आज थोड़ी लम्बी बात कर लेने दीजिए।
कम से कम पैंतालीस बरस पहले की बात है यह। उम्र के छब्बीसवें बरस में था। मन्दसौर में काम कर रहा था। एक शुद्ध शाकाहारी, अहिंसक परिवार का, मुझसे नौ-दस बरस छोटा एक किशोर मेरे परिचय क्षेत्र में था। प्रायः रोज ही मिलना होता था उससे। मैंने अनुभव किया कि कुछ दिनों से वह अनमना, उचाट मनःस्थिति में चल रहा है। हम लोग अच्छी-भली बात कर रहे होते कि अचानक ही उठ खड़ा होता - ‘चलूँगा भैया।’ मैं रोकता तो नहीं किन्तु लगता, मेरी किसी बात से अचानक ही खिन्न हो गया होगा। मैं अपनी कही बातों को याद करने की कोशिश करता। सब ठीक-ठाक लगता। फिर भी एक अपराध-भाव मुझे घेर लेता। ऐसा लगातार कई बार हुआ। धीरे-धीरे उसने मिलना बन्द कर दिया। मैंने गम्भीरता से नहीं लिया। ध्यान ही नहीं दिया। सोचा, किसी काम में लग गया होगा। जिस तरह से मिलना बन्द किया है उसी तरह से, फुरसत मिलते ही मिलना शुरु कर देगा।
कोई तीन महीनों बाद एक दिन उसके पिता आए। मुझ पर खूब नाराज हुए। डाँट-डपट तो नहीं की किन्तु खूब उलाहने दिए। पूरी बात तो समझ नहीं पड़ी किन्तु अनुमान लगाया कि अपने बेटे के व्यवहार को लेकर दुःखी और क्रुद्ध हैं। मैंने कहा कि यदि वे मुझे अपराधी मानते हैं तो मुझे सजा दे दें लेकिन पूरी बात तो बताएँ। मेरी बात सुनकर वे एकाएक रोने लगे। रोेते-रोते ही उन्होंने बताया कि उनका बेटा मांसाहार करने लगा है। उन्हें मुझसे दोहरी शिकायत थी कि मुझसे रोज मिलने के बाद भी मैं यह बदलाव भाँप नहीं सका और यदि भाँप लिया था तो मैंने उसे ‘बिगड़ने’ से रोका क्यों नहीं। एक दिन खबर मिलने पर वे उसके अड्डे पर गए। उसे रंगे हाथों पकड़ा। वह अन्दर था। उसे बाहर बुलाया तो वह हाथ में एक हड्डी लेकर आया। यह दृष्य पिता के लिए गहरा सदमा था। उसे खरी-खोटी सुनाते हुए बोले - ‘मैं जानता था तू एक न एक दिन ऐसा करेगा।’ उसने दुगुने गुस्से से जवाब दिया - ‘जब आप जानते थे तो परेशान क्यों हुए? यहाँ आए क्यों?’ मेरे लिए भी यह पेरशान कर देनेवाली सूचना थी। मैंने बताया कि महीनों से उसने मुझसे मिलना बन्द कर रखा। उन्हें विश्वास नहीं हुआ लेकिन मेरी शकल देख कर कुछ नहीं कहा। उन्होंने कहा कि पूरे समाज में उनकी थू-थू हो रही है। मैं उसे समझाऊँ और रास्ते पर लाऊँ। मैंने कहा कि मैं वादा तो नहीं करता लेकिन खुद मुझे ही यह सब बुरा लग रहा है तो मैं उसे समझाऊँगा जरूर और अपनी तईं पूरी-पूरी कोशिश करूँगा कि वह मांसाहार छोड़ दे।
अगले दिन, अपना काम छोड़ कर उससे मिला। पूरी बात बताई और पूछा कि आखिर वह इस रास्ते पर कैसे चल पड़ा। उसने बताया कि उसके पिताजी दिन में पाँच-सात बार हिदायत देते रहते थे - ‘देख! तू रोज दो-दो, चार-चार घण्टे बाहर रहता है। पता नहीं किन-किन के साथ घूमता, उठता-बैठता है। ध्यान रखना। हमारा मुँह काला मत करवाना। बीड़ी-सिगरेट, दारू-गोश्त के चक्कर में मत पड़ जाना।’ वह कहता कि वे बेफिक्र रहें, वह ऐसा कुछ भी नहीं करेगा। उसने कहा - ‘लेकिन भैया! मैं पूछता कि इसमें बुराई क्या है? तो वे जवाब में मुझे डाँटने लगते, सवाल पूछने पर नाराज होते और कहते कि मुझे जानने-समझने की कोई जरूरत नहीं। वे कह रहे हैं इसलिए नहीं करना है। बस।’ पिता की इस बात में मुझे कोई खराबी नजर नहीं आई। मैंने कहा - ‘तो इसमें गलत क्या है? अपने को तो वैसे भी माँ-बाप का कहना मानना ही चाहिए। वे जो भी कहते हैं, हमारे भले के लिए ही कहते हैं।’ वह बोला - ‘यह तो मैं भी समझता हूँ भैया लेकिन रोज दिन में पाँच-सात बार यह सब सुन-सुन कर मेरे मन में सवाल उठने लगा कि देखना चाहिए कि आखिर बीड़ी-सिगरेट, दारू-गोश्त में आखिर ऐसा है क्या कि बाबूजी बार-बार टोकते हैं। और भैया! इसी चक्कर में मैं यह करने लगा। पहली सिगरेट पी तो जोर की खाँसी आई। इतनी जोर से कि मेरी साँस घुटने लगी। लगा कि आज तो जान गई। बस! उसके बाद कभी सिगरेट पीने का विचार ही नहीं आया। इसी तरह गोश्त खाना शुरु किया। अभी दो-तीन बार ही खाया है। मुझे तो अच्छा नहीं लगा। जिस दिन बाबूजी ने पकड़ा उस दिन ही सोच रखा था कि अब आज से नहीं खाना है। वे कुछ नहीं कहते तो भी मुझे तो छोड़ना ही था। उसी दिन से छोड़ भी दिया है।’ मैंने कहा - ‘अपनी मन-मर्जी से यह सब कर लिया। कम से कम एक बार मुझसे भी तो बात करता!’ वह बोला - ‘सोचा तो था लेकिन लगा कि आप भी डाँट देंगे।’ अब मेरे लिए कहने-सुनने को कुछ भी नहीं बचा था। उसे समझाया कि ये बातें वह अपने पिताजी को इसी तरह बता दे। उन्हें अच्छा लगेगा। उसने ऐसा ही किया भी। सब कुछ पटरी पर आ गया। उसके पिताजी आकर मुझे असीस गए।
यह कोई तीस बरस पहले की बात है। मेरा बड़ा बेटा वल्कल (शायद) तीसरी कक्षा में पढ़ता था। एक दिन उसने अचानक ही पूछा - ‘पापा! अपन अण्डे क्यों नहीं खाते?’ मैंने अनुमान लगाया कि उसके सहपाठी अपने टिफिन में अण्डे लाते होंगे। वह उन्हें खाते देखता होगा। इसीलिए उसने यह सवाल किया। पूछने पर उसने मेरे अनुमान की पुष्टि की। मैंने उसे अपनी समझ के अनुसार विस्तार से समझाया। पूरी बात सुनकर वह बिना कुछ कहे उठने लगा। मैंने उसे रोका और कहा - ‘लेकिन तेरा मन हो तो खा लेना। लेकिन ऐसा करने की बात सबसे पहले तेरी मम्मी को और मुझे बताना।’ उसने वादा किया। अभी वह अड़तीसवें बरस में चल रहा है। विभिन्न आई टी कम्पनियों में काम करते हुए त्रिवेन्द्रम, चैन्नई, हैदराबाद, इन्दौर, मुम्बई, पुणे जैसे महानगरों में निवास कर चुका है। मैं उसे यदा-कदा पूछता रहता हूँ - ‘अण्डा शुरु किया?’ वह मुस्कुराते हुए कहता है - ‘अभी तक तो नहीं। करूँगा तो सबसे पहले मम्मी को और आपको बताऊँगा।’ विश्वास करता हूँ कि वह सच ही बोल रहा होगा।
मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू मीरु (नीरजा) ने प्रेम विवाह किया है। यह अन्तरधर्मी तो नहीं लेकिन अन्तर्जातीय विवाह है। मेरी माँ और पिताजी इसके लिए बिलकुल ही तैयार नहीं थे। दादा (श्री बालकवि बैरागी) धर्म संकट में थे। वे माता-पिता और बेटे के बीच फँस गए थे। हमारा परिवार घोर पारम्परिक। उस पर तुर्रा यह कि पिताजी अपने इलाके में बैरागियों के महन्त। दादा ने बई-दा‘जी (हम अपने माता-पिता को इन्हीं सम्बोधनों से पुकारते थे) से कहा कि वे दोनों बच्चों को समझाने की कोशिश करेंगे। गोर्की उस समय बीस-इक्कीस बरस का था और मीरू पन्द्रह-सोलह बरस की। दादा ने पहले गोर्की से बात की। उसने कहा कि परिवार यदि सहमत नहीं है तो वह भी यह शादी नहीं करेगा। लेकिन फिर उससे कोई शादी की बात न करे। वह शादी करेगा ही नहीं। करेगा तो मीरू से नहीं तो आजीवन कुँवारा रहेगा। सुन कर दादा निरुत्तर हो गए। कुछ दिनों बाद वे मीरू से मिले। पहले तो समझाया फिर, अन्तिम कोशिश की तरह कहा - ‘ऐसा तुमने उस उल्लू के पट्ठे में क्या देख लिया जो उस पर मरी जा रही हो?’ मीरू ने लापरवाही से कहा - ‘अरे अंकल! यह जानने के लिए तो आपको, गोर्की को, नीरजा लाल की नजरों से देखना पड़ेगा।’ सरस्वती पुत्र पुकारे जानेवाला, मालवी का राजकुमार, शब्दों का धनी, तालियों की गड़गड़ाहट से मंचों का लूटनेवाला, राष्ट्रीय स्तर का एक लोकप्रिय कवि मुँह बाये उस ‘प्रेम पगी’ किशोरी को देखता रह गया। पहले तो सम्पट ही नहीं बँधी। कुछ क्षणों बाद उनका कवि मन इस उत्तर पर निहाल हो गया। फिर भी उन्होंने एक कोशिश और की - ‘तुम अभी नाबालिग हो। कम से कम दो-ढाई बरस तक इन्तजार करना पड़ेगा। कर लोगी?’ अपने सपनों में गुम उस किशोरी ने उसी लापरवाही से कहा - ‘अंकल! आप बेफिकर रहिए। दो-ढाई बरस तो क्या, गोर्की के लिए तो जनमों तक इन्तजार कर लूँगी।’ और दादा ने हथियार डाल दिए। यह जनवरी 1980 की बात होगी। जहाँ तक मेरी याददाश्त काम कर रही है, दोनों का ब्याह कोई ढाई बरस बाद, 21 जून 1983 को हो पाया। आज दादा परपोतियों को खेला रहे हैं, मीरू-गोर्की, नाना-नानी बनने की राह पर हैं। जब भी पूरा कुनबा जुटता है तो ये बातें याद कर-कर सब खिलखिलाते हैं।
गोर्की और मीरू अपनी बेटियों मीकू (अभिसार) (एकदम बाँये) और माही (अनमोल) (एकदम दाहिने) के साथ
मुझे याद आया, इन्दौर में भी कुछ गरबा समितियों ने गैर हिन्दू लोगों के प्रवेश से रोकने की व्यवस्था की थी। नहीं पता कि यह व्यवस्था अब भी जारी है या नहीं। और यह भी अब तक प्रकट नहीं किया गया है कि अन्तरधर्मी विवाहों पर इसका कितना प्रभाव हुआ है। इसके विपरीत, अन्तरधर्मी-अन्तर्जातीय प्रेमियों के, घर से चुपचाप चले जाने के समाचार लगभग गत वर्षों के समान ही आ रहे हैं।
भोपाल के समाचार ने यह सब याद दिला दिया। मुझे विश्वास है कि यह प्रतिबन्ध लगानेवाले लोग भी ‘प्रेम पीड़ित’ रहे ही होंगे। न रहे हों तो वे इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि प्रेम का कीट उन पर हमला नहीं कर पाया। लेकिन इतना तो निश्चित ही कहा जा सकता है कि भविष्य में भी ऐसा न होने की खातरी वे शायद ही दे सकें।
