हम सात-आठ थे। सबके सब पूरी तरह फुरसत में। करने को एक ही काम था - भोजन करना। सबको पता था कि छः बजते-बजते भोजन की पंगत लग जाएगी। याने प्रतीक्षा करने का काम भी नहीं था। सुविधा इतनी और ऐसी कि माँगो तो पानी मिल जाए, चाय मिल जाए-सब कुछ फौरन। नीमच के डॉक्टर राधाकृष्णन नगर (जिसे इस नाम से शायद ही कोई जानता हो। सब इसे ‘शिक्षक कॉलोनी’ के नाम से जानते हैं) स्थित शिक्षक सहकार भवन में हम लोग जुड़े बैठे थे।
मेरे जीजाजी की पहली बरसी पर मेरे बड़े भानजे श्यामदास ने यह आयोजन किया था। सवेरे से भजन-कीर्तन चल रहे थे। महिलाओं ने मानो यह काम अपने जिम्मे ले लिया था। सो, हम सबके सब पुरुष पूरी तरह से फुरसत में थे।
जैसा कि होता है, बात घूम फिरकर भ्रष्टाचार पर आ गई। बात शुरु हुई थी जनपद पंचायत चुनावों से। एक ने बताया कि प्रति उम्मीदवार कम से कम 20-20, 25-25 लाख रुपये खर्च हुए होंगे। मुझे हैरत हुई। मैंने पूछा - इतना खर्च क्यों किया होगा इन लोगों ने? उत्तर मिला - ‘यह तो यक्ष प्रश्न है।’ यहीं से शुरुआत हुई। कहा कि जिला पंचायत और जनपद पंचायतों में करोड़ों का फण्ड आता है। वह धरती पर तो शायद ही आता हो, कागजों में ही फँस कर रह जाता है। 20-20, 25-25 लाख रुपये खर्च करनेवाले, अपने खर्च की वसूली और अगले चुनाव की तैयारी इसी ‘करोड़ों के फण्ड’ से करते हैं।
और जैसा कि होता है, हर कोई पूरे देश को, पूरे समाज को और पूरी व्यवस्था को भ्रष्ट साबित करने पर तुल गया। और जैसा कि होता है, हर कोई अपने आप को इस सबसे अलग रख कर, ‘वस्तुपरक भाव’ से बात किए जा रहा था। हर कोई कह रहा था कि देश रसातल में जा रहा है और इस तरह कह रहा था मानो इस दशा के लिए वह कहीं भी जिम्मेदार नहीं है।
जिन्होंने ‘यक्ष प्रश्न’ की उपमा दी थी वे शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हुए थे। उनसे मैंने पूछा - ‘आपने अपने सेवा काल में कितनी बार रिश्वत दी।’ उत्तर मिला - ‘एक बार।’ मैंने दूसरा सवाल किया -‘आपके दो बेटे केन्द्रीय विद्यालय संगठन में सेवारत हैं। इनकी नौकरी लगवाने के लिए आपने कितनी रिश्वत दी।’ जवाब आया -‘फूटी कौड़ी भी नहीं। दोनों अपनी शैक्षणिक योग्यता के दम पर चुने गए।’
दूसरे सज्जन बहस में नाम मात्र की भागीदारी कर रहे थे। मुझे साफ लग रहा था कि वे मेरा लिहाज कर रहे थे। किन्तु राय उनकी भी यही थी कि देश भ्रष्टाचार के दलदल में डूब गया है। वे भी शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हुए थे। उनसे भी मैंने वही सवाल किया - ‘अपने सेवाकाल मे आपने कितनी बार रिश्वत दी?’ उत्तर मिला - ‘एक बार भी नहीं।’ मैंने दूसरा सवाल किया - ‘आपका बेटा राष्ट्रीयकृत बैंक में सेवारत है। उसकी नियुक्ति के लिए आपने कितनी रिश्वत दी।’ उन्होंने तनिक असहज होकर कहा - ‘कोई रिश्वत नहीं दी। वह अपनी योग्यता के कारण ही नौकरी पा सका।’
दोनों से मेरे इन दोनों सवालों के बाद बहस में मानो विराम सा लग गया। मैंने सहज ही कहा कि उन दोनों को तो भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि दोनों के पास इस बाबत अपने कोई अनुभव नहीं है। मुझे बहुत ही शानदार प्रतिप्रश्न मिला - ‘तो क्या आप कहना चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार है ही नहीं?’ मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा - ‘ऐसा तो मैंने कहा ही नहीं। कह भी नहीं सकता क्योंकि मैं जानता हूँ कि देश में भ्रष्टाचार है और संस्थागत स्वरूप में है।’ ‘तो फिर आप कहना क्या चाहते हैं?’ सवाल आया। मैंने कहा - ‘मेरे सवालों के जवाब में आप दोनों ने मुझसे जो कहा, वही कहना चाहता हूँ। जब भी भ्रष्टाचार की बात हो तो आप कम से कम एक बार तो कहें कि सब कुछ रसातल में नहीं चला गया है। अच्छे, भले और ईमानदार लोग आज भी हैं जो बिना लिए-दिए काम करते हैं। आप सबको एक घाट पानी पिलाकर इन भले और ईमानदार लोगों को जिस तरह से अपमानित करते हैं, उन्हें भ्रष्टों में शरीक करते हैं, यह मुझे नहीं जँचता। मेरा मानना है कि आज भी भले और ईमानदार लोग अधिक हैं किन्तु उनके भले होने का, उनके ईमानदार होने का हम न तो नोटिस लेते हैं न ही उनकी प्रशंसा करते हैं। ऐसा करके तो हम खुद भी एक प्रकार से भ्रष्टाचार करते हैं। हम भले ही उनका नाम न जानें किन्तु उनके आचरण का जो सुखद अनुभव हमें हुआ है, उसका उल्लेख भी न करें?’
