खिलाड़ी, मजदूर, आबादी, जनमत और जन प्रासाद



बर्लिन से बब्‍बू को
पहला पत्र - छठवाँ/अन्तिम हिस्सा


खिलाड़ियों पर यह देश बहुत ध्यान देता है। आज से 25 वर्ष पूर्व जब इस देश ने खेलकूद पर पैसा खर्च करना शुरु किया तो पश्चिम ने इसकी बहुत आलोचना की। वैसे ही जैसी कि हमारी अणु नीति पर की गई है। पर यह देश अपने खिलाड़ियों को अवसर देता रहा। परिणाम ओलम्पिक (माण्ट्रियल) की पदक तालिका पर अमिट है। जब मैंने कुछ ओलम्पिक खिलाड़ियों से भेंट करने की इच्छा प्रकट की तो मुझे बताया गया कि हमारे खिलाड़ी अभी थकान उतार रहे हैं, आराम कर रहे हैं। हम उन्हें किसी तरह की बाधा नहीं पहुँचायें, कृपा होगी।

यहाँ के मजदूर की समस्या आज न रोटी है न कपड़ा। और मकान, शिक्षा या चिकित्सा तो है ही नहीं। उसकी समस्या अब है टेलिविजन, कपड़े धोने की मशीन और रेफ्रीजरेटर। सन 1980 तक यह सब हर वर्कर को प्राप्त हो जायेगा ऐसा वादा अगले प्लान में आ रहा है।

रिहायशी मकानों की समस्या को इस देश ने जिस तरह हल किया है उसका मुकाबला इतिहास में नहीं है। 1945 में यह सारा देश राख और मलबे का ढेर मात्र था। आज शहरों के आसपास ऊँची-ऊँची आवासीय बस्तियों के इन्द्रलोक बस गये हैं। 20 हजार से कम आबादी वाला कोई उपनगर नहीं बसाया गया। हर उपनगर में हर सुविधा प्रदान की गई। एक कमरे का फ्लैट, दो कमरों का फ्लैट और फिर तीन, चार और पाँच कमरों के फ्लैट।

साफ सफाई की बात क्या पूछिये! सड़कें, गलियाँ, घर, आँगन, बाग-बगीचे और गलियारे, बाथरूम, सब मन्दिरों की तरह साफ और सजे हुए। मकानों के रंग बिलकुल सादे। कोई रंगीनी पुताई में नहीं। सड़कें, फुटपाथ फूलों, पौधों से लहलहाते। जगह-जगह कचरा पेटियाँ और चलती फिरती कचरा बटोरने वाली ट्रालियाँ। गन्दगी से कोई रिश्ता नहीं।

पीने के पानी का कोई नल मीलों तक नहीं। पानी पीना हो तो बाथरूम में जाओ और नल चला कर पानी पियो। होटलों में पानी नहीं दिया जाता। न कहीं सार्वजनिक मूत्रालय, न शौचालय। हर आदमी मानो कहीं जरूरी काम से भागा जा रहा हो। धीरे चलने का कोई कारण नहीं। सबको न जाने कौन-सी जल्दी पड़ी है। कोई किसी की न तो सुनता है न कहता है।

जनमत और जन प्रासाद
साम्राज्यवाद, अमेरिका, प्रतिक्रियावाद, नाजीवाद, फासिस्ट, हिटलर, सम्प्रदायवाद, रंगभेद ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें पूरी नफरत के साथ बोला जाता है। पूँजीवाद माँ-बहिन जैसी गाली के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जबकि शान्ति, अमन, भाईचारा, समाजवाद, साम्यवाद, मित्रता, कॉमरेड, संघर्ष, मुक्ति, मानवता, समानता ऐसे शब्द हैं, जिन्हें बोलते समय गर्व और प्रगति का अनुभव किया जाता है। गाँंधी, नेहरु, लेनिन, मार्क्स को आदर से बोला जाता है। इन्दिरा गाँधी और भारत के प्रति आत्मीय समादर व्यक्त होता है। भारतीयों को ये लोग पवित्र पूज्य और आदर्श मानते हैं। भारतीयों की कमजोरियों से खूब परिचित है यह देश। पर भारत ने गये 30 सालों में बिना किसी नो-हाऊ के जो तकनीकी तरक्की की है, वैज्ञानिक विकास किया है और समाजवाद को हृदय से स्वीकार किया है उसका लोहा यह देश खुलकर मानता है। हमारी यात्रा के ओर-छोर कई महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े हैं। अभी-अभी इस देश की 9वीं काँग्रेस सम्पन्न हुई है। जुलाई में इन्दिराजी का भव्य स्वागत इस देश ने किया। आगामी सत्रह अक्टूबर को यहाँ की संसद और काउण्टी कौंन्सिलों (प्रान्तीय-विधानसभाओं) के आम चुनाव हैं। माण्ट्रियल की अद्भुत विजय, माओ की मृत्यु, भारतीय हवाई जहाज का अपहरण वातावरण में अपना असर बनाये हुए हैं। किसी बात पर यहाँ वाले चुप हो जाते हैं तो किसी बात पर हम चुप्पी लगा जाते हैं। 

अद्भुत है यहाँ का संसद भवन जिसे पीपुल्स पैलेस कहा जाता है। मैंने इसे जन प्रासाद नाम दिया है। मात्र 32 महिनों में यह विशाल भवन आधुनिकतम तकनीक पर बना दिया गया। यह आश्चर्य की बात है। पूरा भवन तो हम लोग नहीं देख पाये पर इसका मात्र एक प्रेक्षागृह हमने देखा है। 5000 सीटों वाला यह सभागार दो तीन बटन दबाने मात्र से चाहे जिस आकार में बदल लिया जाता है। इसका मंच और कुर्सियाँ अपने आप कम ज्यादह हो जाते हैं। 12 भाषाओं में अनुवाद की व्यवस्था इस सभागार में है। पूरे संसद भवन में कहीं भी, एक भी, पर्दा नहीं लगाया गया है। सारी दीवारें स्टील और एल्यूमिनियम की हैं। ताम्रवर्णी पारदर्शी विशाल शीशे, धूप से रक्षा करते हैं और जीवन की हर सुविधा यहाँ उपलब्ध है। यह संसद भवन बर्लिन में है। संसद की बैठक वर्ष में चार या पाँच बार होती है और वह भी केवल एक-एक दिन के लिये। यहाँ की चुनाव पद्धति और कार्यप्रणाली पर पूरा लेख अलग से हो सकता है। कुल पाँच पार्टियाँ जनता में काम करती हैं पर विरोधी दल नाम की कोई चिड़िया इस देश में नहीं है। भ्रष्टाचार, लालफीता और वेश्यावृत्ति इस देश के लिए अपरिचित शब्द है। 

दूसरा पत्र तुझे जल्दी ही लिखूँगा। अभी इतना ही बस।

भाई, 

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