सम्बन्ध काम में आते हैं

(यह लेख मैंने, 27 सितम्बर 2014 को, भारतीय जीवन बीमा निगम की गृह पत्रिका ‘योगक्षेम’ में प्रकाशनार्थ भेजा था। अब तक इस पर किसी निर्णय की सूचना नहीं है। शायद इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया।  इसे यहाँ केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि सुरक्षित रह सके और वक्त जरूरत काम आए।)  

‘बीमा’ ऐसा व्यापार-व्यवहार है जो पूरी तरह भावनाओं पर आधारित है। हम कोई भौतिक वस्तु नहीं बेचते। हम ‘भावी’ (भविष्य) की अच्छी-बुरी स्थितियों की कल्पना को अनुभूति में बदल कर उसके प्रभावों को उकेरते हैं और लोगों को बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराते हैं। यह सचमुच में कठिन काम है। इसका सर्वाधिक रोचक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि अपना बीमा हमें देकर ग्राहक समझता है कि वह हमें उपकृत (या सहयोग) कर रहा है जबकि वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत होती है। जाहिर है कि हमारे व्यवसाय का चरित्र और इसकी आवश्यकताएँ और इसका व्यवहार अन्य व्यापारों/व्यवसायों से सर्वथा भिन्न है। अन्य व्यापारों/व्यवसायों में तो सामान की गुणवत्ता के आधार पर ग्राहक अपनी राय बना सकता है किन्तु हमारे व्यवसाय का एकमात्र आधार ‘ग्राहक सम्बन्ध’ ही होता है। इसीलिए, अन्य व्यापारों/व्यवसायों की तुलना में हमारा काम, सबसे हटकर, अनूठा है।

अभिकर्ता के रूप में कस्बाई स्तर पर मेरा अनुभव है कि बीमा बेचने के बाद यह समझ लिया जाता है कि हमारा काम पूरा या समाप्त हो गया है। मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता। कभी लगा ही नहीं। मेरी तो यह सुनिश्चित धारणा है कि बीमा विक्रय पूरा होने के क्षण से हमारा काम शुरु होता है। जितनी अवधि की पॉलिसी हमने ग्राहक को बेची है, कम से कम उतनी अवधि के लिए उस ग्राहक से हमारा नाता-रिश्ता जुड़ जाता है। हम उसके प्रति प्रतिबद्ध हो जाते हैं। कुछ इस तरह कि मानोे, (पॉलिसी अवधि के लिए) हम या तो उसकी बेटी अपने घर में ले आए हैं या अपनी बेटी उसके घर में दे दी है। निजी स्तर पर यह भावना ही मेरे ग्राहक सम्बन्ध का आधार होती है। 

हमारा एक ग्राहक केवल ‘एक ग्राहक’ नहीं होता। वह ‘ग्राहकों की लम्बी श्रृंखला का सूत्र’ होता है। एक ग्राहक हमें असंख्य ग्राहक दिला सकता है। वस्तुतः हमारा प्रत्येक ग्राहक, ‘ग्राहकों की खदान’ होता है। किन्तु यह सब तभी सम्भव हो सकता है जब हम ग्राहक से निरन्तर और जीवन्त सम्पर्क बनाए रखें। ‘निगम’ के अभिकर्ता के रूप में काम करते हुए मुझे चौबीस बरस पूरे हो रहे हैं। अपने ग्राहक-सम्बन्धों को सुदीर्घ और स्थायी बनाने के लिए मैंने कुछ ‘उपक्रम’ प्रायोगिक रूप से आजमाए। इनसे मुझे खूब सहायता और सफलता मिली। वही यहाँ परोस रहा हूँ।

