मेराछोटा बेटा तथागत अभी, दो दिनों के लिए घर आया था । वह इन्दौर में, बी. ई. द्वितीय वर्ष का नियमित छात्र है । वह इन्दौर जाने लगा तो उसे छोड़ने स्टेशन गया । जाने से पहले उसने मेरे पैर छुए और बोला - ‘अच्छा पापा ! मैं चलता हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’
मेरा बड़ा बेटा वल्कल इन दिनों हैदराबाद में है । पहले मुम्बई में था । कुशल क्षेम जानने के लिए किए गए फोन पर बात समाप्त होने से पहले, उसकी माँ से वह क्या कहता है, मुझे पता नहीं लेकिन मुझसे हर बार कहा - ‘अच्छा पापा ! प्रणाम । अपना ध्यान रखिएगा ।’
प्रशा हमारे परिवार की नवीनतम सदस्य है । इसी नौ मार्च को वह हमारे परिवार में शामिल हुई है - वल्कल की जीवनसंगिनी बन कर । अक्टूबर 2007 में दोनों का वाग्दान हुआ था । तब से ही पह फोन पर हम लोगों से बराबर बात करती रही है । सम्वाद समाप्ति पर प्रत्येक बार वह कहती - ‘अच्छा पापाजी ! फोन बन्द करती हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’ प्रशा ने यह वाक्य पहली ही बार से कहना शुरु कर दिया था जबकि मेरे दोनों बेटों ने, घर से बाहर जाने के बाद कहना शुरु किया था । बच्चों के मुँह से यह वाक्य पहली बार सुना था तबसे ही इसने मेरा ध्यानाकर्षित किया था । ये तीनों बच्चे जब-जब भी यह वाक्य कहते हैं तब-तब मैं अतिरिक्त सतर्कता से सुनता हूँ । हर बार तेजी से अनुभव हुआ कि वे सम्पूर्ण सहजता, आत्मीयता, आदर और चिन्ता भाव से यह वाक्य कहते हैं । कोई औपचारिकता या दिखावा एक बार भी अनुभव नहीं हुआ । लेकिन यह वाक्य हर बार मुझे तनिक असहज कर जाता है ।
तीस वर्षां से भी अधिक समय से मैं ‘एकल परिवार’ का जीवन जी रहा हूँ लेकिन ‘सामूहिक परिवार’ की आदत अब तक नहीं गई है । तब, कोई भी अतिथि, रिश्तेदार घर आता तो लौटते समय हम छोटों के माथे सहलाता और परिवार के मुखिया से छोटे तमाम सदस्यों को ‘भारवण’ (भार वहन करने की हिदायत) सौंपता - ‘देखना ! माँ-बाप की खूब सेवा करना । उनका ध्यान रखना ।’ मुझे अब तक ऐसी ही ‘भारवण’ की आदत है । अपने मित्रों, परिचितों यहाँ जब भी गया तो लौटते समय उनके बच्चों को यही ‘भारवण’ सौंप कर लौटता रहा हूँ ।
लेकिन देख रहा हूँ कि अब मित्रों, परिचितों के परिवारों में ऐसे बच्चे नहीं मिलते जिन्हें ‘भारवण’ सौंपी जाए । उच्च शिक्षा के लिए या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त कर, ‘कैरियरिजम’ के अधीन, जिस तरह मेरे बच्चे घर से दूर हैं, उसी तरह मित्रों, परिचितों के बच्चे भी घर से दूर हैं । परिवार के नाम पर अब घर-घर में प्रायः पति-पत्नी ही मिलते हैं ।
