मैं हिन्दी दिवस को सरकारी चोंचला मानता हूँ सो इस दिन होने वाले औपचारिक आयोजनों से बचने का यथा-सम्भव प्रयास करता हूँ । यह अलग बात है कि हर साल कहीं न कहीं, कोई न कोई कृपालु मेरे इन प्रयासों को असफल और व्यर्थ कर देता है । बीमा व्यवसाय के कारण बना और बढ़ा परिचय क्षेत्र इस ‘असफलता’ का सबसे बड़ा ‘मारक कारण’ होता है । मित्रों का लिहाज पालने में अपने मन के प्रतिकूल व्यवहार कर लेता हूँ ।
इस साल ऐसा कुछ भी नहीं हुआ लेकिन अचानक ही मुझे लगा कि इस साल ही मैं हिन्दी की वास्तविक दशा और ताकत देख पाया । इस साल 14 सितम्बर को मैं, उत्तर प्रदेश के मुजफरनगर से सटे तीर्थ क्षेत्र शुकताल में था । हम बैरागियों के राष्ट्रीय संगठनों ‘अ.भा.वैष्णव ब्राह्मण सेवा संघ’ और ‘अ.भा.वैष्णव ब्राह्मण कल्याण ट्रस्ट’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणियों की बैठकें वहीं आयोजित थीं । सेंधवा वाले सतीश वैष्णव के स्नेहाधिकार भाव के अधीन मुझे वहाँ जाना पड़ा ।
कहने भर को ये बैठकें औपचारिक थीं, वास्तव में इन दोनों बैठकों में उन सबने भाग लिया जो वहाँ उपस्थित थे । कोई तीन सौ स्त्री-पुरुष बैरागी वहाँ थे । उत्तर प्रदेश और हरियाणा के लोग अधिक संख्या में थे और इनमें भी देहातों के लोग ज्यादा थे । इनके बाद, संख्या की दृष्िट से राजस्थान के लोग ज्यादा थे । दोनों बैठकों की विषय सूचियां कागजों तक ही सिमट कर रह गई और जिसे जो जरुरी लगा, उन्मुक्त भाव से बोला । औपचारिकता अधिक देर तक बाँधे नहीं रख सकती । आदमी बड़ी जल्दी अपनी वास्तविकता में आ जाता है । फिर, बात जहाँ अपने मन की अभिव्यक्ति की हो तो यह ‘जल्दी’ और अधिक जल्दी आ जाती है । सो वहाँ हुए भाषणों में से सबकी शुरुआत हुई तो हिन्दी में लेकिन प्रत्येक व्यक्ति, कुछ ही क्षणों में अपनी-अपनी वाली हिन्दी पर उतर आया । लिहाजा वहाँ उत्तर प्रदेश के ‘अइयो, जइयो, का बतावैं’, हरियाणावी के ‘तन्ने, मन्ने, सै’ और राजस्थानी के ‘हे के नी सा’ जैसे देशज तकिया कलामों से लबालब भाषण हुए । हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय सचिव और हम कुछ लोगों ने अपनी पूरी बात लगभग खालिस हिन्दी में कही । लेकिन सच मानिए, खालिस हिन्दी वाले भाषण उस कार्रवाई में या तो ‘मखमल में टाट के पैबन्द’ लग रहे थे या फिर बिना गन्ध वाले, सुन्दर कागजी फूल । इन सबमें उत्कृष्ट शब्दावली तो थी लेकिन सब कुछ यान्त्रिक और बनावटी लगता रहा जबकि अनजान, पद-विहीन, और हमें शायद ही फिर कभी मिलने-नजर आने वाले लोगों की बातों में जिन्दगी धड़क रही थी और वे सब ही असली, प्राकृतिक तथा सहज थे । भाषा की भिन्नता, बोलियों के देश शब्दों ने सम्प्रेषण में तनिक भी व्यवधान पैदा नहीं किया । हममें से किसी को भी एक बार भी नहीं पूछना पड़ा कि किसने क्या कहा । सबको, सबकी बातें पहली ही बार में समझ में आ गईं । हरियाणवी में सम्मान सूचक सम्बोधन नाम मात्र को भी नहीं होते । वहाँ ‘आप’ अनुपस्थित रहता है और ‘तू’ का साम्राज्य बना रहता है । किनारों पर बैठ कर जब-जब भी हरियाणवी सम्वाद सुने, तब-तब हर बार यह ‘तू-तड़ाक’ अटपटी और आपत्तिजनक लगी । लेकिन सच कहता हूँ, उस दिन शुकताल में, हरियाणा से आए एक भी बैरागी ने मुझे ‘आप’ नहीं कहा और मुझे एक बार भी अटपटा नहीं लगा । वहाँ ‘आप’ सुनना अपमानजनक लगता । ‘तू’ ठेठ अन्तर्मन की तलहटी से, आत्मीयता की सम्पूर्ण ऊष्मा से आ बाहर आ रहा था और ‘आप’ होठों से आगे जगह नहीं बना पा रहा था । मजे की बात यह रही कि एक भी भाषण बिना अंग्रेजी वाला नहीं था लेकिन वह वहाँ ‘सहज हिन्दी’ के रुप में ही थी । वहाँ अंग्रेजी का पाण्डित्य प्रदर्शन कहीं नहीं था । देहातों में अंग्रेजी जितनी रच-बस गई है, उसी मात्रा, अनुपात और स्वरुप में वह वहाँ थी । दो दिनों में हुई इन दोनों बैठकों से उपजा ‘लोकोत्सव’ का आनन्द गंगा किनारे की बालू के कण-कण में व्याप्त था । मुझे अचानक ही अनुभव हुआ कि हम सबकी हँसी भी प्राकृतिक और सहज हो आई थी । हम सब अनायास ही अनौपचारिक हो आए थे ।
