बिना पतेवाला पोस्टकार्ड

जब भी कोई पत्र लेकर महेन्द्र भाई की दुकान पर जाता हूँ तो पहले तो वे और उनका बेटा नितिन खुश होते हैं और अगले ही क्षण ताज्जुब में डूब जाते हैं। महेन्द्र भाई का पूरा नाम महेन्द्र जैन (पाणोत) है और नगर के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र में उनकी, स्टेशनरी की अच्छी-खासी दुकान है। ईश्वर की कृपा है कि वे और नितिन, दुकान पर रहते हुए कभी फुर्सत नहीं पाते। स्टेशनरी व्यवसाय के साथ ही साथ वे कूरीयर से भेजे जाने वाले पत्रों की बुकिंग भी करते हैं। मुझे देखकर वे खुश इसलिए होते हैं क्यों कि वे मुझे पसन्द करते हैं (भगवान करे मेरा यह भ्रम बना रहे) और ताज्जुब इसलिए करते हैं क्योंकि वे भली प्रकार जानते हैं कि पत्र भेजने के मामले में मैं भारत सरकार की डाक सेवाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देता हूँ और निजी कूरीयर कम्पनियों को बिलकुल भी पसन्द नहीं करता।

डाक विभाग को मैं अपना ‘अन्नदाता विभाग’ मानता हूँ। अपने ग्राहकों को बीमा सेवाएँ उपलब्ध कराने में यह विभाग मुझे मेरी आशा/अपेक्षा से अधिक सेवाएँ उपलब्ध कराता है। किन्तु बीमा एजेन्सी का काम तो मैंने अभी उन्नीस बरस पहले ही शुरु किया है जबकि इस विभाग से मेरा जुड़ाव मेरे स्कूली दिनों से ही बना हुआ है। दादा ने सूत्र दिया था - ‘पत्राचार वह एक मात्र माध्यम है जिसके जरिए, अपने घर से निकले बिना ही सारी दुनिया से जुड़ा जा सकता है।’ किन्तु दादा ने यह सूत्र वाक्य ही नहीं दिया। उनसे मुझे पत्राचार भी संस्कार में मिला। ‘पत्र-मैत्री’ (पेन फ्रेण्डशिप) को अपना शौक बताकर मैं अपने से बेहतर लोगों के बीच आसानी से जगह बनाता रहा हूँ। सो, जब भी पत्राचार की बात होती है तो मुझे डाक विभाग के सिवाय और कुछ न तो सूझता है और न ही अच्छा लगता है। इस विभाग के प्रति, इसकी सेवाओं के प्रति और इसके कर्मचारियों के प्रति मेरे मन में अतिरिक्त प्रेम, सम्मान, आदर और सदाशयता का भाव शुरु से ही बना हुआ है।

यह कड़वा और अप्रिय सच है कि डाक सेवाओं की गुणवत्ता और विश्वसनीयता में घातक कमी आ गई है। इतनी कि खीझ और झुंझलाहट होने लगती है। आज की पीढ़ी के लिए यह सूचना ‘सफेद झूठ’ हो सकती है कि किसी जमाने में पत्र, देश के किसी भाग में, केवल तीन दिनों में ही अपने मुकाम पर पहुँच जाया करता था। आज स्थिति यह हो गई है कि स्थानीय पत्र भी पाँच-पाँच दिनों में पहुँच रहे हैं। खीझ का चरम यही है कि मुझ जैसा आदमी भी कभी-कभी कह उठता है कि अंग्रेजों की डाक व्यवस्था ही अच्छी थी।