मेरी पत्नी अध्यापक है । मध्यप्रदेश के अध्यापकों को अध्यापन की अपेक्षा अन्य काम अधिक करना पड़ते हैं । स्थिति यह है कि अध्यापकों को कई बार तो बच्चों को पढ़ाने का समय ही नहीं मिल पाता । विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए सर्वेक्षण करना ऐसे ही कामों में से एक काम होता है । दो साल पहले, एक शाम वह ऐसे ही एक सर्वेक्षण से लौटी तो बदहवास थी । साफ लग रहा था उससे कुछ पूछा तो वह रो पड़ेगी । थोड़ी देर बाद पूछा तो उसने भीगे कण्ठ से बताया कि सर्वेक्षण के दौरान उसे दस-बारह ऐसे, बहुमंजिला मकानों में जाना पड़ा जिनमें केवल वृद्ध युगल मिले । कुछ के बच्चे, ऊँची पढ़ाई कर, कमाने-खाने के लिए देश के अन्य नगरों में तो कुछ के बच्चे विदेशों में । दो कारणों से मकान खाली बनाए रखना सबकी विवशता । पहला कारण - बच्चे आएँ तो वे आराम से रह सकें । दूसरा कारण - किराए पर उठा दें और बाद में किराएदार मकान खाली न करे तो ? सो, ऐसे समस्त वृद्ध युगल, ‘भव्य भवनों के रक्षक-रखवाले’ बने हुए हैं और उनकी खुदकी देख-भाल करने के लिए कोई नहीं है । उल्लेखनीय बात यह है कि हमारे बच्चे भी, परदेस में इसी दशा को जी रहे हैं । उनका ध्यान रखने के लिए उनके माँ-बाप साथ में नहीं हैं । उन्हें भी अपना ध्यान खुद ही रखना है । जाहिर है कि अब हममें से प्रत्येक को अपना ध्यान रखना पड़ेगा, वे बच्चे हों या बच्चों के माँ-बाप । ‘माँ-बाप की सेवा करना । उनका ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ यदि मेरी पीढ़ी का सच और शिष्टाचार था तो ‘आप अपना ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ मेरे बच्चों की पीढ़ी का सच और शिष्टाचार है ।
अब तक होता यह आया है कि बच्चे जब-जब भी पढ़ने या नौकरी करने बाहर गए तब-तब उनसे कहा जाता रहा है - ‘परदेस में अकेले हो । अपना ध्यान रखना ।’ आज हम सब अपने-अपने घरों में ही हैं और हमें अपना-अपना ध्यान रखना है । पहले बच्चों को कहा जाता था - ‘अपना ध्यान रखना ।’ आज बच्चे हमसे कह रहे हैं - ‘अपना ध्यान रखना ।’
‘अपना ध्यान रखिएगा’ यह वाक्य सबसे पहले मैं ने, ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में सुना था । कार्यक्रम समाप्ति से पहले अमिताभ बच्चन, ‘विदा अभिवादन का शिष्टाचार’ निभाते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उठाकर दर्शक समुदाय से कहते थे (शायद सचेत करते थे) - ‘अपना ध्यान रखिएगा ।’ जब-जब भी मेरे बच्चे मुझे मेरा ध्यान रखने को कहते हैं तब-तब, यह भली प्रकार जानते हुए भी कि वे अन्तर्मन से मेरी चिन्ता करते हुए ही यह कह रहे हैं, मुझे लगता है कि अमिताभ बच्चन मेरे घर में विराजमान हैं ।
मैं भले ही कामना करुँ कि ‘ईश्वर करे, वे आपके घर में विराजमान न हों’ लेकिन मुझे भय है कि वे आपके घर में भी विराजमान हो सकते हैं ।
दिल की इतनी गहरी बात अपने इतनी सहजता से कह दी.
ReplyDeleteमेरे ख्याल से इससे ज्यादा माता पिता को क्या चाहिये...
ReplyDeleteदो अक्षर प्यार के..
