ये चमत्कारी प्रेरणा-पुंज


(दिनांक 18 मार्च  2016 को मैंने यह आलेख, भारतीय जीवन बीमा निगम की गृह पत्रिका ‘योगक्षेम’ में प्रकाशनार्थ भेजा था। अब तक इस पर किसी निर्णय की सूचना नहीं है। शायद इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया। यहाँ केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि सुरक्षित रह सके और वक्त-जरूरत काम आए।)

क्या है ‘एमडीआरटी’?
(इस आलेख में ‘एमडीआरटी’ शब्द प्रयुक्त किया गया है। ‘मिलियन डॉलर राउण्ट टेबल’ के प्रथमाक्षरों से बना संक्षिप्त रूप है। यह बीमा एजेण्टों के उत्कृष्ट विक्रय कौशल का पैमाना है और इस पात्रता के धारक एजेण्टों को पूरी दुनिया में विशिष्ट हैसियत तथा अतिरिक्त महत्व प्राप्त है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस समय समूची दुनिया में लगभग 32000 एजेण्ट ही यह पात्रता अर्जित किए हुए हैं जो दुनिया के एजेण्टों का लगभग एक प्रतिशत है। वर्ष 2014 में भारतीय जीवन बीमा निगम ने इस सूची में पहला स्थान पाया था। उस वर्ष इसके 6730 एजेण्ट एमडीआरटी बने थे। 
इसकी सदस्यता प्राप्त करने के लिए एजेण्ट को केलेण्डर वर्ष में (याने, पहली जनवरी से 31 दिसम्बर की अवधि में) एक निश्चित रकम की कमीशन आय अर्जित करनी पड़ती है या इन बारह महीनों में एक निश्चित रकम की ‘प्रथम प्रीमीयम आय’ (वर्ष के दौरान बेचे गए नए बीमों की, पहले वर्ष की प्रीमीयम) का आँकड़ा पार करना होता है। यदि कोई ‘एकल प्रीमीयम’ (सिंगल प्रीमीयम) पालिसी बेची जाती है तो उस प्रीमीयम की 6 प्रतिशत रकम ही ‘प्रथम प्रीमीयम आय’ गिनती में ली जाती है। केलेण्डर वर्ष 2019 के लिए पहले वर्ष की कमीशन आय 9,34,400 रुपये तथा पहले वर्ष की प्रीमीयम आय 37,37,600 रुपये निर्धारित है। 
दुनिया के लगभग अस्सी देशों की लगभग 430 बीमा तथा वित्तीय कम्पनियों/संस्थानों के इस संगठन की स्थापना 1927 में हुई थी।)

मंजिल उन्हीं को मिलती है,
जिनके सपनों में जान होती है।
सिर्फ पंखों से कुछ नहीं होता,
हौसलों से उड़ान होती है।

ये पंक्तियाँ हम सबने कम से कम एक बार तो सुनी ही होंगी। कोई ताज्जुब नहीं कि परस्पर चर्चाओं के दौरान या समूह चर्चाओं में हममें से कुछ ने इन्हें प्रयुक्त भी किया हो। लेकिन इन पंक्तियों को सच करनेवाले कितने कर्मठों को कितने लोगों ने देखा होगा? दूसरों की तो कह नहीं सकता किन्तु अपनी कह रहा हूँ - हाँ! मैंने इन पंक्तियों को साकार करनेवाले तीन कर्मठों को देखा है। उनसे मिला भी हूँ। 