इसके बावजूद, मैं भारतीय डाक सेवाओं का मुरीद हूँ। कोई एक पखवाड़ा पहले इस विभाग ने मुझे ‘सुखद आश्चर्य’ का ‘जोर का झटका, धीरे से’ दिया। विक्रम सम्वत् 2067 की चैत्र प्रतिपदा, 16 मार्च 2010 की डाक में मुझे आदरणीय श्रीयुत भगवानलालजी पुरोहित का, नव वर्ष अभिनन्दन एवम् शुभ-कामना पत्र मिला। त्यौहार के दिन किसी पवित्रात्मा की शुभ-कामनाएँ और आशीर्वाद मिल जाएँ तो मन पुलकित हो ही जाता है। इसी पुलक भाव मग्न हो मैंने पोस्ट कार्ड पलटा तो देखकर चकित रह गया। पोस्ट कार्ड पर मेरा पता ही नहीं था! डाक विभाग का यह कृपापूर्ण चमत्कार मुझ पर पहला नहीं था। इससे पहले, स्थानीय डाककर्मी, अनगिनत बार मुझ पर कृपा वर्षा कर चुके हैं। पते के स्थान पर केवल ‘विष्णु बैरागी, रतलाम’ लिखा होने पर तो पत्र मुझे मिलते ही रहे किन्तु पते के स्थान पर ‘बैरागी को मिले’, ‘मनासावाले बैरागी को मिले’, ‘बीमा एजेण्ट बैरागी को मिले’ जैसे जुमले लिखे पत्र भी मुझे मिलते रहे। विस्मय की बात यह कि ऐसे सारे पत्र सचमुच में मेरे लिए ही थे जबकि मेरी निजी जानकारी के अनुसार, विष्णु बैरागी नामवाले कम से सोलह व्यक्ति तथा तीन बीमा एजेण्ट रतलाम में हैं। ऐसे तमाम पत्रों को ‘अपूर्ण पता’ की टिप्पणी के साथ प्रेषक को लौटने के कानूनी अधिकार और सुविधा डाक विभाग के पास सुरक्षित है। किन्तु इस ‘अधिकार और सुविधा’ को परे धकेलकर, विभाग ने पत्र अपने मुकाम पर पहुँचाने को प्राथमिकता दी। आदरणीय श्रीयुत भगवानलालजी पुरोहित का भेजा, ताजा पत्र तो पत्र-छँटाई के समय ही अलग निकाला जा सकता था। किन्तु ऐसा न कर, वह पत्र भी मुझे तक पहुँचाया गया।

मैं यह सम्भावना लेकर चलता हूँ कि डाक विभाग के कर्मचारी निजी स्तर पर मुझे जानते-पहचानते होंगे इसलिए मुझ पर यह अतिरिक्त कृपा की गई होगी। किन्तु तनिक कल्पना कीजिए कि यदि ऐसा कोई पत्र, किसी निजी कूरीयर सेवा को मिलता तो उसकी क्या दशा होती? ऐसा पत्र अपने मुकाम तक पहुँचाना तो दूर की बात रही, उसे लौटा देने के सिवाय और कुछ सोचा ही नहीं जाता। यह इसलिए कह पा रहा हूँ कि दो-एक बार ऐसा हुआ है कि जो पत्र मैंने महेन्द्र भाई के माध्यम से कूरीयर सेवा के जरिए भेजे थे, वे न तो अपने मुकाम पर पहुँचे और न ही मुझे लौटाए गए। इसके उल्टे, उनके ऐसे पीओडी (प्रूफ ऑफ डिलीवरी) मुझे दिए गए जिन पर, जिन सज्जन को मैंने पत्र भेजे थे उनके स्थान पर पता नहीं किसके हस्ताक्षर थे। ऐसी दशा में मैं और मेरे साथ महेन्द्र भाई असहाय हो, टुकुर-टुकुर देखने और मन ही मन कुढ़ने के सिवाय और कुछ नहीं कर सके।