achchi post
ReplyDeleteबहुत मन, संस्कार और गहरे प्रेक्षण से लिखा गया यह आलेख अनेक बातों को समेटता है।
ReplyDeleteनये उत्पादन संबंधों ने रक्त संबंधों से उपजे पुरातन संयुक्त परिवार को बिखेर दिया है। लेकिन संयुक्त परिवार नैसर्गिक संगठन है। चाहे कितने ही आघात उस पर किए जाएं वह जीवित रहेगा। नई पीढ़ी की भौतिक बाध्यताएँ कुछ भी क्यों न हो जाएँ उन की स्मृति सदैव ही जीवित रहती है।
मैं तो कहूँगा अमिताभ इस रूप में सभी परिवारों में उपस्थित रहें।
"मध्यप्रदेश के अध्यापकों को अध्यापन की अपेक्षा अन्य काम अधिक करना पड़ते हैं । स्थिति यह है कि अध्यापकों को कई बार तो बच्चों को पढ़ाने का समय ही नहीं मिल पाता । विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए सर्वेक्षण करना ऐसे ही कामों में से एक काम होता है", तगड़ी चोट की है महाराज… एकदम सत्य वचन। रही बात अकेलेपन की तो आजकल यह आम बात हो चली है, भौतिक सुविधायें सिर्फ़ शारीरिक आराम दे सकती हैं, लेकिन मन को आराम तो तभी मिलता है जब कोई अपना साथ हो, लेकिन जीवन स्तर मेण्टेन करने और महंगाई ने सबको अनचाहे ही मशीन बनाकर रख दिया है… यही जीवन है, जिसे स्वीकार करना मजबूरी है…
ReplyDeleteयह दशा तो किसी की भी आ सकती है और नाभिकीय परिवार के चलते उत्तरोत्तर संभावनायें बढ़ रही हैं। विदेशों में तो सरकारें वृद्धावस्था वेलफेयर का बहुत ध्यान देती है। भारत में वह सम्भव ही नहीं लगता। फण्ड का प्रावधान भी हो तो भ्रष्टाचार सब खा जायेगा।
ReplyDeleteखैर, आप अपना ख्याल रखियेगा।
"चिट्ठी आई है ....... " गाना बरबस ही याद आ गया.
ReplyDeleteआप शुरू से ही सच्चा लिखते है ये तो मै जानता हू, लेकिन इस बार आपने अच्छा लिखा ..... मेरा और तथागत का नाम और कही नही तो आपके ब्लोग पर तो आ ही गया, चलिए मेरा और तथागत का आपको कंप्यूटर चलना सिखाना काम आया, प्रशा इस मामले मे भाग्यशाली रही की बिना कुछ किए ही प्रचार पा गई.
अंग्रेज़ी मे एक कहावत है "there is no free lunch" |
रोटी की मज़बूरी, आगे बढ़ने की म्हत्वकान्शा और अवसरों की असमान उपलब्धता के चलते इस स्तिथि का होना कोई आश्चर्य की बात नही. 'settled' नाम की चिडिया हमारी पीढी कब पकड़ पाएगी कुछ कह नही सकते.
यहाँ मेरी टीम ने भी आपकी आज की पोस्ट पढ़ी हम लोग थोड़ा तकनिकी काम करते है इस वजह से आपने जो भी लिखा उसकी ससंदर्भ व्याख्या करनी पड़ी, लेकिन लिखा हुवा समझ मे आने के बाद सब ने आपनी मन की शान्ति के लिए २ मिनिट का मौन धारण कर लिया ...... यू भी कह सकते है की हम इस सवाल के लिए तैयार नही थे.
हाल ही मैंने एक फ़िल्म देखी 'सरकार राज' एक बड़ा अच्छा डाइलोग था फ़िल्म मे "परिस्थितिया फैसले पैदा करती है" यहाँ भी यही कुछ हो रहा है. हम प्रगतिशील पारंपरिक समाज होने के कारण न हाथ मे आया आसमान ही छोड़ सकते है और ना ही पैरो के निचे की ज़मीन को जाने दे रहे है, हम क्षितिज को पाने की होड़ मे है.
यहाँ स्तिथि-परिस्थिति थोड़ा हास्य भी पैदा कर रही है, पहले लड़की ही पराया धन मानी जाती रही है... अब इस नीड़ छोड़ के चलते लड़को के बारे मे समाज का क्या ख्याल है, शायद परिवार कल्याण का नारा 'लड़का लड़की एक समान' ऐसे नही तो वैसे पूरा होता दिख रहा है.
सुजान सर की कुछ पंक्तिया याद आ गई है ....... "रुकने का नाम मौत है, चलना है जिन्दगी| गिरना नही है, गिर के संभालना है जिन्दगी| चल चल रे राही चल रे ..... चल चल रे राही चल रे..... "