उनचालीस वर्षीय अभिकर्ता जयदीप ने 2015 में एमडीआरटी की पात्रता अर्जित की। यह उनका लगातार आठवीं बार एमडीआरटी था। उल्लेखनीय बात यह कि उन्होंने अगस्त 2015 में ही एमडीआरटी कर लिया था और वे अपने मण्डल में शीर्ष स्थान पर रहे। अभिकर्ताद्वय जी. चन्द्रशेखर और दिलजीतसिंह ने भी वर्ष 2015 में एमडीआरटी पात्रता अर्जित की। चन्द्रशेखर ने लगातार तीसरी बार और दिलजीतसिंह ने एक वर्ष के व्यवधान के बाद तीसरी बार एमडीआरटी किया। लेकिन इसमें अनोखा क्या? शायद कुछ भी नहीं। क्योंकि एमडीआरटी करनेवाले अभिकर्ताओं का कारवाँ देश  में प्रति वर्ष बढ़ता ही जा रहा है। किन्तु इन तीनों अभिकर्ताओं की यह उपलब्धि, देश के बाकी तमाम अभिकर्ताओं से तनिक हटकर है। ये तीनों ही अभिकर्ता, ‘निगम’ की अण्डमान-निकोबार शाखा से हैं। इस शाखा में काम करते हुए यह उपलब्धि हासिल करना ही इन्हें देश के अन्य एमडीआरटी अभिकर्ताओं से तनिक अलग ही पहचान दिलाता है।

अण्डमान-निकोबार को हममें से अधिकांश ने नक्षे में ही देख होगा और किताबों/पत्र-पत्रिकाओं में इसके बारे में पढ़ा होगा। मुमकिन है, हममें से कुछ ने यू-ट्यूब पर इससे जुड़ी कुछ फिल्में भी देखी हों। लेकिन हकीकत इन सब की रुमानियत का आनन्द एक झटके में लगभग खत्म ही कर देती है। वहाँ गए बिना इन अभिकर्ताओं की इस उपलब्धि को महसूस कर पाना निश्चय ही असम्भव है।

अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह देश के सात केन्द्र शासित प्रदेशों में से एक है। यह 572 द्वीपों का प्रदेश है। 2011 की जनगणना के मुताबिक समूचे द्वीप समूह की आबादी लगभग 3,80,500 है। लेकिन इसकी सारी गतिविधियाँ दक्षिण अण्डमान में, राजधानी पोर्ट ब्लेयर में केन्द्रित हैं जिसकी जनसंख्या लगभग एक लाख है। सड़क मार्ग का यातायात बहुत ही कम है। जल मार्ग ही यातायात का मुख्य और एकमात्र साधन है। वायु यात्रा काफी मँहगी पड़ती है इसलिए यहाँ के लोग जल मार्ग पर ही निर्भर रहते हैं। जल मार्ग से पोर्ट ब्लेयर से कोलकोता (जहाँ अण्डमान-निकोबार शाखा का मण्डल कार्यालय है) की दूरी 1,255 किलो मीटर, विशाखापटनम से 1,200 किलो मीटर और चैन्ने (चैन्‍नई) से 1,190 किलो मीटर है। पोर्ट ब्लेयर से कोलकोता जाने के लिए, यदि भाग्य से, तेज गति वाला (पानी का) जहाज मिल जाए तो ढाई दिन में पहुँचा जा सकता है। अन्यथा चार या पाँच दिन लग जाते हैं। पड़ौसी द्वीपों के लिए छोटे जहाज चलते हैं जिन्हें ‘फेरी’ कहा जाता है। इनकी संख्या भी सीमित होती है और इनमें यात्री संख्या भी सीमित होती है। उदाहरणार्थ पोर्ट ब्‍लेयर से नील द्वीप के लिए सुबह एक फेरी मिलती है जो शाम को लौटती है। हेवलॉक द्वीप के लिए दो या तीन फेरियाँ मिलती हैं। पहले ओव्हर लोडिंग कर लिया जाता था किन्तु एक दुर्घटना के बाद क्षमता से अधिक यात्री बैठाने पर सख्त पाबन्दी है। इस सीमित यात्री संख्या के कारण प्रायः प्रत्येक फेरी एडवांस बुकिंग के कारण सदैव भरी हुई ही मिलती है। इसीलिए किसी आकस्मिक स्थिति में चाह कर भी उसी दिन कहीं पहुँच पाना असम्भवप्रायः ही होता है। वास्तविकता का अनुमान अभिकर्ता कृष्णमूर्ति की इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार वे बीमा करने पड़ौस के द्वीप गए तो बारहवें दिन घर लौट पाए। 