नहीं जानता कि निजी कूरीयर सेवा की अवधारणा देशी है या विदेशी किन्तु अच्छी तरह अनुभव करता हूँ कि उनकी कार्यशैली और ग्राहकों के प्रति व्यवहार, उनकी विदेशी प्रकृति और मानसिकता ही प्रकट करती है। लगता ही नहीं कि उन्हें ग्राहक की और उसके सरोकारों की तनिक भी चिन्ता है। इसके विपरीत, भारतीय डाक सेवाओं में अभी भी आत्मीयता की ऊष्मा और ग्राहकों की चिन्ता का भाव बना हुआ है। आप-हममें से कइयों को आज भी ऐसे पत्र मिलते होंगे जिन पर हमारा पुराना पता होता है। उस पते की बीटवाले डाकिए को जब मालूम पड़ता है कि पानेवाले का पता बदल गया है तो वह (पुराने पते पर रह रहे लोगों से और/या आसपास के लोगों से) हमारा परिवर्तित पता पूछ कर, उस नए पते की बीटवाले पोस्टमेन को वह पत्र सौंप देता है। ऐसा पत्र हमें जब-जब भी मिलता है, तब-तब हम उसे अत्यन्त सहजता से लेते हैं और डाक कर्मियों के इस अनदेखे परिश्रम और हमारे प्रति बरती गई उनकी चिन्ता के प्रति धन्यवाद देना तो दूर, उनके परिश्रम और चिन्ता की कल्पना भी नहीं करते। इसके विपरीत, डाक कर्मियों की प्रत्येक गलती और चूक को उजागर करने, उसकी आलोचना करने का और उनकी खिल्ली उड़ाने का कोई भी अवसर नहीं चूकते।

हमारा (सामान्य मनुष्य का) सामान्य स्वभाव ही है। हमारे बिना कहे यदि किसी ने (विशेषकर किसी शासकीय विभाग/कर्मचारी ने) ‘फेवर’ किया (वह भी तब, जबकि वैसा न करने की कानूनी सुविधा और अधिकार उसे प्राप्त था) तो हम उसकी अनदेखी करते हैं। ऐसी बातों की चर्चा भी नहीं करते।

बुराइयों की चर्चा आज समूचे परिदृश्य पर छाई हुई है। अखबारों में ‘दुर्जनता और दुष्कर्म’ प्रमुखता पाए हुए हैं। यह सब देख कर, पढ़कर हम निराश, हताश और अवसादग्रस्त होते हैं। सोचते हैं, कुछ अच्छा देखने को, पढ़ने को मिले। किन्तु तब हमारे आसपास कुछ अच्छा होता है तो हम ही चर्चा नहीं करते। अच्छाई किस कदर उपेक्षित है, यह इसीसे अनुमान लगाया जा सकता है कि पुरोहितजी के इस पत्र की फोटो प्रति मैंने एक अग्रणी अखबार को, सत्रह मार्च को दी तो वहाँ इसे तत्काल सराहना तो मिली किन्तु अखबार में जगह आज तक नहीं मिली। यदि हम अच्छाइयों की चर्चा करना शुरु कर दें तो

माहौल बदला जा सकता है। तब बुराइयों के लिए जगह शायद बचे ही नहीं। मैं ऐसी ही छोटी-छोटी कोशिशों में विश्वास करता हूँ।

यह ऐसी ही एक छोटी सी कोशिश है।



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आपकी बीमा जिज्ञासाओंध्समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासाध्समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।




यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

4 comments:

  1. यह डाक विभाग के कर्मचारियों की सुकर्मण्यता ही है कि वे बिना पते वाले पत्र भी पहुँचाते रहे हैं। मेरे साथ भी यह अनेक बार हुआ है। यह तो तब है जब इस विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। डाकियों को अवकाश के दिन और रात के समय भी डाक बांटते देखा जा सकता है।

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  2. यही एक विभाग है जहाँ ईमानदारी बची है.

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  3. कमाल है - यह तो अव्वल दर्जे की डाक सेवा हुई. कुरिअर के बारे में तो अपना अनुभव भी कोई अच्छा नहीं है.

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  4. कूरियर से बेहतर है डाक सेवा, ऐसा मेरा भी अनुभव है।

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