सुन्दरता की कोई सुनिश्चित और सुस्पष्ट परिभाषा अब तक तय नहीं हो पाई है। सबके पास अपनी-अपनी परिभाषा है। वह उक्ति ही ठीक लगती है कि सुन्दरता की परिभाषा तो वस्तुतः देखनेवाले की आँख की पुतली में ही समाई हुई है। आज शाम, पुरानी फिल्म ‘अनुभव’ देखने के दौरान मेरी उत्तमार्द्धजी की एक टिप्पणी ने यह बात दिला दी।
‘अनुभव’ नाम की दो फिल्में बनी हैं। पहली 1971 में, तनूजा, संजीव कुमार, ए. के. हंगल, दिनेश ठाकुर अभिनीत। बसु भट्टाचार्य इसके निदेशक और रघु रॉय संगीतकार हैं। दूसरी ‘अनुभव’ 1986 में बनी जिसमें पद्मििनी को ल्हापुरे, शेखर सुमन, ऋचा शर्मा मुख्य भूमिकाओं में थे। काशीनाथ इसके निर्देशक और राजेश रोशन संगीतकार हैं। यह फिल्म, कन्नड़ में बनी ‘अनुभव’ की हिन्दी प्रतिकृति है। मैं बात कर रहा हूँ पहली, 1971 में बनी ‘अनुभव’ की।
आज शाम ‘एवरग्रीन क्लासिक’ चेनल पर यह फिल्म शुरु हुई तो हम पति-पत्नी अपने सारे काम छोड़ कर इसे देखने बैठ गए। फिल्म देखते-देखते उत्तमार्द्धजी ने कहा - ‘ये तनूजा कितनी सुन्दर है? काजल (या कि काजोल) इसी की बेटी है ना? लोग उसकी खूबसूरती पर मरे जाते हैं लेकिन तनूजा के सामने तो काजल कुछ भी नहीं।’ मैं फिल्म देखने में मगन था। कोई व्यवधान नहीं चाह रहा था। सो एक छोटी सी ‘हूँ’ करके रह गया। लेकिन ‘हूँ’ करते ही कोई तीस-चालीस बरस पीछे चला गया।
ठीक-ठीक तो याद नहीं लेकिन यह 1980 के आसपास की बात होगी। मेरे कस्बे के नेहरू स्टेडियम में बहुत बड़ा मुशायरा हुआ था। बिलकुल ही याद नहीं कि उसमें कौन-कौन शायर आए थे। लेकिन संचालक का नाम मैं अब तक नहीं भूल पाया हूँ। उनका नाम सकलैन हैदर था। किसी मुशायरे/कवि सम्मेलन का वैसा संचालक मैं उसके बाद अब तक नहीं देख/सुन पाया हूँ। शायर अपनी रचना पढ़ कर जैसे ही बैठते, सकलैन हैदर उनकी पूरी की पूरी रचना ऐसे दोहरा देते थ। केवल दोहराते ही नहीं, इतनी सहजता, धाराप्रवहता और समुचित शब्दाघात से दहराते मानो यह उन्हीं ने लिखी हो।
संचालन के दौरान उन्होंने हिन्दी-उर्दू को लेकर चल रही बातों पर टिप्पणी करते हुए उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं को ‘हिन्दी की बेटियाँ’ बताते हुए जो कहा था वह मुझे अब तक शब्दशः याद है। उन्होंने कहा था - ‘ उर्दू और दूसरी हिन्दी जबानें यकीनन हिन्दी की बेटियाँ हैं। लेकिन इस सच का क्या कीजै कि बेटियाँ हमेशा माँ से ज्यादा जवान और ज्यादा खूबसूरत होती हैं।’ समूचा श्रोता समुदाय अश्-अश् कर तालियों से आसमान गुँजा रहा था। बाद के बरसों में, सकलैन सा‘ब की यह टिप्पणी मैंने कई बार, बार-बार काम में ली और प्रशंसा पाई। लेकिन सकलैन सा‘ब का हवाला देने की ईमानदारी मैंने हर बार बरती।
मेरी उत्तमार्द्धजी की टिप्पणी के जवाब में ‘हूँ’ करते ही मुझे सकलैन सा’ब और उनकी टिप्पणी की याद हो आई। तनूजा को देखते हुए उत्तमार्द्धजी यदि (तनुजा की सुन्दरता को लेकर) कुछ नहीं कहती तो कोई बात नहीं होती। तब यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वे ‘नारी न मोहे नारी के रूपा’ की ईर्ष्या भावना के अधीन चुप हैं। लेकिन वे माँ के मुकाबले बेटी को कम सुन्दर बता रही थीं। मैं विचार में पड़ गया। दशकों पहले सकलैन सा’ब की बात मुझे स्वाभाविक और प्राकृतिक सच लगी थी। अब भी लग रही है। लेकिन उत्तमार्द्धजी की बात सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया। अब, सकलैन सा’ब की बात मुझे एक शायर की साहित्यिक उक्ति लग रही थी और उत्तमार्द्धजी की बात (एक औरत द्वारा दूसरी को अधिक सुन्दर बताना) ज्यादा सच।
