भोजन में ऊपर से नमक डालने का मतलब

भोजन करते समय ऊपर से नमक न डालने का अर्थ उच्च रक्त चाप को नियन्त्रित करने की कोशिश करने के अतिरिक्त और भी कुछ हो सकता है? शायद नहीं। मैं भी ऐसा ही मानता था। लेकिन मीरू ने जो बताया वह कारण सुनकर तो आप-हम सबको, (जो भोजन के स्वाद के लिए ऊपर से नमक डालते हैं) अपने आप पर यदि शर्म नहीं तो झेंप तो जरूर आ जाएगी। ऊपर से नमक डालने का यह अर्थ भी हो सकता है भला? सर्वथा कल्पनातीत!


मीरू याने प्रिय चिरंजीवी अ. सौ.नीरजा। याने रूपा। दादा श्री बालकवि बैरागी की, हमारे परिवार की छोटी बहू। मेरे छोटे भतीजे प्रिय चिरंजीवी गोर्की की जीवन संगिनी। दादा के जीवित रहते हम लोग जब भी उनके आसपास होते तो या तो उन्हें देखते रहते या उनकी बातें सुनते रहते। कभी-कभार कुछ पूछ भी लेते। लेकिन उन्हें देखना और सुनना ही हमें अच्छा लगता था। लेकिन उनके जाने के बाद उनकी छोटी-छोटी बातें हमें अब अनायास ही याद आती हैं। हम लोग उन बातों पर सोचते हैं तो चकित होते हैं - जिन्हें हम छोटी-छोटी बातें मानते रहे, वे कितनी बड़ी, कितनी सारगर्भित थीं? अब लगता है, तब ही ऐसी प्रत्येक बात पर उनसे विस्तार से पूछते तो शायद हम अधिक समृद्ध तो होते ही, अधिक अच्छे मनुष्य भी हो जाते।

यह, ऊपर से नमक न डालनेवाली बात भी ऐसी ही एक बात है जो अचानक ही मीरू ने सुनाई। लिख भले ही मैं रहा हूँ लेकिन आप इसे खुद मीरू का कहा मानकर ही पढ़िए।

“इक्कीस जून 1983 को मेरी शादी गोर्की से हुई। यह हमारा अन्तरजातिय प्रेम विवाह था। मेरे पापा-मम्मी (स्व. श्री जे. बी. लाल और श्रीमती कामिनी लाल) सहित पूरे कुटुम्ब की बड़ी इच्छा थी कि मेरी शादी भोपाल में ही हो क्योंकि तब पापा भोपाल में ही पोस्टेड थे। सबकी बड़ी इच्छा थी कि मेरी बारात हमारे दरवाजे पर आए। मेरे पापा ने कहा भी कि उन्हें बारातियों की संख्या बता दें, वे भोपाल में सारी व्यवस्थाएँ कर देंगे और बहुत बढ़िया व्यवस्थाएँ करवा देंगे। लेकिन पापाजी (बालकविजी) ने मेरे पापा को समझाया कि उनका (बालकविजी) साहित्यिक-राजनीतिक सम्पर्क इतना व्यापक है कि खुद उन्हें ही नहीं पता कि बारात में कितने लोग शामिल होंगे। उनका कहना था कि उनका व्यवहार ऐसा है कि लोग उनके निमन्त्रण की प्रतीक्षा नहीं करेंगे। उन्हें मालूम हो गया कि गोर्की की शादी है तो वे बिना बुलाए ही अधिकारपूर्वक पहुँच जाएँगे। इसलिए वे (मेरे पापा) भोपाल में शादी कराने का विचार छोड़ दें। मेरे पापा को बात ठीक लगी। हमारी शादी नीमच में होनी तय हुई।

“शादी में आए लोगों की संख्या देख-देख कर हम सब हैरान थे। बाप रे बाप! किसी शादी में इतने सारे लोग भी आ सकते हैं? नहीं-नहीं करते भी कम से कम दस हजार लोग हमारी शादी में आए थे। पापाजी (बालकविजी) उस समय विधायक थे। लगता था, पूरे विधान सभा क्षेत्र के लोग उस दिन वहाँ आए थे। कई नेता भी आए थे जिनमें वीरेन्द्र कुमारजी सकलेचा भी थे। उनके साथ हमारा फाटू खिंचवाने की याद करके मुझे अभी भी हँसी आ रही है। वे दूर खड़े रहकर फोटू खिंचवाना चाह रहे थे। फोटोग्राफर उनसे, बार-बार हमारे पास खड़े होने को कह रहा था। लेकिन सकलेचाजी थे कि हमारे पास खड़े ही न हों। उन्हें डर था कि इस फोटू का राजनीतिक उपयोग/दुरुपयोग न हो जाए। आखिरकार गोर्की ने उनकी बाँह पकड़ कर, खींच कर अपने पास खड़ा किया और भरोसा दिलाया कि यह फोटू हमारे एलबम से बाहर नहीं जाएगा। 