लौटते में मुझे कोई तीन घण्टे दिल्ली हवाई अड्डे पर बिताने पड़े । हम दोनों (सतीश और मैं) पूरी तरह फुरसत में थे । सारे विषय समाप्त हो चुके थे । ऐसे में बतियाने के लिए अपने वालों की आलोचना ही एक मात्र विष्ाय रह जाता है जिससे हम दोनों ही बराबर बचते रहे ।
एक शाम पहले दिल्ली में विस्फोट हो चुके थे और शुकताल में हमें न तो अखबार मिले थे और न ही टेलीविजन । सो, अखबार की तलाश में मैं, हवाई अड्डे स्थित किताब की दुकान पर गया । मुझे लगा, शुकताल से मैं सीधे विदेश में, अमरीका या ब्रिटेन में आ गया हूँ । पूरी दुकान पुस्तकों से सजी, अटाटूट पड़ी थी । लेकिन हिन्दी की किताबें या अखबार कहीं नहीं थे । मैं अत्यधिक आलसी हूँ । सो, तलाश करने के बजाय दुकान पर मौजूद दोनों युवकों से ही पूछ लिया । दोनों ने ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ और मशीनी आवाज में बताया कि मैं हिन्दी किताबों की तलाश न करुँ । मुझे झटका लगा । अब मैं ने गौर से दुकान में रखी पुस्तकों पर नजर फेरी । कोने की एक आलमारी में ‘योग’ पर एक पुस्तक नजर आई । बाकी सब कुछ अंग्रेजी ही अंग्रेजी । दुकान में सात-आठ स्त्री-पुरुष और थे । सब अपने आप में मगन ।
हिन्दी की अनुपस्थिति से उपजी हताशा ने मुझे विकल कर दिया । सूझ नहीं पड़ा कि क्या करुँ । हताशा से उबरने के लिए परिहास का पल्ला पकड़ा । दोनों युवकों से पूछा कि मैं भारत में ही हूँ या किसी अन्य देश में ? दोनों ने अनसुनी कर दी । मैं ने फिर पूछा कि वे दोनों आपस में और ग्राहकों से किस भाषा में बात करते हैं । दोनों ने कहा - ‘हिन्दी में ही ।’ मैं ने पूछा कि फिर हिन्दी की किताबें दुकान में क्यों नहीं हैं ? जवाब में उन्होंने कहा - ‘मालिक से पूछिएगा । हम दोनों तो नौकरी कर रहे हैं ।’ इससे अधिक सम्वाद की सम्भावना वहाँ थी ही नहीं ।
चुपचाप दुकान से निकल आया । वहाँ का वातानुकूलित वातावरण अचानक ही मुझे बोझिल और पराया लगने लगा । लगा, मैं अब तक तो माँ की गोद में था । अब विमाता के आँगन में उपेक्षित, अचिह्ना खड़ा हूँ ।
सो, इस साल हिन्दी दिवस पर आधा दिन ‘देस’ में और कोई तीन घण्टे अपनी ही धरती पर बसे ‘परदेस’ में रहा ।
शुकताल में, आयोजन स्थल पर यथेष्ठ साफ-सफाई नहीं थी, अव्यवस्था ही व्यवस्था थी । हर कोई पास वाले पर नजर रखे हुए था और उसकी चिन्ता, पूछ-परख कर रहा था, उससे मिल कर उसे जानने की कोशिश कर रहा था । शिष्टाचार, शालीनता और सभ्यता की औपचारिकता के दबाव से उपजने वाली शान्ति वहाँ बिलकुल नहीं थी, हम सब अपनी-अपनी नापसन्दगियाँ जता-बता पा रहे थे । हम सब वहाँ प्राकृतिक और सहज थे । हम अपने घर में थे । वहाँ अपनी बोली और भाषा हमारे साथ थी ।
दिल्ली हवाई अड्डे पर सब कुछ भव्य, शान्त, शालीन, साफ-सुथरा था । लेकिन सब कुछ ऐसा कि आदमी आतंकित हो कर सभ्य, शिष्ट, शालीन बने - जबरिया, असहज होकर ।
कैसा हो कि हिन्दी दिवस की खानापूर्ति करने वाले आयोजन, देस में बसे ऐसे परदेसों में हों ?
हमारे मजे हैं। हिन्दी की शुद्धता के प्रति कोई आग्रह/दुराग्रह/मोह/विमोह न होने से दाल-बाटी वाली हिन्दी और पित्जा वाली अंग्रेजी - दोनो के मजे मिलते हैं।
ReplyDeleteहिन्दी सहज बहनी चाहिये!
वास्तविक हिन्दी तो जनता में ही बसती है। इन सब से मिल कर ही हिन्दी बनती है। देशज शब्दों के बिना हिन्दी अधूरी है। हिन्दी में रच-बस गए अंग्रेजी शब्दों की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यह प्रक्रिया चलती ही रहेगी।
ReplyDeleteऔर ऐसे विदेश बहुत है भारत में।
वाह, एक ही दिन में देस-परदेस दोनों के दर्शन हो गए!
ReplyDeleteaapney achcha likha hai. hindi bhasha hi istithion ko rekhankit kiya hai. hindi bhasha per maine bhi do post dali hain. fursat miley to dekhiyega
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