‘वे’ कितने थे, गिन पाना असम्भव ही था । ‘वे’ हजारों भी हो सकते थे, लाखों भी या शायद करोड़ भी । ‘वे’ जितने भी थे, सबके सब काम में लगे हुए थे । एक भी चुप नहीं बैठा था ।
यह शुकताल में, गंगा किनारे, विक्रम सम्वत 2065 के भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी की रात थी । एक दिन पहले बरसात हो चुकी थी । लग रहा था कि बरसात फिर होगी । लेकिन आसमान साफ था । अपनी सोलहवीं कला तक पहुँचने के लिए चाँद, यात्रा पर निकला हुआ था । चाँदनी पूरे आसमान में पसरी हुई थी । आसमान, आसमान नहीं रह गया था, ठण्डे दूध की गाढ़ी, मलाईदार, सफेद झक् चादर बन गया था मानो । तारे पलायन कर चुके थे । लेकिन ‘वे‘ थे कि इस सबसे बेखबर, लगे हुए थे अपने काम में । गंगा किनारे बनी, बैरागियों की धर्मशाला के बाहर, कोने पर, रखवाले की तरह खड़े वृक्ष पर थे ‘वे’ सारे के सारे और वहीं लगे हुए थे अपने काम पर ।
या तो ‘उन्हें’ चाँदनी की चमक कम लग रही थी सो ‘वे’ उसे और चमकीली बनाने की जुगत में थे या चाँद को अहसास कराने पर तुले हुए थे - अपने होने का या फिर उसे आश्वस्त कर रहे थे कि दो दिनों के बाद जब वह क्षरित होने लगेगा तो उसका काम वे निरन्तर बनाए रखेंगे - रातों को रोशन बनाए रखने का ।
अपनी-अपनी दुम को मशाल बनाए, ‘वे’ सबके सब मेरी आँखें झपकने नहीं दे रहे थे । रात आधी हो चुकी थी । मुझे सो जाना चाहिए था । लेकिन वे मुझे, कोई पैंतीस-चालीस मकानों वाले मेरे गाँव की कीचड़ सनी, असमतल, अटपटी गलियों में ले आए थे जिनमें मैं उनके पीछे दौड़-दौड़ कर उनमें से किसी को झपट्टे से कब्जे में कर लेता था-बहुत ही मुश्िकल से और माचिस की खाली डिबिया में बन्द कर, अगले दिन अपने दोस्तों को दिखाता था - बड़े रौब से । उसके बाद जैसे-जैसे बड़ा होता गया, गाँव से दूर होता गया । ‘उनसे’ सम्पर्क कम होने लगा । और शहर में आकर तो उन्हें भूल ही गया । उनके बारे में कोई बात करने वाला भी नहीं मिलता । वे बच्चों की स्कूली किताबों के सफों पर ही रह गए ।
लेकिन उस रात वे मेरे सामने थे, चाँद को भरोसा दिलाते हुए, चाँदनी की चमक को बढ़ाने की जुगत में लगे-हजारों, लाखों या फिर करोड़ की तादाद में । उन्होंने अपने होने को ही नहीं जताया, मुझे मेरे बच्चों के सामने सयाना बनने का अलभ्य अवसर भी दे दिया ।
भले ही यह सब बरसों-बरसों के बाद हुआ । लेकिन मैं अपने बच्चों को बता सकूँगा उनके बारे में । कह सकूँगा कि मैं ने बरसों बाद देखे, इतने सारे जुगनू एक साथ ।
काश वे जुगनू भी पढ़ पाते कि उन्होंने किसी को क्या कुछ सिखा दिया अनजाने ही.
ReplyDeleteबचपन की यादें भी बेशकीमती होती हैं. मुझे याद हैं वे लडकियां जो मेरे बचपन में बनतालाब की शामों को अपनी चुन्नी में लपेटे बहुत से जुगनुओं से रोशन कर देती थीं.
ReplyDeleteआप का यह आलेख शायद बहुतों को बचपन और विरासत की स्मृतियां लौटाने में कामयाब हो।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है आपने
ReplyDeleteनायाब, यह गद्य में विस्तार पाई अनूठी कविता है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
आपकी सबसे ताज़ा पोस्ट पढ़ के बचपन और गाँव दोनों याद आ रहे हैं | एक कविता में पढ़ा था कि रात का सौंदर्य अनछुआ सा होता है, जब सब नींद में मगन रहते हैं तब प्रकृति ये स्वर्गसुख बिखेरती है | इतना मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि शुकताल में कृत्रिम रौशनी नहीं होती होगी (या ना के बराबर होती हो), अब तो मेरे गाँव के आसपास प्रकाश प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि सिर्फ फूहड़ता से चमकने वाले तारे ही दिखाई देते हैं, धरती की चकाचौंध मैं झिलमिलाने वाले सिद्धांत की कल्पना बेकार है और अब ये खगोलीय पिंड उतने सजीव नहीं दीखते | आपने जितने मन से ये बातें कही हैं, लगता है कि आपने शुकताल के सौंदर्य को पूरे यौवन पर देखा है | काश ये नज़ारे जो प्रकृति प्रचुरता से देती है, और जिन्हें हमारी वर्तमान संस्कृति दुर्लभ बनाती जा रही है, सबको देखने मिलें | कोई देखे ना देखे, कम से कम मुझे तो मिलें ही...
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