मेरा कक्षा-पाठी अर्जुन (पंजाबी) मुझे सुधारता रहता है। मुझे अच्छा लगे या बुरा, उसके ठेंगे से। उसे जो कहना होता है, कह देता है। हमारे इलाके की कहावत उसका फार्मूला है - ‘मेरी बात का बुरा लगे तो शाम को घर जाकर आधी रोटी ज्यादा खा लेना।’ आज फिर उसने मुझे सुधारा। लेकिन आज डाँटा-डपटा नहीं। आज उसने मेरी नहीं, गोपाल की चिन्ता की। दरअसल उसने अपने दो कक्षापाठियों की चिन्ता एक साथ कर ली। अर्जनु का कहना रहा कि कल मैंने गोपाल की जो छवि पेश की वह उसके एक ही पक्ष को उजागर करती है - उसके शरारती होने की। जबकि वह केवल शरारती नहीं था। अपनी लक्षणा-व्यंजना के मामले में वह अत्यधिक न्यायप्रिय था। जिसे हँकालना होता, उसे हँकाल देता और जिसे पूजना होता, पूरी ईमानदारी से चन्दन-तिलक कर देेता।
अर्जुन ने याद दिलाया तो मुझे यह किस्सा याद आया।
मनासा बहुत बड़ा कस्बा नहीं है। हमारे स्कूली दिनों (सत्तर के दशक) में तो और छोटा था। यही कोई पन्द्रह-सत्रह हजार की आबादीवाला। भारत विभाजन के समय कई हिन्दू पंजाबी परिवारों को मनासा में बसाया गया था। प्रायः तमाम परिवारों ने अपने पुरुषार्थ और अनवरत श्रम से वह आर्थिक हैसियत प्राप्त की जिससे समाज में ‘गणमान्य’ का दर्जा अपने आप मिल जाता है। इन्हीं में एक थे रामचन्द्रजी दुआ। दरअसल लगभग 85 वर्ष की आयु में वे अभी भी अपने भरे-पूरे परिवार के बीच स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। ‘थे’ केवल इसलिए कह रहा हूँ कि आयुवार्धक्य के कारण अब वे घर से बाहर बहुत ही कम नजर आते हैं। अर्जुन ने चेताया भी था - ‘देख! लिखते-लिखते तू कभी-कभार बहक जाता है। कोई उल्लूपना मत कर देना। वे राजी-खुशी, पोतों-पड़पोतों से खेल रहे हैं।’ आर्थिक सन्दर्भों में वे ‘जबरा आदमी’ थे। छोटे-मोटे कुबेर की हैसियतवाले। ‘रामचन्द्र कालूराम’ नाम से उनकी, कपड़ों की दुकान आज भी अपनी चिरपरिचित विश्वसनीयता और लोकप्रियता सहित कायम है। अपनी दुकान के इसी नाम की वजह से वे या तो ‘रामचन्द्र कालूराम’ के नाम से पहचाने जाते थे या फिर ‘रामचन्द्र कालूरामवाले रामचन्द्रजी’ के नाम से।
घर से दुकान और दुकान से घर आना-जाना हो या अन्य किसी काम से कस्बे में ही कहीं आना-जाना हो, वे पदयात्री की बने रहते थे। उन्हें इसी में सुख मिलता था। उन्हें सामने आते देख, लोग, अवचेतन में व्याप्त आदरभाव से मानो अपने आप ही रास्ता छोड़ देते थे। लेकिन अपनी यह सामाजिक स्थिति उन पर क्षणांश को भी हावी नहीं हुई। वे अतिशय विनम्र भाव और आचरण से पेश आते। सामने आ रहा आदमी कौन है, उम्र में छोटा है या बड़ा, क्या करता है, उसकी हैसियत क्या है, उसने रामचन्द्रजी को देखा या नहीं, उसने नमस्कार किया या नहीं, इन सारी बातों से परे वे अपनी ओर से नमस्कार करते। केवल नमस्कार ही नहीं करते, सचमुच में झुक कर नमस्कार करते। वे सचमुच में ‘विनम्रता और शिष्टता के मानवाकार’ थे। उनकी यह विनम्रता लोगों को चौंकाती तो कभी असहज करती। वे सामनेवाले को पहले नमस्कार करने का मौका ही नहीं देते थे। मनासा में ऐसे लोग अपवादस्वरूप ही मिलेंगे जिन्होंने पहले रामचन्द्रजी को नमस्कार कर लिया हो।
हरिद्वार स्थित भारत माता मन्दिरवाले सत्यमित्रानन्दजी गिरी उस समय भानपुरा पीठ के शंकराचार्य थे। सुदर्शन आनन, चौड़ा ललाट, होठों पर भुवनमोहिनी मुस्कान। तिस पर उनका, प्रांजल हिन्दी वाला सुस्पष्ट, ओजस्वी स्वर। वे जब प्रवचन देते तो मानो समूचे वातावरण पर किसी ने ‘मोहिनी मन्तर’ मार दिया हो। ऐसा चुम्बकीय आकर्षण कि उनके चेहरे से नजर हटाए न हटे। पूरे इलाके में उनके प्रवचन प्रायः ही होते रहते थे। मनासा के लोगों ने उन्हें इतना आदर-सम्मान, प्रेम अर्पित किया कि वे मनासा आने का कोई मौका नहीं गँवाते थे। ‘अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में’ वाला प्रार्थना-भजन सम्भवतः उन्हीं की रचना है। अपने प्रवचन का समापन वे इसी भजन से किया करते थे। इस भजन की एक पंक्ति है - ‘जो जग में रहूँ तो ऐसे रहूँ जैसे/ज्यों जल में कमल का फूल रहे।’ सत्यमित्रानन्दजी ने तो यह पंक्ति भजन में प्रयुक्त की किन्तु गोपाल ने इस पंक्ति को रामचन्द्रजी के लिए ‘रिजर्व’ कर दी थी। बात हो या यह भजन गाना हो, गोपाल के बोल होते - ‘जो जग में रहूँ तो ऐसे रहूँ, जैसे रामचन्द्र कालूराम रहे।’ शब्दों के बदलाव के कारण छन्द अनुशासन भंग होता और गेयता में बाधा होती लेकिन गोपाल हर बार यही करता। कभी-कभी मित्र लोग झुंझला जाते तो गोपाल सबकी झुंझलाहट से बेपरवाह कहता - ‘रामचन्द्रजी के लिए इससे ज्यादा जरूर कुछ हो सकता है लेकिन इससे कम तो कुछ हो ही नहीं सकता।’
गोपाल की दैहिक अनुपस्थिति में उसकी छवि-रक्षा के लिए मुझे सुधारते हुए अर्जुन जब यह सब याद दिला रहा था तो हम दोनों के गले भर्रा रहे थे।
कल अर्जुन ने मेरे कहने पर गोपाल का फोटू भेजा था। आज रामचन्द्रजी का फोटू भी उसी ने भेजा। मेरे बिना कहे ही।
शुक्रिया अर्जुन। तुमने मेरी चूक को ही दुरुस्त नहीं किया, गोपाल का अपराधी बनने से भी मुझे बचा लिया। और हाँ! तनिक कष्ट उठाकर आदरणीय रामचन्द्रजी को मेरे सादर नमस्कार भी अर्पित करना।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…. - शैलेन्द्र और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-09-2017) को "सन्तों के भेष में छिपे, हैवान आज तो" (चर्चा अंक 2714) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'