं? आपको यह सब करते हमने तो एक बार भी नहीं देखा!’ मैं कहता हूँ - ‘आप किसी भी दिन, अकस्मात चेकिंग कर लीजिए।’ वे कहते हैं -‘हमें अब यही काम रह गया है?’ मैं कहता हूँ -‘आप न तो मेरी बात पर विश्वास करने को तैयार हैं और न ही चेकिंग करने को। बताइए! आपकी तसल्ली के लिए मैं क्या करूँ?’ मुझे उत्तर मिलता है - ‘आप कहते हो तो मान लेते हैं। पर आप धार्मिक दिखते तो नहीं।’
मुझे लगता है, लोगों की इसी बात में हमारे साधु-सन्तों के प्रवचन आयोजनों का लक्ष्य उजागर हो जाता है। लोग धार्मिक बनें, इसमें किसी की रुचि हो न हो, लोग धार्मिक दिखें, इसमें सबकी रुचि अवश्य है। यह भी एक बड़ा कारण है जो मुझे ऐसे आयोजनों में जाने से रोकता है। मैं आचरण में, धार्मिक होने में विश्वास करता हूँ, प्रदर्शन में, धार्मिक दिखने में नहीं।
ऐसे क्षणों में मुझे विवेकानन्द याद आते हैं जिन्होंने साधु-सन्तों की अकर्मण्य सामाजिक भूमिका के प्रति असन्तोष प्रकट करते हुए कहा था कि देश के साधु-सन्तों को कृषि कार्य में लगा देना चाहिए और जिस किसान के पास बैल न हों, वहाँ बैल की जगह साधु-सन्तों को जोत देना चाहिए। विवेकानन्द का कहना था कि (उस समय) देश के प्रत्येक गाँव में औसतन तीन साधु पाए जाते हैं। ये साधु यदि इन गाँवों को अक्षर-ज्ञान देना शुरु कर दें तो पूरा देश मात्र एक महीने में साक्षर हो जाए।
हिन्दी साहित्य का भक्ति-काल, सामाजिक चेतना और सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भों में साधु-सन्तों की नेतृत्ववाली भूमिका का सुन्दर उदाहरण है। साधु-सन्तों की बातों को लोग चूँकि श्रद्धा-भाव से सुनते हैं, इसलिए सामाजिक बदलाव में वे (साधु-सन्त) चमत्कारी भूमिका निभा सकते हैं।
माकपा के पूर्णकालिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील लेखक जसविन्दरसिंहजी गए दिनों रतलाम आए थे। मैं उनके लेखों का मुरीद हूँ। उनसे मुलाकात हुई और ऐसी ही तमाम बातें हुईं तो उन्होंने प्रख्यात शायर मुनव्वर राना का यह शेर मुझे थमा दिया -
ये शेख-ओ-बरहमन हमें अच्छे नहीं लगते।
जितने हम हैं, ये उतने भी सच्चे नहीं लगते।
यह भली भाँति जानते हुए कि सभी साधु-सन्त एक जैसे नहीं होते। अपवाद सब जगह होते हैं और मैंने चीजों का साधारीकरण करने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए-मेरी धारणाएँ, मेरे विश्वास, मेरे निष्कर्ष मेरे साथ।
मैं जैसा भी हूँ, हूँ। मैं ऐसा ही अधर्मी और धर्म विरोधी ही ठीक हूँ।
आज मेरा चौंसठवॉं जन्म दिनांक है। मैं स्वयम् को यही उपहार दे रहा हूँ।
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जन्म दिवस की बहुत बहुत बधाई विष्णु भैया।सन्तो के प्रवचनों से आपका कथन हज़ार गुना प्रभावशाली और सच है।
ReplyDeleteतुम जियो हज़ारो साल,
साल के दिन हो पचास हज़ार्॥
जन्मदिनांक की बधाई!
ReplyDeleteरहा सवाल प्रवचन का, तो मेरे एक मित्र हैं. यदि उन्हें ऐसे पंडाल में बिठा दिया जाए तो वो भारत क्या, विश्व के तमाम साधुओं पर भारी पड़ेंगे प्रवचन के मामले में. पर उन्हें न आडंबर आता है, न लोगों (माने, भक्तों) को बेवकूफ़ बनाना.
उनका नाम है विष्णु बैरागी. :)
आपको जन्म दिवस की बहुत बहुत बधाई .. साधु और संतो को जितनी लोकप्रियता मिलती है .. उसके सहारे समाज का कायाकल्प किया जा सकता है .. पर आज के साधु संतों की रूचि अपने कायाकल्प में ही होती है .. वैसे लोगों का साथ देना धर्म नहीं पाप ही होगा !!
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