.....सूचना मन्त्री को सूचना नहीं मिली

दो कवि मित्र। एक कवि सरकारी नौकर तो दूसरा राजनीति में। दोनों ने अनगिनत बार मंच साझा किया। एक दूसरे की कविताओं पर खूब दाद दी। हर बार दी। बार-बार दी। लगातार दी। योग-संयोग कुछ ऐसा रहा कि राजनीति वाला कवि मन्त्री हो गया। लेकिन दोनों की मित्रता में कोई अन्तर नहीं आया। दोनों ‘कवि-मित्र’ ही बने रहे। लेकिन एक स्थिति ऐसी आ गई कि दोनों को, कवि से अलगवाली अपनी पहचान की याद हो आई। लेकिन तब भी दोनों सहज भाव से कवि ही बने रहे। एक ने कवि-भाव से आवाज लगाई। दूसरे ने कवि-भाव से ही जवाब दिया।

यह किस्सा जुड़ा है, ख्यात व्यंग्य कवि, हरदावाले श्री माणिक वर्मा और दादा श्री बालकवि बैरागी से। श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर ने, मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के सहयोग से, 26 जून 2018 को एक कवि सम्मेलन आयोजित किया था। इसमें, दादा के साथ अनगिनत बार कवि सम्मेलन मंच साझा करनेवाले जिन कवियों ने काव्य पाठ किया था उनमें माणिक भाई भी शामिल थे। उन्हें काव्य पाठ करते देख कर ही मुझे यह किस्सा याद आया था। 

बात 1969 से 1972 के बीच की है। तब श्यामाचरणजी शुक्ल मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री और दादा सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री थे। माणिक भाई राज्य सरकार की नौकरी में थे। शायद शिक्षक थे। उनका तबादला हो गया। माणक भाई परेशान हो गए। अचानक ही उन्‍‍‍‍‍हें याद आया - ‘अरे! अपना बैरागी मन्त्री है!’ लोगों ने भी सलाह दी - ‘भोपाल जाओ और हाथों-हाथ केंसिलेशन आर्डर ले आओ।’ लेकिन माणिक भाई ने यह सलाह एक कान सुनी, दूसरे कान से निकाल दी - ‘मेरे जाने की क्या जरूरत? अपना बैरागी है ना!’ इसी भरोसे पर उन्होंने तत्काल ही दादा को पत्र लिखा। मैंने तो वह पत्र नहीं देखा किन्तु मुझे इस क्षण भी भरोसा है कि माणिक भाई ने ‘तबादला रुकवा दे यार!’ तो नहीं ही लिखा होगा। उन्होंने गिनती के तीन शब्द लिखे होंगे - ‘कुछ कर यार!’

योग-संयोग कुछ ऐसा रहा कि यह पत्र दादा के सामने आया ही नहीं। उधर माणिक भाई निश्चिन्त, अपनी दुनिया में मगन। भरोसा कायम - ‘बैरागी के पत्र से पहले ही केंसिलेशन आर्डर आ जाएगा।’ लेकिन दिन एक के बाद एक गुजरने लगे। उधर, ‘ऊपरवाले’ अधिकारी माणिक भाई से पूछें - ‘कब रिलीव होंगे?’ माणिक भाई का धैर्य जवाब देने लगा और भरोसे की नींव हिलने लगी। शंका की बीसियों नागिनें मन में लहराने लगीं। खिन्न और क्षुब्ध मन हो, माणिक भाई भोपाल पहुँचे। माणक भाई को अचानक ही सामने देख दादा की बाँछें खिल गईं। सारे ‘राज-काज’ भूल गए - ‘अरे! माणिक भाई! अचानक! बिना खबर दिए! किसी कवि सम्मेलन मे आए हैं क्या?’ माणिक भाई को काटो तो खून नहीं! ‘जिन पे तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे’ जैसी मनोदशा हो गई माणिक भाई की। लेकिन भरोसा पूरी तरह टूटा नहीं था। दादा की बात सुनते ही माणिक भाई को महसूस हो गया - ‘तबादले की बात बैरागी को मालूम नहीं।’
जिन लोगों ने माणिक भाई को अन्तरंग हलकों में बात करते देखा-सुना होगा वे इस बात की ताईद करेंगे कि माणिक भाई बिलकुल बच्चों की तरह बात करते हैं - बिना किसी लाग-लपेट, दुराव-छिपाव के। उस पर उनका हलके से तुतलाने जैसा बोलना! सुनकर आदमी निहाल हो जाए। 

दादा की बात सुनकर माणिक भाई का क्षोभ और खिन्नता भाप बन कर उड़ गई। बोले - ‘यार! बैरागी! मेरा ट्रांसफर हो गया। मैंने तुझे चिट्ठी लिखी थी।’ दादा को झटका लगा। उनके निज सहायक निरखेजी पीछे ही खड़े थे। दादा ने सवालिया निगाहों से उहें देखा। निरखेजी ने कहा - ‘सर! चिट्ठी अब तक तो नहीं आई। मैं आप दोनों के सम्बन्धों को नहीं जानता क्या?’ दादा ने कहा - ‘आप देख रहे हैं माणिक भाई! मुझे तो चिट्ठी नहीं मिली।’ 

सुनकर माणिक भाई का धीरज छूट गया। इधर तबादले ने उनकी दुनिया अस्त-व्यस्त कर रखी थी और उधर जिस पर भरोसा था उसे खबर ही नहीं! ‘कर्मचारी माणिक वर्मा’ को दरिया में धकेल कर ‘कवि माणिक वर्मा’ उछल कर बाहर आ गया। बहते पानी जैसी आवाज में सरोष बोले - ‘कैसी बात कर दी यार! बैरागी? यहॉं  तो आसमान फटा, धरती हिली और सूचना मन्त्री को सूचना नहीं मिली?’ सुनकर दादा ने अपना चिरपरिचत, आकाश-फाड़ ठहाका लगाया, अपने ‘मन्त्री’ को समन्दर में फेंका और माणिक भाई के सुर में सुर मिलाते हुए, जवाब दिया - ‘न आसमान फटेगा, न धरती हिलेगी। जाहँ थी यार की नौकरी, वहीं की वहीं रहेगी।’

इसके बाद क्या हुआ होगा, यह कहने की जरूरत नहीं रह जाती। और जिस बात की जरूरत नहीं, वह कहना बेकार की बात होती है। हाँ! यह किस्सा खुद दादा ने सुनाया था - मुझे नहीं, अपने मित्रों को। मैं वहीं बैठा था। 

अब दादा तो हैं नहीं। माणिक भाई हम सबके बीच हैं। वे ही शायद इसकी पुष्टि करें।
-----

यह किस्सा कोई एक पखवाड़े पहले ही लिख लिया था। प्रतीक्षा थी, 26 जून वाले कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते हुए माणिक भाई के चित्र की। श्री म. भा. हिन्दी साहित्य समिति की मासिक पत्रिका ‘वीणा’ के सम्पादक श्री राकेश शर्मा ने 13 जुलाई को यह चित्र मुझे उपलब्ध कराया और चौबीस घण्टों के भीतर यह किस्सा आपके सामने है।  किस्से के अधूरेपन को भरने के लिए उन्हें धन्यवाद।

चित्र में माणिक भाई की बाँयी ओर श्री सरोज कुमार और दाहिनी ओर श्री सत्यनारायण सत्तन नजर आ रहे हैं।

2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन लीला चिटनिस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

    ReplyDelete
  2. दादा अपने मित्रों और परिचितों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहते थे ।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.