प्रेम अजीब शै है। इसकी न तो परिभाषा अब तक की जा सकी है न ही व्याख्या। सबके अपने-अपने अनुभव हैं। यह सौ टका समानतावादी है। धर्म, जात, वर्ण, वर्ग किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करता। पता ही नहीं चलता कि इसकी गन्ध कब लपेटे में लेकर मद-मस्त कर गई। इसका कीड़ा कब काट गया। मालूम होता है तब तक दुनिया बदल चुकी होती है। रोम-रोम महबूब के साथ रहने को मचल रहा होता है। आदमी न तो पागल होता है न ही सन्निपात का रोगी। वह दीवाना हो जाता है। दुनियादारी की बातें, इस तरह से उड़ जाती है जैसे तपते तवे पर पड़ पानी की बूँद छन्न से भाप बन जाती है। कृष्ण के कहने पर गापियों को ईश आराधना की सलाह देनेे गए उद्धव मूक हो गए गोपियों की बात सुन - ‘ऊधौ! मन न भए दस-बीस। एक हुतो ऊ गयो स्याम संग। कौन आराधे ईस?’ तत्व ज्ञानी होने का दर्प पाले उद्धव, प्रेम मगन गोपियों के सामने नतमस्तक हो गए।
सुगन्ध को मुट्ठियों में कैद नहीं किया जा सकता। शरीर को कैद किया जा सकता है लेकिन मन को कैद करना आज तक मुमकिन नहीं हो पाया है। खुशबू के झोंके को कौन सी दीवारें रोक पाई हैं? इत्र की छोटी सी शीशी, विशाल प्रासाद के एक कमरे के कोने में खुलती है तो पूरा प्रासाद महमह कर उठता है। इश्क और मुश्क तो छुपाए न छुपे।
ऐसे निषेध आरोपित कर वाहवाही लूटी जा सकती है। खुद की पीठ ठोकी जा सकती है। लेकिन इतिहास गवाह है, प्रेम ऐसे तमाम निषेधों, ऐसी तमाम पाबन्दियों को नटखट बच्चे की तरह, टिली ली ली कहता, अँगूठा दिखाता ‘यह जा, वह जा’ हो जाता है। प्रेम से बडा कोई धर्म नहीं होता। और वह धर्म, धर्म नहीं जो प्रेम को अपराध माने। प्रेम तो मनुष्य को ईश्वर का अनुपम उपहार है। प्रेम तो प्रकृति है। बकौल कबीर, 'प्रेम न खेती नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय।' इसे अस्वीकार करना, इसका निरादर करना ईश्वर का अपमान ही नहीं, ईश्वर को अस्वीकार करना है।
निषेध सदैव ललचाते हैं। आकर्षित करते हैं। मनुष्य मन को उकसाते हैं। जिज्ञासु बनाते हैं। प्रेरित करते हैं। तोड़े जाने के लिए। प्रत्येक युग में।
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निषेध ललचाते हैं और हमेशा ही आकर्षित करते हैं, हम तो कई बार कई निषेधों का त्यज कर चुके हैं।
ReplyDeleteइससे बढिया कोई उत्तर नहीं हो सकता निषेधों को। यह तो किसी तपस्या से कम नहीं। साधुवाद
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-08-2017) को "बच्चे होते स्वयं खिलौने" (चर्चा अंक 2703) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कोटिश: धन्यवाद।
Deleteकल वाइरल हुए उस रोती हुई बच्ची के वीडियो पर सलिल वर्मा जी की बेबाक राय ... उन्हीं के अंदाज़ में ... आज की ब्लॉग बुलेटिन में |
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, गुरुदेव ऊप्स गुरुदानव - ब्लॉग बुलेटिन विशेष “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteविवेक रस्तोगी जी से सहमत .
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