अथ बीमा एजेण्ट कथा

यह पोस्ट दिनेशरायजी द्विवेदी को समर्पित है ।

बीमा प्रशिक्षण लेने के लिए दो सितम्बर को भोपाल के लिए निकलने से पहले ‘भोपाल में मिलिए’ शीर्षक मेरी पोस्ट पर द्विवेदीजी ने टिप्पणी की थी - ‘भोपाल यात्रा से हमारे लिए भी कुछ लेकर आएँ, इन्दौर की तरह ।’ यह पोस्ट उनकी इसी टिप्पणी से उपजी है ।


बीमा एजेण्टों को उनके नव व्यवसाय के आधार पर विभिन्न स्तर की क्लब सदस्यता उपलब्ध कराई जाती है । यह भारतीय जीवन बीमा निगम की आन्तरिक व्यवस्था है । अपनी क्लब सदस्यता बनाए रखने के लिए और इस सदस्यता के आधार पर मिलने वाले आर्थिक एवम् अन्य लाभों की प्राप्ति सुनिश्‍िचत करने के लिए हम एजेण्टों को तीन वर्ष में कम से कम एक बार ऐसे प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता है । एजेन्सी के प्रारम्भिक काल में प्रत्येक एजेण्ट ऐसे प्रशिक्षण को अत्यधिक गम्भीरता से लेता है । लेकिन जैसे-जैसे एजेन्सी पुरानी होती जाती है, वैसे-वैसे एजेण्ट शालीग्राम’ होता जाता है और तब ऐसे प्रशिक्षणों को वह गम्भीरता से लेने के बजाय, तकनीकी खानापूर्ति की तरह, बहुत ही हलके से लेने लगता है । कई एजेण्ट तो इस मिथ्या दम्भ के शिकार हो जाते हैं कि उन्हें अब किसी भी प्रशिक्षण की आवश्‍यकता ही नहीं रह गई है । वे कहते पाए जाते हैं - ‘अब तो हम ट्रेनिंग दे सकते हैं ।’ ऐसा कहते समय वे भूल जाते हैं कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती । वे यह भी भूल जाते हैं कि बीमा उद्योग को निजी क्षेत्र के लिए खोल देने के बाद उपजी गला काट प्रतियोगिता, निजी बीमा कम्पनियों की आक्रामक विपणन नीति और सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट वाले इस समय में प्रत्येक की जानकारी प्रति क्षण अधूरी ही हो गई है । इससे भी अधिक गम्भीर बात यह कि ऐसे प्रशिक्षणों की लाभदायक व्यावसायिक उपयोगिता और इस हेतु ‘निगम’ द्वारा किए जाने वाले भारी-भरकम उपक्रम के लिए किए गए सतत् और गम्भीर प्रयत्नों को भी वे भूल जाते हैं । चिन्ताजनक और घातक बात यह है कि ऐसी मानसिकता वाले एजेण्टों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है ।
सो, भोपाल के लिए चलते समय मुझे पल भर भी नहीं लगा था कि एक सार्वजनिक उपक्रम के नितान्त आन्तरिक आयोजन में कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसे सार्वजनिक किया जा सके और जो ‘सर्व जन हिताय’ भी हो । लेकिन द्विवेदीजी की टिप्पणी ने रतलाम से भोपाल तक की यात्रा के दौरान और उसके बाद तीन दिनों के प्रशिक्षण काल में मुझे बराबर सचेत रखा और मुझे आश्‍चर्य हुआ कि ऐसा काफी कुछ रहा जो न केवल एजेण्टों के लिए बल्कि एजेण्टों की दुनिया से बाहर के लिए भी ‘नोटिसेबल’ है ।
अनुशासन और समयबध्दता (पंक्चुलिटी) हमारे प्रशिक्षण केन्द्र की सर्वोच्च प्राथमिकता और चिन्ता होती है । लेकिन मैं ने देखा कि एजेण्ट इस दिशा में दिनोंदिन लापरवाह होते जा रहे हैं । इनमें भी वे लोग आगे हैं जो इस प्रशिक्षण केन्द्र में पहले भी एकाधिक बार प्रशिक्षण ले चुके हैं और यहाँ की परम्पराओं से भली प्रकार परिचित हैं । उनके मुकाबले नए एजेण्ट अधिक चिन्तित, अधिक गम्भीर तथा अधिक सावधान रहते हैं । ‘लेक्चर हाल’ में किसी के लिए कोई आरक्षण नहीं होता । लेकिन अनुशासन की अवहेलना करने वाले पुराने एजेण्ट, अग्रिम पंक्ति पर अपना ‘सहज अधिकार’ मानते हैं और तदनुसार ही आचरण भी करते हैं । जबकि देर से आने वालों को पीछे की कुर्सियाँ मिलनी चाहिए । निश्‍चय ही, यह नए एजेण्टों का सौजन्य और शालीनता के कारण ही सम्भव हो पाता है ।
व्याख्यान के दौरान एजेण्टों के लिए पान, सुपारी, गुटका जैसी चीजों का स्प’ट निशेध किया गया है । लेकिन मुझे यह देख कर आश्‍चर्य और दुख हुआ कि भाई लोग ‘उन्मुक्त-मन और अधिकार भाव’ से इनका सेवन करते हैं और इसी कारण, प्रश्‍नों के उत्तर देने से बचने की कोशिश करते हैं । व्यसन की अधीनता इस सीमा तक कि प्रशिक्षण का मूल लक्ष्य ही ताक पर रख दिया जाए ? मोबाइल आज अनिवार्यता बन गया है । हममें से अधिकांश के पास नवीनतम तकनीक वाले, मँहगे मोबाइल सेट थे लेकिन मुझे यह कहते हुए शर्म आ रही है कि ‘मोबाइल ”श्ष्‍िटाचार’ से हममें से शायद ही कोई परिचित रहा हो । हम मोबाइल तो रखते हैं लेकिन हमें मोबाइल रखना