“मुझे अच्छी तरह याद है, उस दिन निर्जला एकादशी थी। इसलिए, भोजन के साथ फलाहार की भी व्यवस्था की गई थी। लेकिन फलाहार का आनन्द उन लोगों ने भी लिया जिनका व्रत नहीं था। किसी शादी में इतने लोग मैंने तो पहली ही बार देखे। आज भी सोच-सोच कर खुश होती हूँ कि मेरी शादी में इतने सारे लोग आशीर्वाद देने आए थे। उस दिन लगा कि पापाजी (बालकविजी) ने कितनी सही बात कही थी! सच में उन्हें (बालकविजी को)  भी पता नहीं था कि कितने लोग आएँगे। भोपाल में मेरे पापा कितनी भी कोशिश कर लेते, इतने लोगों की व्यवस्था तो नहीं ही कर पाते। करते भी कैसे? आँकड़ा किसी को पता हो तो व्यवस्था की जाए! तब लगा, अच्छा किया जो पापाजी (बालकविजी) की बात मान ली।

“जो बात मैं कहने जा रही हूँ वह अगस्त 1983 की है। मेरी शादी को तीन महीने भी नहीं हुए थे। पापाजी (बालकविजी) को एमएलए रेस्ट हाउस के न्यू फेमिली ब्लॉक में आवास मिला हुआ था। पापाजी विधान सभा गए हुए थे। गोर्की थे तो भोपाल में ही लेकिन वे भी बाहर थे। एक मेहमान और थे उस दिन। अब उनका नाम याद नहीं आ रहा। हम कुल चार लोगों का, शाम का भोजन बनाना था मुझे । 

“मुझे तब खाना बनाना बिलकुल नहीं आता था। मैं अपनी ससुराल वाले घर में पहली बार खाना बना रही थी। न तो कोई बतानेवाला था न ही कोई पूछनेवाला। मैं घर की मालकिन तो थी लेकिन डरी हुई, अनाड़ी मालकिन। चार लोगों का खाना बनाने में मुझे ढाई घण्टे लग गए। 

“मैंने खाना बनाया। खूब अच्छी तरह से टेबल सजाई। अलग-अलग कोणों से टेबल को देखा। हर बार मुझे कुछ न कुछ कमी नजर आती थी। लेकिन आखिकार मैंने अन्तिम रूप से टेबल सजा ही ली। मैं जितनी खुश थी उतनी ही डरी हुई भी। पता नहीं, खाना कैसा बना होगा! ऐसी ही हालत में मैं पापाजी, गोर्की और मेहमान के आने ही राह देखने लगी। उस दिन विधान सभा देर तक चली। पापाजी को आते-आते साढ़े आठ बज गए। आते ही उन्होंने कहा कि जिन मेहमान को भोजन पर आना था, वे नहीं आएँगे। सुन कर मेरा डर थोड़ा कम हुआ। गोर्की तब तक नहीं आए थे। मैंने पापाजी से भोजन करने को कहा।

“पापाजी आए। सजी हुई टेबल देखी। बहुत खुश हुए। टेबल की सजावट के लिए मेरी बहुत तारीफ की। मैंने खाना परोसा। पापाजी ने भोजन शुरु किया। पहले ही कौर से उन्होंने मेरे बनाए भोजन की तारीफ शुरु कर दी। कभी सब्जियों की तो कभी दाल की तारीफ। कभी पुलाव की तो कभी रायते की। मेरी बनाई प्रत्येक डिश की तारीफ की और खुलकर की, बार-बार की। अपनी इतनी तारीफ सुनकर मुझे तो रोमांच हो आया। कहाँ तो मैं इतना डर रही थी और कहाँ इतनी तारीफ! मेरी तो मानो लाम्टरी लग गई! पापाजी ने भोजन समाप्त किया। थाली को प्रणाम कर थाली उठाकर बेसिन में रखी। फिर से मेरी खूब तारीफ की। उन्होंने कहा - ‘तुम खामखाँ कहती थी कि तुम्हें खाना बनाना नहीं आता। तुम तो बहुत अच्छा खाना बनाती हो। आज तुमने कितना स्वादिष्ट भोजन बनाया, कितनी सुन्दर टेबल सजाई! तुम तो ‘परफेक्ट शेफ’ हो।’ मुझसे खुशी सम्हाली नहीं जा रही थी। मुझे तो सूझा ही नहीं कि मैं क्या कहूँ। मैं खुश-खुश, चुपचाप पापाजी का चेहरा देखती रह गई। भोजन करते ही पापाजी पलंग पर लेट गए। देर हो रही थी। मुझे भूख लग रही थी। गोर्की के अते-पते नहीं थे। मैं अकेली ही खाना खाने बैठ गई।

“लेकिन मैंने पहला ही कौर लिया और मानो मेरी दुनिया ही बदल गई। दूसरा कौर लूँ, उससे पहले ही मुझे रोना भी आ गया और गुस्सा भी। रोना खुद पर और गुस्सा पापाजी पर। आखिर उन्होंने मुझे क्या समझा और मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया? पहले ही कौर में मुझे मालूम हुआ कि मैंने सब्जी में नमक डाला ही नहीं। दूसरी सब्जी की भी यही दशा थी। मुझसे खाना नहीं खाया जा रहा और पापाजी ने चुपचाप खाना खा लिया! और केवल खाया ही नहीं, इतनी, ढेर सारी तारीफ, लगातार तारीफ करते हुए खा लिया! मैं रोए जा रही थी। मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था। मुझसे खाना नहीं खाया गया।