अपने ग्राहक के और उसके परिजनों (पति/पत्नी, पुत्री/पुत्र, माता-पिता, भाई-बहनों) के जन्म वर्ष-गाँठवाले प्रसंग पर उन्हें बधाई-अभिनन्दन और शुभ-कामना सन्देश अवश्य दीजिए। आज के समय में यह काम फोन, एसएमएस, वाट्स एप के जरिए किया जा रहा है। किन्तु ये सारे माध्यम केवल सम्बन्धित व्यक्ति तक ही सीमित होकर रह जाते हैं और कुछ समय बाद इन्हें ‘डिलिट’ किया जा सकता या भुलाया जा सकता है। इसलिए यह सब तो करें ही किन्तु डाक से अथवा कूरीयर से एक पत्र अवश्य भेजें। इसके लिए मँहगा कार्ड भेजना जरूरी नहीं। पचास पैसोंवाला पोस्टकार्ड भी चलेगा। यह पत्र, प्रसंग निकल जाने के बाद भी ग्राहक के ड्राइंग रूम में पड़ा रहेगा और केवल उसके परिजन ही नहीं, उसके मिलनेवाले भी इसे देखेंगे। यह पत्र, हमारी अनुपस्थिति में भी हमारी उपस्थिति दर्ज कराता रहेगा। सम्भव हो तो पत्र देने का यह काम व्यक्तिगत रूप से जाकर देने की कोशिश की जानी चाहिए। विवाह वर्ष-गाँठ प्रसंग को भी इसमें शरीक किया जाना चाहिए।

हमारे किसी ग्राहक ने यदि कोई उपलब्धि हासिल की हो या कोई प्रशंसनीय काम किया हो तो इसके लिए भी उसे बधाई देने में न तो देर करें और न ही कंजूसी। यह काम अकेले में कभी न करें। उसके या अपने परिजनों/परिचितों की उपस्थिति में करें। यह बधाई/प्रशंसा लिखित में भी दें। हमारे यहाँ तो देवता तक प्रशंसा के भूखे होते हैं। ऐसे में सामान्य मनुष्य की बात ही क्या! अपनी प्रशंसा सबको अच्छी लगती है, गुदगुदाती है। यह प्रशंसा यदि अपने मिलनेवालों के बीच हो तो इसका आनन्द हजार गुना बढ़ जाता है। अपने ग्राहक की इस उपलब्धि का जिक्र और प्रशंसा, उसकी गैरहाजिरी में, उसके मिलनेवालों से भी करें। लेकिन प्रशंसा और चापलूसी में जमीन-आसमान का अन्तर होता है और सामनेवाला इस अन्तर को खूब अच्छी तरह समझता है। इसलिए, आपकी प्रशंसा, प्रश्ंासा ही होनी चाहिए। चापलूसी नहीं।

किसी मोहल्ले में जाएँ तो वहाँ रहनेवाले अपने पूर्व ग्राहक से मिलने की जतन अवश्य करें। कोई पूर्व ग्राहक न हो और कोई सम्भावित ग्राहक हो तो उससे भी जरूर मिलें। कहिए कि केवल मिलने के लिए आए हैं। काम से मिलनेवाले को कोई याद नहीं करता लेकिन आज के जमाने में उन लोगों को अवश्य याद किया जाता है जो बिना काम के, केवल सद्भावनावश मिलते हों। बिना काम के इस तरह मिलना, खूब काम भी दिलाता है और सद्भावना भी।

आपके ग्राहक के परिवार में उपस्थित ‘जनम-मरण-परण’ (जन्म-मृत्यु-विवाह) प्रसंगों पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें और कम से कम बार जरूर कहिए - ‘मुझ जैसा कोई काम हो तो अवश्य बताइएगा।’ अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ कि काम तो शायद ही कोई बताता हो लेकिन यह कभी नहीं भूलता कि आपने उसकी सहायता करने की इच्छा जताई थी।

अपने ग्राहक के रिश्तेदारी वाली जगह (खास कर तब जबकि वह किसी दूसरे कस्बे/शहर में हो) जाएँ तो पूछिए कि आपके ग्राहक को कोई सामान/सन्देश तो नहीं भिजवाना है? मेरा अनुभव है कि निन्यानबे प्रतिशत से भी अधिक मामलों में ‘नहीं! नहीं! कुछ नहीं भेजना है।’ वाला जवाब ही मिलता है। आपके द्वारा की गई यह पूछ-परख, ग्राहक के मन में आपकी पूछ-परख बढ़ाती है।

