पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी - 1

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  


1925 में, वृन्दावन में आयोजित हिन्दी सम्पादक सम्मेलन में सभापति के हैसियत से सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने, ‘समाचार पत्रों का आदर्श’ शीर्षक से दिए गए व्याख्यान में, भविष्य में हिन्दी के समाचार पत्र के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा था: ‘पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गम्भीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जायगी। यह सब होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे।’

करीब 92 साल पहले पराड़करजी के दिए गए व्याख्यान से पता चलता है कि वह पत्रकारिता की मौजूदा अनुभूतियों के साथ-साथ भविष्य में होने वाले बदलावों को भी बखूबी पहचान रहे थे। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्रों के सम्बन्ध में जब यह बात कही थी उस समय टेलीविजन पत्रकारिता का नामोनिशां नहीं था, लेकिन उनकी बात हिन्दी समाचार पत्रों के साथ-साथ आज की टेलीविजन पत्रकारिता पर भी पूरी तरह से लागू होती है। जैसा कि सब जानते हैं, भारत में पत्रकारिता की शुरुआत मुनाफा कमाने के लिए नहीं हुई थी। पत्रकारिता का उद्देश्य देश में नवजागरण लाने और उस नवजाग्रत समाज को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित करने का था। आज की तरह उस समय ऐसे व्यावसायिक पत्रकार नहीं थे, जिनका काम महज एक समाचार पत्र निकालना अथवा टीवी न्यूज चैनल चलाना होता। उस समय सभी भाषाओं के बड़े लेखकों ने समाचार पत्र निकालने अथवा उसमें सहयोग करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया था। ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी लेखनी से चेतना का प्रसार करने और बराबरी का समाज बनाने का काम किया। पहले जिस तरह लेखक ही पत्रकार और सम्पादक होते थे उसी तरह पहले के अधिकांश नेता भी पत्रकार और सम्पादक की जिम्मेदारी निभाते थे। काँग्रेस की स्थापना करने वाले करीब 70 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में पत्रकारिता से जुड़े थे। बाबूराव विष्णु पराड़कर जिस समय सक्रिय पत्रकारिता करते हुए नवजागरण लाने की दिशा में काम कर रहे थे ठीक उसी समय महात्मा गाँधी भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन में गाँधी की जो भूमिका रही है, हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में पराड़करजी का भी वही योगदान है। पराड़करजी जिस समाचार पत्र ‘आज’ के लम्बे समय तक सम्पादक रहे वह गाँधी की नीतियों का प्रबल पक्षधर था। गाँधी समाचार पत्रों की ताकत को पहचानते थे। उसका सदुपयोग वह दक्षिण अफ्रीका में ‘इण्डियन ओपीनियन’ नामक पत्र निकाल कर कर चुके थे। एक तरह से गाँधी एक चालाक राजनीतिज्ञ थे। यहाँ चालाक शब्द का इस्तेमाल नकारात्मक तौर पर नहीं किया जा रहा है। गाँधी को यह पता था कि उन्हें अपनी बात आम जनमानस के बीच कैसे पहुँचानी है। इसी नीति के तहत उन्होंने भारतीय राजनीति में समाचार पत्रों का देश और समाज हित में सबसे ज्यादा सदुपयोग किया। उनकी पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य जनता तक पहुँचना था। अपने इसी उद्देश्य के तहत उन्होंने समाचार पत्रों को खासा महत्व दिया। उन्हें यह स्वीकारने में गुरेज भी नहीं था। अपनी इसी बेबाकी का परिचय देते हुए उन्होंने 2 जुलाई 1925 को ‘यंग इण्डिया’ में लिखा था कि ‘पत्रकारिता में मेरा क्षेत्र मात्र यहाँ तक सीमित है कि मैंने पत्रकारिता का व्यवसाय अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में एक सहायक के रूप में चुना है।’