फिल्म समाप्त हुए दो घण्टे से अधिक का वक्त हो रहा है। मैं असमंजस से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ। मैंने तनूजा और उनकी बेटी काजल को कभी इस तरह, सुन्दरता के पैमाने पर नहीं तौला।
लिहाजा, मैं सबसे पहले सुनी उक्ति पर ही अन्तिम भरोसा कर रहा हूँ - सुन्दरता देखनेवाले की आँख की पुतली में ही समाई हुई है।
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(पोस्ट तो यहीं खत्म हो गई लेकिन इस पुछल्ले का आनन्द ले लीजिए। तनुजा अपने समय की सर्वाधिक ‘बिन्दास’, चुलबुली और अपनी मनमर्जी की मालिक अभिनेत्री के रूप में पहचानी जाती थी। आज से कोई चार दशक पहले ‘हॉट पेण्ट’ पनहन कर उन्होंने फिल्मी दुनिया में सनसनी मचा दी थी। अपनी फिल्मों की नायिकाओं के साथ करने के अनुभव सुनाते हुए संजीव कुमार ने कहा था - ‘तनुजा के साथ काम करते हुए बराबर लगता रहा कि फिल्म में दो हीरो हैं।’)
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आपके लेख ने फ़िल्म के शानदार गीत याद दिला दिये । मेरी जा मेरी जा न कहो मुझको और कोई चुपके से आके ( दोनों गीता दत्त जी के गाये हुए लाजवाब गीत ) वाकई 30- 35 साल पीछे चली गई थी ज़िन्दगी ।
ReplyDeleteआपके लेख ने फ़िल्म के शानदार गीत याद दिला दिये । मेरी जा मेरी जा न कहो मुझको और कोई चुपके से आके ( दोनों गीता दत्त जी के गाये हुए लाजवाब गीत ) वाकई 30- 35 साल पीछे चली गई थी ज़िन्दगी ।
ReplyDeleteसर आप भी हद करते हैं । लिख दिया कि 'नहीं पढ़ेंगे तो भी चलेगा' और उम्मीद करते हैं कि मैं न पढ़ूँ?
ReplyDeleteसर मैं भी उसी समाज का हिस्सा हूँ जिसमें जहाँ 'अंदर आना मना है' जहाँ लिखा हो वहाँ व्यक्ति कम से कम एक बार जाकर अवश्य देखता है। पर्दा लगा हो तो उसके पीछे झाँकने की कोशिश भी करता है।
"पाँचवी सिम्त नजूमी ने इशारा करके,
शहजादे कहा था के उधर मत जाना" मगर शहजादा गया था .....!
बहरहाल यह एक वास्तविकता है कि 'सुंदरता' का कोई निश्चित मापदंड या पैमाना निर्धारित नहीं किया जा सकता। यह व्यक्ति की उम्र, समझ और परिपक्वता के अनुसार भी परिवर्तित या निर्धारित हो सकता है। सब इस पर एकमत भी नहीं हो सकते।
वैसे तनुजा का जहाँ तक सवाल है उन्होंने ज्वेल थीफ़ में जो रोल किया है उसमें वे मादकता का भाव उत्पन्न करने में पूरी तरह से सफल रही हैं तो ‘हाथी मेरे साथी’ तक आते आते चुलबुलेपन और भावप्रधान अभिनय में अपने उत्कर्ष पर दिखाई देती हैं। काजोल वर्तमान दौर में शाहरुख के साथ प्रेम के एंद्रिक स्वरूप को सामने लाने वाली फ़िल्मों के दौर में(DDL J) आज की युवा पीढ़ी के मानस में हमारे दौर में हमारे मन में घर कर चुकी राजकपूर-नर्गिस की जोड़ी की तरह जगह बना चुकी हैं। वैसे कल और आज के दौर की फ़िल्मों में टेक्निक की भी बड़ी भूमिका हो गई है। टेक्निक अब इतनी आगे जा चुकी है कि कई बार अभिनय की बारीकियों पर आज के दर्शकों का ध्यान भी नहीं जा पाता।
बहरहाल आपका लेख व पूरा विश्लेषण पढ़कर अच्छा लगा।
खयाल अपना,अपना ओर नजर अपनी, अपनी कोई दीवाना लगता कोई याराना लगता , आपने बहुत ही सुंदरता से वर्तमान सुंदरता का तुलनात्मक चित्रण किया ।
ReplyDeleteआपकी लेखन भी अति सुन्दर है ।
ReplyDeleteजो आपके मन को भा जाए वही सुन्दर है।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा है " जाकी रही भावना जैसी प्रभु, मूरत देखी तिन्ह तैसी"
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मन्मथ नाथ गुप्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteBadhiya line hain, kya aap book publish krana chahte hain,
ReplyDeletePublish Online Book in only 30 days