ग्राहक हमारी पूँजी और मूल्यवान परिसम्पत्ति ही नहीं, ‘अपरिमित सम्भावना’ भी है। इस सबकी दूखभाल खूब अच्छी तरह, पूरी चिन्ता और सतर्कता से की जानी चाहिए। हमारी बेची गई पॉलिसी, एक फाइल बनकर ग्राहक की आलमारी में बन्द हो जाएगी। ऐसे में हमारी मुख्य चिन्ता और मुख्य काम यही है कि हमारी अनुपस्थिति में भी हमारी उपस्थिति ग्राहक के परिवार में अनुभव की जाती रहे। इसका एक रास्ता और है - ‘सम्बन्ध’ को ‘सम्बन्धी’ में बदलना। इस समय मुझे, कोई चालीस बरस पहले छपा, ‘निगम’ का एक विज्ञापन याद आ रहा है। यह उस विज्ञापन की विशेषता ही थी कि उसने मेरा ध्यान तब आकर्षित किया था जब मैं ‘निगम’ से मेरा कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था और इस क्षण भी याद आ रहा है जब मैं ‘निगम’ का एक छोटा सा, ध्वज-वाहक हूँ। इस विज्ञापन ने एक परिवार का चित्र (फेमिली फोटोग्राफ) छपा हुआ होता था और शीर्षक होता था - ‘इस चित्र में बीमा एजेण्ट को पहचानिए।’ विज्ञापन-शीर्षक के जरिए पूछा गया यह सवाल ही मुझे ‘ग्राहक सम्बन्ध’ का सूत्र थमाता अनुभव हो रहा है। ग्राहक के साथ हमारा सम्बन्ध और व्यवहार ऐसा हो कि वह हमें अपने परिवार का हिस्सा समझने लगे। गोया, ‘सम्बन्ध’ को ‘सम्बन्धी’ में बदल दिया जाए। लेकिन इसके समानान्तर, तब हमें यह वास्तविकता भी चौबीसों घण्टे याद रखनी है कि हम अपने ग्राहक के ‘सम्बन्धी’ नहीं हैं, उसके ‘सम्बन्धी’ होने की सीमा तक व्यवहार कर रहे हैं। यह बात इसलिए भी याद रखना जरूरी है कि ‘सम्बन्धी’ से सम्बन्ध बनाए रखना हमारी पारिवारिक/सामाजिक विवशता होती है। हममें से अधिसंख्य लोग अपने अनेक ‘सम्बन्धियों से त्रस्त’, उनसे मुक्ति की कामना करते हुए मिल जाएँगे। इसलिए हम खुद को ‘सम्बन्ध’ तक ही सीमित रखें। ‘सम्बन्धी’ होने की अनुभूति अवश्य कराते रहें किन्तु ‘सम्बन्धी’ कभी नहीं बनें। हम व्यवसायी हैं और व्यवसाय में जहाँ एक ओर ‘सम्पर्कों/सम्बन्धों की घनिष्ठता’ जरूरी है वहीं ‘न्यूनतम दूरी’ भी जरूरी है। हमें अपने ग्राहक से सम्बन्ध बनाना है, बनाए रखना है, दीर्घावधि तक बनाए रखना और मधुरता, आत्मीयता तथा सौहार्द्रता के साथ बनाए रखना है। ‘सम्बन्धी’ काम आएँ, न आएँ, ‘सम्बन्ध’ अवश्य काम में आते हैं। मेरे बड़े भाई साहब ने यही बात इस तरह कही है -

जीवन की फटी चदरिया में, पैबन्द काम में आते हैं।
सम्बन्धी काम नहीं आते हैं, सम्बन्ध काम में आते हैं।।
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1 comment:

  1. आदरणीय वैरागी जी, यह अदभूत परिकल्पना गागर में सागर का पर्याय है।

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