नहीं आता । हमें पढ़ाने वाले प्रत्येक संकाय सदस्य ने, प्रत्येक पीरीयड में सबसे पहले हमें, अपने-अपने मोबाइल बन्द करने के लिए या फिर उन्हें ‘सायलेण्ट मोड’ पर कर देने के लिए अनुरोध किया । लेकिन मुझे तीनों ही दिन, प्रत्येक पीरीयड में यह देख कर शर्म आती रही कि किसी न किसी का मोबाइल बज गया । याने, हमें मोबाइल श्ष्‍िटाचार का न तो ज्ञान है और न ही कहने के बाद भी हम यह ज्ञान स्वीकार करना चाहते हैं । यह स्थिति हमारे बेशर्म और गैर जिम्मेदार होने के अलावा और कुछ भी साबित नहीं करती । मैं इतने पर ही सन्तोष कर सकता हूँ कि मेरा मोबाइल एक बार भी नहीं बजा । लेकिन मेरे लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है । मैं चाहता था कि किसी का मोबाइल न बजे । लेकिन मेरा नियन्त्रण मुझ तक ही सीमित था ।
यहाँ तक तो बात ठीक थी लेकिन हम लोग ‘बेशर्मी’ से आगे बढ़कर ‘सीनाजोरी’ तक पहुँच गए । तय किया गया था कि प्रशिक्षण-व्याख्यान के दौरान जिसका मोबाइल बजेगा वह अगले दिन एक किलो तथा जो मोबाइल पर बात करेगा वह दो किलो मिठाई लाएगा । जाहिर है कि यह प्रावधान ऐसा ‘मीठा दण्ड’ था जो सबके लिए आनन्ददायक था । लेकिन मुझे यह लिखते हुए अत्यधिक पीड़ा हो रही है कि इस मामले में अधिकांश साथी ईमानदार साबित नहीं हुए । केवल एक, सरायपाली शाखा के श्री दीप सिंह प्रेम ने व्यक्तिगत ईमानदारी बरती और सबके लिए मिठाई लाए । बाकी तमाम ‘दोषी’ मित्र, एक दूसरे द्वारा पहले मिठाई लाने की बात कह कर, बड़ी ही ढिठाई से बच निकले । इन तमाम बातों ने मुझे चैंकाया तो जरूर लेकिन उससे अधिक मुझे निराश किया । मेरा मानना है कि हम यदि ‘अच्छा मनुष्‍य’ नहीं हो सकते तो ‘अच्छा व्यवसायी’ भी नहीं हो सकते । उपरोक्त सारी बातें पूरी तरह से व्यक्तिगत ईमानदारी से जुड़ी हुई हैं । हम सब ऐसे एजेण्ट थे जिनकी सालाना कमीशन आमदनी किसी भी दशा में पाँच-सात लाख रुपयों से कम नहीं है । लेकिन हम सौ-दो सौ रुपयों के लिए भी खुद से झूठ बोलते रहे । लेकिन यह संकट किसी एक वर्ग, समुदाय, कौम का नहीं है । जब तालाब का जल स्तर कम होता है तो समूची जल सतह समान रुप से नीचे उतरती है । हम एजेण्ट लोग भी इसी तालाब का हिस्सा हैं सो इस स्खलन से कैसे बच सकते हैं ? लेकिन मैं इस तर्क का हामी नहीं हूँ । हममें से प्रत्येक इसी (कु) तर्क का सहारा लेकर अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है । फिर, मैं तो बीमा एजेण्टों को सबसे अलग और सबसे ऊपर मानता हूँ । हमारा पेशा ‘नोबल प्राफेशन’ है । इसलिए हमारी जिम्मेदारी अन्यों के मुकाबले ‘तनिक अधिक’ नहीं, ‘बहुत अधिक’ है । हमें तो ‘श्रे’ठ आचरण’ प्रस्तुत करना पड़ेगा । ‘व्यक्तिगत आचरण’ ही अन्ततः ‘सामूहिक आचरण’ में बदलता है । यहाँ मैं न तो किसी अपवाद को स्वीकार कर पाता हूँ और न ही उसे चिह्नित कर पाता हूँ । इस मामले में मैं ‘अपवादों का साधारीकरण’ पसन्द करता हूँ । यह ‘दुःसाध्य’ हो सकता है लेकिन ‘असाध्य’ नहीं ।
एक और बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया । प्रत्येक व्याख्यान के दौरान प्रश्‍न पूछने या जिज्ञासा प्रस्तुत करने के लिए कोई तैयार नहीं होता था । हममें से प्रत्येक चूँकि जानता था कि उसका ज्ञान अधूरा है या वह कोई हास्यास्पद प्रश्‍न न पूछ ले (जो कि व्यक्ति के आत्मविश्‍वासविहीन और हीनताबोध से ग्रस्त होने का ही परिचायक है) इसलिए प्रश्‍न पूछने वाले गिनती के ही सामने आए । मेरा अनुभव रहा है कि जिज्ञासा प्रस्तुत करने से ऐसे प्रशिक्षणों की उपयोगिता ‘गुणाकार’ में बढ़ती है । एक व्यक्ति सवाल पूछकर सबकी जानकारी बढ़ाता है । लेकिन इसके लिए सबसे पहले तो अपने को अज्ञानी (और अज्ञानी नहीं तो अल्पज्ञानी तो) मानना पड़ता है । लेकिन वहाँ तो हम सब ‘ज्ञानी’ बनकर पेश आ रहे थे । यही हमारा सबसे बड़ा अज्ञान था ।
सो, जिस यात्रा को मैं मात्र खानापूर्ति मानकर घर से निकला था, उसे द्विवेदीजी ने मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर न केवल उपयोगी और लाभदायक बल्कि मेरे व्यक्तित्व विकास के लिए आजीवन स्मरणीय बना दिया । अब यदि मैं कुछ बेहतर बन पाया तो उसका उसमूचा श्रेय द्विवेदीजी को ही जाएगा ।
मेरी यह पोस्ट आपको अच्छी लगे तो द्विवेदीजी को धन्यवाद दीजिएगा और खराब लबे तो जमकर मेरी खबर लीजिएगा ।

