‘काल बेल’ की आवाज से ही नींद खुली। घड़ी देखी, अभी साढ़े छः ही बजे थे। दरवाजा खोला तो विश्वास नहीं हुआ। काका साहब सामने खड़े थे!
उन्हें कोई वाहन चलाना नहीं आता। सायकिल भी नहीं। याने, लगभग सत्तर वर्षीय काका साहब, त्रिपोलिया गेट से कोई तीन किलोमीटर पैदल चलकर, सवेरे साढ़े छः बजे मेरे यहाँ पहुँचे! मैं घबरा गया। ईश्वर करे, सब राजी-खुशी हो। मैंने प्रणाम किया। वे कुछ नहीं बोले। आशीष भी नहीं दिए। चुपचाप आकर सोफे पर बैठ गए। मेरी घबराहट बढ़ गई। मैं कुछ पूछूँ उससे पहले ही वे बोले - ‘घबरा मत। चिन्तावाली कोई बात नहीं। एक जरूरी सलाह लेने आया हूँ। तू जल्दी फारिग हो ले। जरा तसल्ली से बात करनी है।’
चिन्ता वाली कोई बात भले न हो किन्तु कोई खास बात तो है। वर्ना काका साहब इतने सवेरे क्यों आते? मेरी घबराहट जस की तस बनी रही। फुर्ती से फारिग हो, उनके पास बैठ कर सवालिया निगाहें उनके चेहरे पर गड़ा दीं। पल भर के लिए उन्होंने मेरी ओर देखा फिर शून्य की ओर ताकते हुए बोले - ‘सोचता हूँ, वृद्धाश्रम में भर्ती हो जाऊँ। तू क्या कहता है?’
मानो कोई विशाल वट वृक्ष अपनी जड़ों से उखड़ गया हो, पहले पल यही लगा मुझे उनकी बात सुनकर। मेरे हाथ-पाँव ठण्डे हो गए। मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ा।
अकबकाहट से उबरने में कुछ पल लगे मुझे। पूछा - ‘केशव और कान्ति (उनके इकलौते बेटा-बहू) से कुछ कहा सुनी हो गई क्या? उन्हें पता है कि आप यहाँ आए हैं?’ पूर्वानुसार ही मुद्राविहीन मुद्रा में बोले - ‘नहीं! नहीं! वे तो बेचारे चैबीसों घण्टे मेरी चिन्ता करते रहते हैं। उन्हें बताकर ही तेरे यहाँ आया हूँ।’ अब मेरी घबराहट तनिक कम हुई। संयत होकर पूछा - ‘तो फिर यह वृद्धाश्रम वाली बात कहाँ से आ गई?’ अब वे मेरी ओर पलटे। बोले -‘मैं घर में जरूरत से ज्यादा टोका-टोकी करने लगा हूँ। जहाँ नहीं बोलना चाहिए वहाँ भी बोलता हूँ। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि केशव और कान्ति ही नहीं, अदिति और आदित्य (पोती-पोता) भी मेरी अकारण टोका-टोकी से परेशान रहते हैं। इसीलिए सोचता हूँ कि वृद्धाश्रम में भर्ती हो जाऊँ। कम से कम बच्चों को तो आराम मिले।’
उनके सवाल में ही मेरा सवाल निकल आया। बोला -‘जब आप समस्या का कारण और उसका निदान भी जानते हैं तो उसे दूर कर दीजिए। टोका-टोकी बन्द कर दीजिए। वृद्धाश्रम जाने की क्या जरूरत है?’ ‘यही तो नहीं होता मुझसे। रोज सवेरे उठकर प्रण लेता हूँ कि अपने काम से काम रखूँगा और बच्चों को बिलकुल नहीं टोकूँगा। किन्तु अगले ही पल प्रण-भंग हो जाता है और मेरे कारण घर में परेशानी शुरु हो जाती है।’
काका साहब ने मुझे उलझा दिया। बीहड़ में मानो पगडण्डी की तलाश कर रहा होऊँ, कुछ इस तरह से पूछा - ‘केशव को बताई आपने वृद्धाश्रमवाली यह बात? कैसा लगा यह सुनकर उसे?’ वे असहज हो गए। बोले -‘उससे पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। डर गया कि सुनकर वह कहीं कुछ कर न बैठे। इकलौते लड़के का बाप वृद्धाश्रम में रहे यह तो उसके लिए डूब मरनेवाली बात होगी।’ मुझे अब भी कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था। बात को खींचने के लिए बोला - ‘इस विचार को तो आप खुद ही उचित नहीं मानते। मानते होते तो मुझसे पूछने के लिए इतने सवेरे तकलीफ क्यों उठाते?’ वे चुप रहे। उनकी चुप्पी ने मेरा आत्म विश्वास बढ़ाया। मैं ठीक दिशा में जा रहा था।
अंगुली से आगे बढ़कर पहुँचा पकड़ते हुए मैंने कहा - ‘वृद्धाश्रम में टोका-टोकी नहीं करेंगे?’ उनके चेहरे पर उलझन उभर आई। भरे कण्ठ से बोले -‘वहाँ कौन है सुननेवाला? वहाँ तो सुननी ही सुननी है। झख मारकर चुप रहना पड़ेगा।’ रुँआसा तो मैं भी हो गया किन्तु अब मुझे रास्ता नजर आने लगा। तनिक रूखे स्वरों में कहा - ‘यह तो कोई बात नहीं हुई। परायों, अनजानों के साथ तो आप समझौते करने को, सहयोग करने को तैयार हैं और अपनेवालों के साथ नहीं? परायों को सहयोग और अपनेवालों पर अत्याचार। खुद आपको अजीब नहीं लगता यह सब?’ अब वे फर्श की ओर देखने लगे। नजरें झुकाए बोले -‘जानता था कि तू यही कहेगा। किन्तु मैं क्या करूँ? जानता हूँ कि अपनेवाले हैं, सो, जो भी कहूँगा, सुन लेंगे। मुझसे रहा नहीं जाता और अपनेवालों पर अत्याचार कर देता हूँ।’
