मुख्यमन्त्री की चेतावनी: अफसरों का चुटकुला

मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम के प्रमुख अभियन्ता  अनिलचन्द सूर्या गए दिनों लेबड़-जावरा फोर लेन सड़क से गुजरे तो गड्ढों से परेशान हो गए। उन्होंने सड़क से ही, सड़क की देख-रेख की जिम्मेदार और टोल वसूल रही, एस्सेल कम्पनी के कर्ता-धर्ता कृष्णा माहेश्वरी को फटकार लगा कर फौरन ही मरम्मत कराने का आदेश देकर पूछा कि क्यों नहीं उनके टोल नाके बन्द कर दिए जाएँ? फटकार और पेट पर पड़ती लात के भय का असर हुआ और अगले ही दिन सड़क मरम्मत का काम शुरु हो गया। गड्ढों से उपजी परेशानी के समाचार अखबारों में लगातार छप रहे थे और लोग नेताओं से भी गुहार लगा रहे थे किन्तु  कोई असर नहीं हो रहा था। इस सड़क से मन्त्री भी आए दिनों यात्रा करते रहते हैं उन्होंने अखबार नहीं पढ़े होंगे लेकिन स्थानीय नेताओं ने तो कहा ही होगा। उन्होंने सुनने की खानापूर्ति कर ली होगी। या फिर हो सकता है, उन्हें अच्छी तरह पता रहा होगा कि उनके कहे का कोई असर नहीं होगा। कह कर बेइज्जती कराने से अच्छा है, कहा ही न जाए। लेकिन अफसर ने यह सब कुछ नहीं सोचा और ‘घण्टों का काम मिनिटों में’ हो गया।

साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में खबर पढ़ी कि प्रतिभावान छात्रों की फीस जमा करने के आदेश मुख्य मन्त्री ने महीनों पहले दे दिए। लेकिन फीस अब तक जमा नहीं हुई। अफसर ध्यान ही नहीं दे रहे। सम्वाददाता को मैं जानता था। उससे बात की। उसने एक कदम आगे बढ़कर ताज्जुबवाली बात बताई कि एक समारोह में खुद मुख्य मन्त्री ने यह जानकारी दी और कहा कि वे तो अपना काम कर चुके लेकिन अफसर कार्रवाई नहीं कर रहे। सम्वाददाता ने लगे हाथों एक और बात बताई कि कुछ ही दिन पहले मुख्य मन्त्री एक समारोह में धमकी दे चुके थे कि यदि उनके आदेश का क्रियान्वयन नहीं हुआ तो वे कलेक्टर को उल्टा लटका देंगे। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि कोई मुख्य मन्त्री सार्वजनिक रूप से ऐसा कह सकता है। एक कलेक्टर मेरे मित्र हैं। उनसे पूछा। उन्होने हँसते हुए पुष्टि की। मैंने पूछा कि उनकी (आईएएस अफसरों की) जमात ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई? हँसते हुए ही वे बोले - ‘क्या आपत्ति जताना? हम सब (अफसर) और प्रदेश की जनता जानती है कि मुख्य मन्त्रीजी जो कहते हैं वह करते नहीं। तालियाँ पिटवाने के लिए ऐसा कहना जरूरी था। कह दिया। तालियाँ पिटवा लीं। अफसरों को जो करना है, अपने हिसाब से करेंगे।’ सुनकर मुझे ताज्जुब तो हुआ, दुःख भी हुआ और बुरा भी लगा। हम जनप्रतिनिधित्व आधारित संसदीय लोकतन्त्र में रह रहे हैं और किसी कलेक्टर को अपने मुख्य मन्त्री के कहे (काम करने) की और चेतावनी की तनिक भी परवाह नहीं! यह तो लोकतन्त्र नहीं अफसर तन्त्र हुआ! लेकिन क्या दुखी होऊँ और क्या बुरा मानूँ। सूर्याजी का उदाहरण मेरे सामने था।

खुद ने देखा तो नहीं किन्तु बार-बार सुना कि मुख्यमन्त्री (स्वर्गीय) गोविन्द नारायण सिंहजी जब वल्लभ भवन के बरामदों से गुजरते थे तो अफसर लोग, सामने जो दरवाजा नजर आता (भले ही वह सुविधा घर का दरवाजा हो) उसमें घुस जाते। उनके सामने आने से घबराते थे। गोविन्द नारायण सिंहजी आईसीएस और आईपीएस, दोनों पात्रताधारी थे। कोई अफसर उन्हें ‘चलाने’ की कोशिश करता तो फौरन पकड़ लेते और भरी भीड़ में उसकी लू उतार देते। उन्हें मूर्ख बनाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन था। 

यह किस्सा खुद दादा ने सुनाया था। वे 1967 में पहली बार विधायक बने थे। पं. द्वारका प्रसादजी मिश्र ने उन्हें उम्मीदवार बनवाया था। अपने मन्त्री मण्डल मे उन्होंने दादा को सामान्य प्रशासन विभाग का संसदीय सचिव बनाया था। दादा को नियमित रूप से मिश्रजी के दफ्तर में उपस्थिति देनी होती थी। एक बार उन्होंने दादा से कहा - ‘बस्तर कलेक्टर से बात कराओ।’ दादा ने ट्रंक बुकिंग  नम्बर मिला कर कहा - ‘प्लीज बुक एन इमीजीएट कॉल फॉर बस्तर.......’ दादा इससे आगे कुछ बोलते, उससे पहले ही मिश्रजी ने डाँटते हुए कहा - ‘फोन रख दो।’  और उसी तरह डाँटते हुए बोले - ‘चीफ मिनिस्टर खुद कलेक्टर से बात करेगा? आगे से ध्यान रखना। चीफ मिनिस्टर को यदि कलेक्टर से बात करनी है तो कमिश्नर से कहो कि अपनी कमिश्नरी के फलाँ कलेक्टर से कहे कि वह सी एम से बात करे।’ लेकिन यह 1967 की बात है। तब से लेकर अब तक तो नदियों में इतना पानी बह गया कि मुख्यमन्त्री की, कलेक्टर को उल्टा टाँग देने की धमकी चुटकुले की तरह सुनी जाती है।