गाँधी तकरीबन आधा दर्जन समाचार पत्रों के सम्पादन और प्रकाशन से जुड़े रहे। इसके अलावा उनका प्रयास रहता था कि उनकी लिखी और बोली बातों को देश के अन्य समाचार पत्र भी महत्व दें। इसके लिए वह जिस भी शहर की यात्रा करते थे वहाँ के समाचार पत्रों के सम्पादकों से अवश्य मिलते थे। इस मेल-मिलाप के लिए उन्हें अनेक बार घण्टों इन्तजार तक करना पड़ता था। यही नहीं, उन्हें अपने विरोधी पक्ष वाले सम्पादकों से भी मिलने में गुरेज नहीं था। एक घटना प्रयाग से प्रकाशित होने वाले ‘पायोनियर’ पत्र से जुड़ी है। जुलाई 1896 में गाँधी कलकत्ता-बम्बई मेल से राजकोट के लिए जा रहे थे। पाँच जुलाई को लगभग 11 बजे दिन में ट्रेन इलाहाबाद पहुँची, जहाँ उसका 45 मिनट का ठहराव होता था। गाँधी इस समय का सदुपयोग करना चाहते थे। इतने समय में इलाहाबाद की एक झलक लेने के साथ ही उन्हें दवा लेनी थी। दवा लेने में देर लग गई और जब गाँधी स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी चलती दिखाई दी। स्टेशन मास्टर भला था सो उसने गाँधीजी का सामान उतरवा दिया था। इस परिस्थिति में गाँधी को अब दूसरे दिन ही जाना था। एक दिन का उपयोग कैसे हो, इसके लिए गाँधी ने अंग्रेज सरकार के हिमायती पत्र ‘पायोनियर’ के सम्पादक से मिलने की सोची। गाँधी लिखते हैं ‘यहाँ के पायोनियर पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी। भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी है, यह मैं जानता था। मुझे याद पड़ता है कि उस समय मि. चेजनी उसके सम्पादक थे। मैं तो सब पक्षों के आदमियों से मिलकर सहायता प्राप्त करना चाहता था। इसलिए मैंने मि. चेजनी को मुलाकात के लिए पत्र लिखा। चेजनी ने बुला लिया। उन्होंने गौर से मेरी बातें सुनीं। मुझे आश्वासन दिया कि आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उस पर तुरन्त टिप्पणी करूँगा। परन्तु मैं आपको यह वचन नहीं दे सकता कि आपकी सब बातों को मैं स्वीकार कर सकूँगा।’

गाँधी पत्रकारिता में बाहरी धन लगाने को खतरनाक मानते थे। इसीलिए वह अपने समाचार पत्र ‘नवजीवन’ और ‘यंग इण्डिया’ में विज्ञापन नहीं छापते थे। अपनी इस नीति के बारे में उनका मानना था कि विज्ञापन न छापने से उन्हें अथवा उनके पत्रों को किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ बल्कि ऐसा करने से पत्रों के विचार स्वातन्त्र्य की रक्षा करने में मदद मिली। एक तरह से वह पत्रकारिता को दो रूपों में विभाजित करते थे-एक व्यावसायिक पत्रकारिता और दूसरा लोकसेवी पत्रकारिता। वह मानते थे कि पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से भटक जाती है। समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले समाचारों और लेखों पर उस समय कितना ध्यान दिया जाता था, इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली घटना गाँधीजी से जुड़ी है, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है, ‘इण्डियन ओपीनियन में मैंने एक भी शब्द बिना बिचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। मेरे लिए यह अखबार संयम की तालीम सिद्ध हुआ।......इस अखबार के बिना सत्याग्रह की लड़ाई चल नहीं सकती थी।’ दूसरी घटना काँग्रेस और गाँधीजी की नीतियों के प्रबल पक्षधर ‘आज’ समाचार पत्र से जुड़ी है। बनारस से प्रकाशित ‘आज’ के मालिक शिव प्रसाद गुप्त थे और सम्पादक पराड़करजी। गुप्तजी आज के दौर के मालिकों की तरह नहीं बल्कि जानकार व्यक्ति थे। साहित्य अनुरागी थे। लेखकों और सम्पादकों का सम्मान करते थे। इसी दरम्यान उन्होंने एक लेख लिखा। पराड़करजी को देखने के लिए दिया। उन्होंने देखकर बताया कि लेख छपने योग्य नहीं है। इसे दोबारा लिखने का प्रयास करें। शिव प्रसाद गुप्त लेख दोबारा लिखकर पराड़करजी से मिलने पहुँचे। उन्होंने पढ़ा और कहा कि गुप्तजी बात बनी नहीं। गुप्तजी ने अनुरोध किया कि मेरी इच्छा है कि यह छप जाए। पराड़करजी ने सुझाव दिया कि यह विज्ञापन के रूप में छप जाएगा। और वह लेख विज्ञापन के रूप में छपा, जिसका शिव प्रसाद गुप्त ने बाकायदा भुगतान किया। इन दो घटनाओं से उस दौर की पत्रकारिता को समझा जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि उस समय की पत्रकारिता में कमियाँ नहीं थीं। उस दौर में भी पत्रकारिता के एक हिस्से पर आरोप लगे। साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का आरोप लगा। जिस समाचार पत्र ‘मतवाला’ का बड़े सम्मान के साथ नाम लिया जाता है उसके मालिक को जेल तक जाना पड़ा। समाचार पत्रों के इस रवैये से खिन्न होकर ही भगत सिंह ने जून 1927 में ‘किरती’ पत्रिका में लिखा था ‘पत्रकारिता व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल कराते हैं। एक-दो जगह नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिये दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, पर दुख है कि इन्होंने अपना कुल कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक लड़ाई-झगड़ा करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।’

