पहले कंजूस...फिर सनकी और अब.....

गए ढाई-तीन बरस से मुझसे मेरी पहचान कराई जा रही है। मैं मजे ले रहा हूँ।

मुझे खबू सारे निमन्त्रण-पत्र मिलते रहते हैं। सारे निमन्त्रण-पत्र और उनके लिफाफे अच्छी गुणवत्तावाले वाले, सामान्य से तनिक मँहगे कागज पर छपे होते हैं। कुछ के तो लिफाफे भी आर्ट पेपर पर छपे होते हैं। इसके समानान्तर मेेरे पास एक तरफ छपे और एक तरफ कोरे कागज भी पर्याप्त संख्या में इकट्ठे हो जाते हैं। कागजों का उपयोग तो मैं अपने पत्रों की कार्यालय प्रति के लिए काम में ले लेता हूँ लेकिन फिर भी खूब सारे कागज बच जाते हैं। उन निमन्त्रण-पत्रों, उनके लिफाफों और कागजों को मैं रद्दी के रूप में फेंकता रहा। अपना ऐसा करना मुझे कभी भी अन्यथा नहीं लगा।

एक दिन अचानक ही मुझे लगा कि मैं यह ठीक नहीं कर रहा हूँ। पता नहीं ऐसा क्योंकर हुआ कि मुझे अज्ञेय का वह वाक्य याद आ गया जो उन्होंने एक नवोदित रचनाकार की, भूमिका लिखने हेतु मिली पाण्डुलिपि लौटाते हुए कहा था - ‘कई वृक्ष कटते हैं तब एक कागज बनता है।’ यह वाक्य याद आते ही मैंने तय कर लिया - अब इन निमन्त्रण-पत्रों, लिफाफों और कागजों का पुनर्उपयोग करूँगा।

अपने इस विचार पर मैंने तत्क्षण ही अमल शुरु कर दिया। मेरी इस ‘हरकत’ से वाकिफ होने वाला लगभग हर आदमी मुझ पर हँसा। प्रायः सबने इसे मेरी कंजूसी से जोड़ा और उलाहना दिया - ‘इतनी कंजूसी ठीक नहीं। किसके लिए बचा रहे हो?’ मैंने किसी को, कोई जवाब नहीं दिया। साल-डेड़ साल बाद मुझे ‘सनकी’ कहा जाने लगा। मैंने तब भी परवाह नहीं की और ‘अज्ञेय-आराधना’ करता रहा।

लेकिन अब, गए कुछ महीनों से तस्वीर बदलने लगी है। अब मुझे समझदार ही नहीं माना जा रहा, ‘पर्यावरण-प्रेमी’ या फिर ‘पर्यावरण-रक्षक’ जैसे विशेषणों से अलंकृत किया जाने लगा है। मुझे तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा था। अब नहीं पड़ रहा है। मैं अपने काम में लगा हुआ हूँ और ऐसा कर-कर खुद ही खुश हो रहा हूँ। हाँ, ऐसा करके मुझे अतिरिक्त प्रसन्नता होती है। कभी-कभी मैं खुद पर ही मुग्ध भी हो जाता हूँ।
मुझे इस तरह लिफाफे मिलते हैं.......

........मैं इन्हें इस तरह बदलता हूँ। और....

.......इस तरह काम में लेता हूँ।

अभी-अभी एक मंगल प्रसंग सामने आया। उसमें अतिथियों को दी जानेवाली भेंट और नेग की (लगभग एक सौ) थैलियों पर (अतिथियों के) नामों की चिट्ठियाँ बनाने/चिपकाने की बात आई। एक सुझाव आया कि आयोजन को यादगार बनाने के लिए थैलियों पर ही छपाई करवा ली जाए। पहली ही बार में यह सुझाव स्वीकार कर लिया गया। मैंने तनिक हिचकते हुए कहा कि इस फैसले पर पुनर्विचार करें। गिनती की थैलियाँ हैं। छपाई मँहगी पडे़गी। प्रत्येक अतिथि का नाम अलग-अलग छपवानेपर तो और मँहगी पड़ेगी। हिचकते-हिचकते ही मैंने सुझाव दिया कि पूरी थैली पर छपाई कराने पर थैली बेकार हो जाएगी। लोग आयोजन को याद तो करेंगे लेकिन थैली को शायद ही वापरें। केवल चिट्ठियाँ चिपकाने पर विचार करें। अतिथि अपने नाम की चिट्ठी निकाल लेगा, प्रेमपूर्वक थैली को वापरेगा और जब भी वापरेगा तब हर बार इस आयोजन को और मेजबान को याद करेगा। मेरी बात मान ली गई। ऐसा होते ही मैंने अब तनिक हिम्मत से कहा कि मेरे पास ढेर सारे रद्दी कागज हैं। प्रिण्टर तो है ही। केवल मुझे एक मौका दें। चिट्ठियाँ मैं तैयार कर देता हूँ। एक बार देख लें। पसन्द आए तो अमल में ले लें। न पसन्द आए तो मेरी चिट्ठियाँ मेरे पास। आप अलग से छपवा लें। मैंने यह सुझाव भी दिया कि चिट्ठियों पर अतिथियों के आधिकारिक नाम लिखने के लिए बजाय उनके परिवार में बोलते नाम ही लिखे जाएँ जिससे देते समय थैली निकालने में आसानी रहेगी। मेरी ये बातें भी मान ली गईं।

मैंने अपनी सूझ-समझ के अनुसार चिट्ठियाँ बनाकर बताईं। सबने पहली ही नजर में पसन्द कर लीं। मैंने एक थैली पर चिपका कर नमूना बताया। मेरी कोशिश सर्वानुमति से स्वीकार कर ली गई। 
थैलियों पर चिपकाने के लिए तैयार की गई चिट्ठियाँ।

चिट्ठी चिपकी, नमूने की थैली।

अब मैं अपने परिचय क्षेत्र में समझदार आदमी माना जाने लगा हूँ। गोया, रद्दी ने एक रद्दी आदमी को रद्दी होने से बचा लिया।

चलते-चलते यह भी बता दूँ कि (लिफाफों के अन्दरवाले) निमन्त्रण-पत्रों को अपनी टिप्पणियाँ लिखने, घर के छुटपुट कामों की, बाजार से लाए जानेवाले सामान की सूचियाँ बनाने, अपने अन्नदाताओं (ग्राहकों) को छुटपुट सन्देश भेजने जैसे कामों में प्रयुक्त कर रहा हूँ।

जानता हूँ कि ऐसा करनेवाला मैं पहला और अनोखा आदमी नहीं हूँ। मुमकिन है कि यह सब आप बहुत पहले से ही कर रहे हों। लेकिन मुझे खुश होने का यह मौका देने में आपका क्या जाएगा?
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4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-09-2017) को "सिर्फ खरीदार मिले" (चर्चा अंक 2715) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. आम के आम और गुठली के दाम । वाह बैरागी भाई साब साधुवाद ।

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  3. आम के आम और गुठली के दाम । वाह बैरागी भाई साब साधुवाद ।

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