“गुस्से में उबलती हुई मैं सीधे पापाजी के पास गई। वे आँखें मूँदे लेटे हुए थे। मैंने जोर से (लेकिन चिल्ला कर नहीं) कहा - ‘पापाजी! आपने ऐसा क्यों किया? सब्जियों में नमक ही नहीं और आपने चुपचाप खाना खा लिया? न तो मुझसे कहा और न ही नमक ऊपर से डाला? मुझे खुश करने के लिए मेरी झूठी तारीफ करते रहेआपने ऐसा क्यों किया? आपने कहा क्यों नहीं कि सब्जियों में नमक नहीं है?’ 

“मेरे बोलते ही पापाजी ने आँखें खोल ली। वे उठे। पालथी मार कर बैठ गए। मुझे अपने पास बैठाया और धीमी आवाज में, धीरे-धीरे बोले - ‘देखो बेटे रूपा! (शादी के बाद यही मेरा नाम हो गया था।) भोजन करते हुए मैं कभी भी ऊपर से नमक नहीं डालता। तुम समझती हो, ऊपर से नमक डालने का मतलब? ऊपर से नमक डालने का मतलब हुआ कि तुमने घोषित कर दिया कि भोजन बनानेवाले ने भोजन आधा-अधूरा, बेमन से बनाया है। भोजन बनानेवाला पूरे मन से, अपनी आत्मा उँडेल कर भोजन बनाता है। वह अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। उसकी हरचन्द कोशिश होती है कि वह भोजन ऐसा स्वादिष्ट बनाए कि खानेवाले की आत्मा तृप्त हो जाए और वह आनन्दित हो जाए। उसकी इन भावनाओं और ऐसी तमाम कोशिशों का सम्मान किया जाना चाहिए। ऐसे में, नमक कम होने की बात कह कर हम उसकी सारी मेहनत, सारी भावनाओं, सम्वेदनाओं का अपमान कर देते हैं। अपने बनाए भोजन में कमी जानकर उसे कितना दुःख होता होगा, कभी इसकी कल्पना करके देखना। कोई तुम्हारे बनाए भोजन में कमी निकाले तो तुम्हें कैसा लगेगा? इसीलिए बेटे! मैं कभी भी ऊपर से नमक नहीं डालता। बनानेवाला जो भी, जैसा भी बनाकर परोस दे, उसे पूरे सम्मान के साथ, प्रभु को धन्यवाद देते हुए माथे चढ़ाकर प्रेमपूर्वक स्वीकार करना चाहिए और उसका आनन्द लेना चाहिए। मेरा तो तुमसे भी कहना है कि तुम भी कभी ऊपर से नमक मत डालना। यह बनानेवाले का और अन्न का अपमान होता है।’

“पापाजी कहे जा रहे थे और मैं हक्की-बक्की सुने जा रही थी। मुझे पता ही नहीं चला कि मैं रोए भी जा रही थी। पापाजी ने मेरा कितना ध्यान और मान रखा? मेरी कितनी चिन्ता की? ऊपर से नमक डालने का यह अर्थ भी हो सकता है, ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था। इतनी छोटी सी बात का इतना बड़ा और इतना गहरा मतलब भी हो सकता है? उस समय तो मैं उन्नीस बरस की भी नहीं हुई थी। इतनी छोटी उमर में इतना बड़ा पाठ पढ़ लिया मैंने! 

“मैं कुछ-कुछ समझी, कुछ-कुछ नहीं समझी। लेकिन यह समझ गई कि छोटी बात के मायने बड़े होते हैं। उस एक पल में मुझे समझ में आ गया कि मेरे ये पापाजी केवल एक कवि और पोलिटिशयन ही नहीं हैं। वे तो अपने आप में पूरा स्कूल हैं - संस्कारों का स्कूल। वह दिन और उनके जीवन का अन्तिम दिन, मैं उनसे बराबर कुछ न कुछ हासिल करती रही। तब भी, जब वे सामने नहीं होते थे। अब भी, जबकि वे नजरों से ओझल हो गए हैं, मैं उनकी ऐसी बातें याद कर-कर बराबर कुछ न कुछ सीख रही हूँ।”

क्या बताऊँ कि मीरू की आपबीती जानकर मुझ पर क्या बीती। यह पढ़कर आप पर जो बीते, उसीसे मुझ पर बीती का अनुमान लगा लीजिएगा।
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1 comment:

  1. बिलकुल सही विचार ,बिना इस घटना को जाने मैं भी ऐसा ही करता हूँ इसलिए मेरी माँ कभी भी मेरी प्रशंसा से खाने का स्तर नहीं मापती
    (हालाँकि वो बहुत अच्छा खाना बनाती हैं )

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