दा साहब स्वर्गीय माणक भाई अग्रवाल कहा करते थे - ‘सरकार नहीं चलती। सरकार का जलवा चलता है।’ यह ‘जलवा’ सेठीजी (स्व. प्रकाशचन्द्रजी सेठी) के मुख्यमन्त्रित्व काल में भी सतह पर ही नजर आता था। सेठीजी का आदेश अफसरों के लिए चेतावनी की तरह होता था। वे किसी का बुरा नहीं करते थे (सम्भवतः किसी का बुरा किया भी नहीं होगा) किन्तु बुरा हो जाने का भय बराबर बना रहता था। 

1977 से 1991 तक के चौदह वर्षों तक मैं एक दवा उत्पादक लघु उद्योग में भागीदार रहा। उसी दौरान 1987 में मुझे संभागीय उद्योग संघ का सचिव बनाया गया। तब तक मैं राजनीति, प्रशासन और पत्रकारिता के गलियारों में अपने स्तर के मुताबिक घूम चुका था। मुझे समझ आ गई थी कि समस्याओं के निदान के लिए अफसर ही उपयोगी और सहायक होते हैं। मुझे सचिव के प्रभार में दो समस्याएँ मिली थीं। पहली - छाता बनानेवाली चार इकाइयों की सेल्स टैक्स सबसीडी न मिलना और दूसरी - नायलोन रस्सी पर अनुचित कराधान। दोनों के लिए स्थानीय नेताओं और मन्त्रियों से भरपूर निवेदन-ज्ञापन हो चुके थे लेकिन निदान नहीं हो रहा था। हम लोगों ने तत्कालीन सेल्स टैक्स कमिश्नर प्रमोद कुमारजी दास को और तत्कालीन उद्योग सचिव (मुझे उनका नाम याद नहीं आ रहा) को अलग-अलग समाराहों में आमन्त्रित किया। पहली समस्या  हाथों हाथ निपट गई। दासजी के जाने से पहले ही सबसीडी जारी करने के आदेश हो गए। दूसरा मामला नीतिगत था। उद्योग सचिव को हमने नायलोन की रस्सी बनाने की पूरी प्रक्रिया मौके पर बताई। उनकी पीठ सुनती है, उन्होंने बड़प्पन बरतते हुए स्वीकार किया कि निर्माण प्रक्रिया देखने के बाद ही वे समस्या समझ पाए। उन्होंने वादा किया (उनके शब्द थे - आई प्रामिस यू) कि भोपाल जाते ही वे सबसे पहले उद्योगों के पक्ष में आदेश जारी करेंगे और उसकी एक प्रति हमें अलग से भिजवाएँगे। उन्होंने अपना वादा अक्षरशः निभाया।  

एक बतरस बैठक में स्वर्गीय सीतारामजी जाजू को कहते सुना था कि अफसरशाही से काम लेना याने शेर की सवारी करना। आपको, सुरक्षित रहते हुए, शेर को नियन्त्रित, लक्ष्य की ओर गतिवान बनाए रखते हुए मुकाम पर पहुँचना होता है। लेकिन मुकाम पर पहुँचना ही पर्याप्त नहीं। वहाँ पहुँच कर सुरक्षित रूप से उतरना भी उतना ही कौशल माँगता है जितना शेर की सवारी करने में। सवारी करने के पहले क्षण से लेकर उतरने के अन्तिम क्षण तक आपको शेर को यह अनुभूति भी करानी होती है कि आप उसके सवार नहीं, मित्र, शुभचिन्तक, हितरक्षक हैं।

प्रत्येक काल खण्ड के अपने मूल्य होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कार्य शैली। किन्तु लोक कल्याण स्थायी मूल्य है। यही शासक की कसौटी भी होता है। तब के नेता शायद इसी की चिन्ता करते रहे होंगे। आज उन्हें अपने-अपने हाई कमान की चिन्ता पहले करनी पड़ती है। लेकिन हाई कमान का भी एक हाई कमान होता है - नागरिक। उसकी दुआ भी लगती है और बददुआ भी। यह किसी ने नहीं भूलना चाहिए।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’ भोपाल में, 10 अगस्त 2017 को प्रकाशित)

4 comments:

  1. अनेक टोल रोड की हालत इतनी ख़राब है,कि गर्भवती महिलाओं की प्रसूति अस्पताल पहुँचने के पहले ही हो जायें । फिर भी बेशर्मी देखों टोल वसूलने में कोई कसर बाकी नहीं रखते है ।

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  2. अनेक टोल रोड की हालत इतनी ख़राब है,कि गर्भवती महिलाओं की प्रसूति अस्पताल पहुँचने के पहले ही हो जायें । फिर भी बेशर्मी देखों टोल वसूलने में कोई कसर बाकी नहीं रखते है ।

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