मेरी बात फिर भी उनके पल्ले नहीं पड़ी। तनिक असहज होकर बोले - ‘आपकी बात समझ नहीं आई। आप कहना क्या चाहते हैं?’ मैं उन दोनों से उम्र में काफी छोटा हूँ-कम से कम दस-बारह बरस छोटा। मुझे संकोच हो आया। मैंने कहा - ‘यह देश रसातल में यूँही नहीं चला गया। हम सबने इसे जाने दिया जबकि हमारी जिम्मेदारी थी कि इसे रसातल में न जाने दें। लेकिन हमने रोकने की कोई कोशिश नहीं की। और तो और, जो लोग ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं, उनका उल्लेख और प्रशंसा करने के बजाय हम उन्हें भी भ्रष्टों की जमात में शामिल करने का अपराध कर रहे हैं। हम कहीं भी, किसी भी प्रकार से अपनी कोई भी जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं हैं। बस, चिल्लाए जा रहे हैं, स्यापा किए जा रहे हैं। मुझे यह ठीक नहीं लगता।’
नहीं जानता कि मुझसे सहमत होकर चुप हुए या मेरा लिहाज कर। किन्तु अपनी मुट्ठियों पर ठोड़ी टिका कर ‘हूँ। हूँ।’ कर, विचार-मुद्रा में लीन हो, सहमति में सिर हिलाने लगे।
ठीक मौका जान मैंने आखिरी पत्थर फेंका - ‘अपन सब कभी न कभी, कम से कम एक बार तो बाराती बने ही होंगे। बाराती सामान्य प्राणी नहीं होता। वह विशेषाधिकार प्राप्त प्राणी होता है। उसके जिम्मे कोई काम नहीं होता। वह प्रति पल कुछ न कुछ माँग करता रहता है और लड़कीवाले उसकी माँग पूरी करने के लिए लगातार भागदौड़ करते रहते हैं। उसे नाराज होने का कोई मौका नहीं देना चाहते।
‘मुझे लगता है, हम सब केवल बाराती बने हुए हैं। लोकतन्त्र के बाराती। यह लोकतन्त्र की जिम्मेदारी है कि हमें नाराज न होने दे और हमारी प्रत्येक माँग पूरी करे-फौरन।’
लेकिन मैं देख नहीं पाया कि मेरी बात का क्या असर हुआ क्योंकि मेरी बात खत्म होते ही श्यामदास की आवाज आई - ‘मामा साहब! भोजन तैयार है। सबको लेकर पधारिए।’
सुनकर, मैं उठता, उससे पहले बाकी सब उठ कर तेजी से भोजन पाण्डाल की ओर लपके।
मैं तय नहीं कर पाया कि वे तेजी से क्यों लपके? वाकई में, तेज भूख के कारण?
भगवान करे यही कारण रहा हो।
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"आज भी भले और ईमानदार लोग अधिक हैं किन्तु उनके भले होने का, उनके ईमानदार होने का हम न तो नोटिस लेते हैं न ही उनकी प्रशंसा करते हैं। ऐसा करके तो हम खुद भी एक प्रकार से भ्रष्टाचार करते हैं। हम भले ही उनका नाम न जानें किन्तु उनके आचरण का जो सुखद अनुभव हमें हुआ है, उसका उल्लेख भी न करें?"
ReplyDeleteयदि ऐसा करेंगे तो फिर असंतोष भड़काने का आनंद कैसे आयेगा? और अगर लोकतंत्र के प्रति असंतोष नहीं भड़का तो कई लोकतंत्र विरोधी (चीन पोषित - तानाशाही समर्थक) राजनैतिक दलों के लिए तो अस्तित्व का संकट ही उपस्थित हो जाएगा. मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी यही है कि न तो मानवता रसातल में गयी है और न ही ऐसा होने की कोई संभावना है.
तेज भूख ही रही होगी शायद..
ReplyDeleteबाराती हर कोई बनना पसंद करता है। घराती बनने में मुसीबत जो है।
ReplyDeletebahut hi shandar baat kahi aapne..
ReplyDeletevaise डॉक्टर राधाकृष्णन नगर jaha bhi hota hai vaha use ‘शिक्षक कॉलोनी ya shikshhak nagar hi pukara/bola jata hai
;)
ऐसे ज्ञान को पाकर तो सभी को भूख ही लगेगी!
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