मैं द्विवेदीजी का कृतज्ञ हूँ ।

3 comments:

  1. बहुत खूब रही आपकी ट्रेनिंग. शिष्टाचार की तो बात ही बेमानी सी हों गयी है आधुनिक परिवेश में. खैर, हम आप दोनों ही को धन्यवाद दे देते हैं, इन विचारों और ओब्सेर्वेशन के लिए !

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  2. ग्रुप में जैसे व्यवहार की कल्पना की जा सकती है - वैसा ही नजर आया इस पोस्ट में।
    आत्मानुशासन की कमी व्यापक दीखती है!

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  3. आप का यह आलेख न केवल बीमा एजेण्टों के लिए बल्कि सभी प्रोफेशनल्स के लिए भी उत्तम कक्षा है। मेरे लिए भी बहुत कुछ है इस में। बहुत सी बातें हैं जिन्हें मैं अपने जीवन में अपना कर स्वयं के जीवन में सुधार का प्रयत्न कर पाऊँगा। इसे मैं कोटा के बीमा एजेंट प्रशिक्षण केन्द्र पहुँचा सकूँ तो शायद इस का वास्तविक उपयोग भी हो सके।

    आप को बहुत बहुत धन्यवाद, कि आप ने भोपाल से कुछ हीरे लाकर सोंपे हैं।

    एक शिकायत भी, आलेख के आरंभ में और बार-बार मेरे नाम का उल्लेख मुझे अच्छा नहीं लगा।

    अब धन्यवाद ज्ञापित करने का कोई अर्थ तभी है जब मैं इस आलेख में प्रदर्शित कम से कम एक त्रुटि को मेरी जीवनचर्या से अलग कर सकूँ।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.