बड़ी विचित्र स्थिति थी। ऐसे में क्या सलाह दी जाए? मैंने तनिक साहस कर कहा - ‘काका साहब! वृद्धाश्रम जाने के बजाय आप अपने मन में ही वृद्धाश्रम क्यों नहीं बसा लेते? आप तो ज्ञानी भी हैं और अनुभवी भी। थोड़ी मुश्किल तो होगी किन्तु आप चाहेंगे तो सब कुछ हो जाएगा। वृद्धाश्रम जाने के बजाय वृद्धाश्रम को ही घर ले आइए। जब भी टोकने की इच्छा मन में उठे तब याद रखने की और याद करने की कोशिश कीजिए कि आप वृद्धाश्रम में हैं। इस वृद्धाश्रम में आपको शिकायत का कोई मौका शायद ही मिलेगा और बेटे-बहू और पोती-पोते का सुख तो मिलेगा ही।’
ऐसा लगा, उन्हें मेरी बात जँच गई। कुछ इस तरह बोले मानो अपने आप को तौल रहे हों -‘तेरी बात गले उतरती तो है। कोशिश करने में कोई हर्ज भी तो नहीं। वैसे भी घर में बड़ा तो मैं ही हूँ। हर कोई मुझसे ही समझदारी की उम्मीद करेगा। यदि कामयाब हुआ तो स्थितियाँ बेहतर ही होंगी। यदि नहीं हो पाया तो बदतर तो क्या होंगी? तुझसे मिलने का यह फायदा तो हुआ।’ सुन कर मुझे रोना आ गया। लगा, मैं केशव की जगह हूँ और मेरे पिता वृद्धाश्रम जाने के अपने निर्णय की निरस्ती की सूचना मुझे दे रहे हैं। मेरी दशा देखकर वे मुस्कुराए। मेरी टप्पल (माथे) पर चपत लगा कर बोले -‘तू तो गया काम से। चाय के लिए बहू को मैं ही बोल देता हूँ।’ उन्होंने मेरी उत्तमार्द्ध को आवाज लगाई -‘बेटाजी! मुझे और तुम्हारे इस निखट्टू पति को चाय पिला देना।’
मैं रसोई घर में पतीली और कप प्लेट की आवाज सुनने की आशा/अपेक्षा कर रहा था। वे आवाजें आईं तो जरूर किन्तु उनसे पहले मेरी उत्तमार्द्ध की सिसकियों ने रसोई घर पर कब्जा कर रखा था।
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वृद्धाश्रम जाने के बजाय वृद्धाश्रम को ही घर ले आइए। जब भी टोकने की इच्छा मन में उठे तब याद रखने की और याद करने की कोशिश कीजिए कि आप वृद्धाश्रम में हैं। इस वृद्धाश्रम में आपको शिकायत का कोई मौका शायद ही मिलेगा और बेटे-बहू और पोती-पोते का सुख तो मिलेगा ही।’
ReplyDeleteआपसे ऐसी ही सलाह की उम्मीद थी, शायद कभी हमारे काम भी आये.
आपके इस बिचारोत्तेजक रचना के लिए आपका धन्यवाद / आशा है आप इसी तरह ब्लॉग की सार्थकता को बढ़ाने का काम आगे भी ,अपनी अच्छी सोच के साथ करते रहेंगे /आपके इस प्रयास के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद / ब्लॉग हम सब के सार्थक सोच और ईमानदारी भरे प्रयास से ही एक सशक्त सामानांतर मिडिया के रूप में स्थापित हो सकता है और इस देश को भ्रष्ट और लूटेरों से बचा सकता है /आशा है आप अपनी ओर से इसके लिए हर संभव प्रयास जरूर करेंगे /हम आपको अपने इस पोस्ट http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html पर देश हित में १०० शब्दों में अपने बहुमूल्य विचार और सुझाव रखने के लिए आमंत्रित करते हैं / उम्दा विचारों को हमने सम्मानित करने की व्यवस्था भी कर रखा है / पिछले हफ्ते अजित गुप्ता जी उम्दा विचारों के लिए सम्मानित की गयी हैं /
ReplyDeleteबहुत उत्तम सलाह दी मगर एक आँख देखी कहानी याद हो आई एक बुजुर्ग की डायरी से..जल्द पेश करता हूँ आपकी उत्कृष्ट नजरों के आशीष हेतु. कैसे कैसे वाकये बन जाते हैं हमारे आस पास ही.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रास्ता सुझाया.वृद्धावस्था की समस्याएं हैं. आभार.
ReplyDeleteकाका साहब बेटे बहू और पोते पोती के दोस्त क्यों नहीं बन जाते हैं? क्यों दादा ही बने रहना चाहते हैं? मेरे पिता जी के काका जी ने यही किया था। वे हमारे और पिताजी के दोस्त बन गए थे। कभी पूरी बात लिखूंगा। शायद जल्दी ही।
ReplyDeleteअच्छी सलाह है इस पोस्ट में....उम्र के साथ बहुत कुछ सोचना और समझना पड़ता है...
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