अभिकर्ता जयदीप से जिस दिन मेरी मुलाकात हुई उसके अगले दिन उन्हें एक बीमा के लिए दिगलीपुर जाना था। इसके लिए उन्हें सुबह चार बजे घर से निकल कर, 48 किलोमीटर दूर झिरकाटाँग चौकी पर कोई दो घण्टों की प्रतीक्षा करनी थी। वहाँ से बाराटाँग तक का, लगभग पचास किलो मीटर का इलाका ‘जारवा जनजाति इलाका’ है जहाँ कोई अकेला यात्री या वाहन नहीं जा सकता। वहाँ वाहनों का काफिला (केनवाय) बनाकर एक निश्चित अन्तराल से दिन में (स्थितियों के अनुसार) तीन-चार बार वाहन छोड़े जाते हैं। वाहनों की गति भी चालीस किलो मीटर प्रति घण्टा के मान से बनाए रखनी पड़ती है। बाराटाँग से जयदीप को अपनी कार समेत फेरी से दूसरे द्वीप पर पहुँचकर शेष यात्रा सड़क मार्ग से कर, शाम चार बजे  दिगलीपुर पहुँचना था। ग्राहक से बात उसके बाद ही होनी थी।  

पोर्ट ब्लेयर की आबादी में एक तिहाई आबादी सरकारी कर्मचारियों की है। उद्यम, व्यापारिक प्रतिष्ठान/संस्थान गिनती के हैं। आधी से अधिक आबादी की आय अनियमित और अनिश्चित है। जाहिर है, बीमा अभिकर्ताओं के लिए यह नौकरीपेशा वर्ग ही सबसे बड़ा सम्भावना क्षेत्र है। सबसे मँहगी चीज है - जमीन। चौंसठ वर्ग फीट जगह में दफ्तर चला रहे एक अभिकर्ता को तीन हजार रुपये प्रति माह किराया चुकाना पड़ रहा है।

इतनी प्रतिकूलताओं, अनिश्चितताओं और सीमित सम्भावना क्षेत्र के बीच कोई अभिकर्ता लगातार आठ बार या तीन-तीन बार एमडीआरटी करे, केलेण्डर वर्ष के शुरुआती आठ महीनों में ही एमडीआरटी कर ले, मण्डल में प्रथम स्थान हासिल करे तो यह किसी ‘चमत्कार’ से कम नहीं माना जाना चाहिए। यह कठोर परिश्रम का मामला तो है ही, सुविचारित, सुनियोजित रणनीति और ग्राहक प्रबन्धन के कौशल का मामला भी है। इस लिहाज से अण्डमान-निकोबार शाखा के ये अभिकर्ता ‘प्रशंसनीय’ से कही आगे बढ़कर ‘अभिनन्दनीय’ हैं और इस सबसे कहीं आगे बढ़कर पूरे देश के अभिकर्ताओं के लिए ‘प्रेरणा-पुंज’ से कम अनुभव नहीं होते।

हम, देश के मैदानी इलाकोंवाले अभिकर्ता प्रायः ही बीमा न मिलने की शिकायत करते रहते हैं। मैं भी इनमें शरीक रहा हूँ। लेकिन अण्डमान-निकोबार जाकर अपनी इस शिकायत की हकीकत पर हमें निश्चित रूप से झेंप आ जाएगी। 

मेरे मित्र कवि-शायर विजय वाते की पंक्तियाँ हैं -

अवसरों में मुश्किलें मत देखना,
हाथ से अवसर निकलते जाएँगे।
मुश्किलों में देखना अवसर नये,
रास्ते खुद आप खुलते जाएँगे।

ये चमत्कारी प्रेरणा-पुंज हमें कुछ इसी तरह एक मौका दे रहे हैं - खुद की नजरों में झेंपने से बचने का।
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