करीब 90 साल पहले लिखी भगत सिंह की बातें इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की पत्रकारिता पर एकदम सही साबित हो रही हैं। पहले और आज के समय में अन्तर केवल इतना है कि आज अज्ञानता, साम्प्रदायिकता, संकीर्णता फैलाने और साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करने के कारोबार में समाचार पत्रों से आगे टीवी न्यूज चैनल अपनी भूमिका निभा रहे हैं। जहाँ तक गाँधीजी की बात है तो वह समाचार पत्रों की शक्ति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों सन्दर्भों में पहचानते थे। उसको लेकर सचेत रहते थे। इसी बात को केन्द्र में रखकर उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव के गाँव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है।’ वैसे पत्रकारिता में जब-जब कलम निरंकुश होती है तो उसकी भरपाई देश और समाज को करनी पड़ती है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दरम्यान जहाँ पत्रकारिता के एक हिस्से पर ही सवाल उठे थे वहीं आजादी के बाद खासकर सत्तर के दशक के बाद उसमें खासी गिरावट देखने को मिली। आपातकाल एक ऐसी घटना है, जहाँ भारतीय पत्रकारिता दो खेमों में बँटी नजर आई। एक पक्ष आपातकाल के समर्थन में खड़ा नजर आया तो दूसरा आपातकाल के विरोध में। बहुत कम लोगों ने तीसरे पक्ष यानी सन्तुलित होकर बात की। इसे दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं कि आपातकाल से जहाँ सत्ता का अलोकतान्त्रिक चेहरा सामने आया वहीं सेंसरशिप ने भारतीय पत्रकारिता की अवसरवादिता को सामने लाने का काम किया। इससे यह भी पता चला कि आधुनिक कही जाने वाली भारतीय पत्रकारिता ने स्वतन्त्रता आन्दोलन की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को अलग कर लिया है। इस बदलाव का लाभ पत्रकारिता के कुलीन तबके को मिला। सत्ताधारियों और समाचार पत्र के मालिकों को यह अहसास हो गया कि सम्पादकों और पत्रकारों का आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी के साथ सम्पादकीय आचार-विचार का दोहन शुरू हो गया। पत्रकारिता में नई-नई प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं। प्रबन्धन और विज्ञापन संस्था का प्रभुत्व बढ़ने लगा तो सम्पादकीय का प्रभुत्व कमजोर होने लगा।
(आलेख का शेष भाग दूसरी और तीसरी कड़ियों में)
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा सन्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)


 अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता  पढ़ाते हैं।
सम्पर्क - मोबा.: 098683 25191
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