नए राजनीतिक मुहावरे गढ़ने, नए राजनीतिक मूल्य देने के लिए यह काल खण्ड इतिहास में दर्ज किया जाएगा। भाषा की शालीनता, आचरण की शिष्टता, संस्कारशीलता से मुक्ति पाने के लिए याद किया जाएगा। हमारी अगली पीढ़ियाँ हमें इसलिए याद करेंगी कि हम न तो सोच कर बोलते थे न ही बोलने के बाद सोचते थे। मूर्खता का जवाब मूर्खता से देने के हमारे सयानेपन पर वे गर्व करेंगी या शर्मिन्दा होंगी?
हमारे नेताओं के बयानों से हैरत होती है। विरोधी को नंगा करने के लिए खुद नंगे हो रहे हैं। खुद ही नहीं, अपने नेता को भी नंगा कर रहे हैं! हैरत पर हैरत यह कि नेता के नेता को भी फर्क नहीं पड़ रहा। हम राजनीति को किस मुकाम पर ले आए हैं? अगला मुकाम कौन सा तय किया है हमने?
आदमी के पास जब गिनाने को उपलब्धियाँ नहीं होती हैं तो वह अपने व्यक्तित्व का बखान शुरु कर देता है। यदि उसका व्यक्तित्व आभाहीन, प्रभावहीन हो तो वह अपने विरोधी का व्यक्तित्व हनन करता है। अपने नायक का यह आचरण देखकर उसके समर्थक ‘देव-आराधना’ की तरह अपने नायक के इस यज्ञ में अपनी आहुतियाँ देने में जुट जाते हैं। देश में आज यही हो रहा है।
मुझे सबसे पहले हतप्रभ किया था, अमित शाह ने। विरोधियों के जमावड़े की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने बड़ी अजीब उपमा दी। कहा कि जब बाढ़ आती है तो जान बचाने के लिए कुत्ते, बिल्ली, चूहे सब प्राणी एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। यह कहते समय वे अपने नेता और देश के प्रधान मन्त्री को ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित कर बैठे। यह भी भूल बैठे कि बाढ़ तो सब-कुछ ध्वस्त कर देती है। विनाश कर देती है। जान-माल की हानि होती है। निश्चय ही अमित शाह ने ऐसा तो नहीं ही कहना चाहा होगा। लेकिन वे मोदी को प्राकृतिक आपदा ही कह गए। वह भी गर्वपूर्वक।
सोशल मीडिया में इन दिनों एक सन्देश देखकर बड़ा ताज्जुब हो रहा है। मोदी का महिमा मण्डन करते हुए, मोदी के चित्र के साथ कहा जा रहा है - ‘शेर अकेला आता है। झुण्ड में तो सूअर आते हैं।’ विरोधियों को सूअर कहने से अधिक दुःख इस बात का है कि हममें तो गाली देने की भी तमीज और अकल नहीं रह गई है। किसी जमाने में देश के तमाम विरोधी दल इन्दिरा गाँधी के विरोध में एक जुट हुआ करते थे। उनमें अटलजी, आडवाणीजी भी शरीक थे। बाद में राजीव गाँधी के विरोध में भी ये सब एकजुट हुए थे। इस तुलना के मुताबिक तब इन्दिरा और राजीव शेर की दशा में थे और अटल-आडवाणी सहित तमाम नेता दूसरे पशुओं की दशा में। मोदी के महिमा मण्डन की कोशिश में क्या यही कहा जा रहा? और, शेर तो जंगल में रहता है! उसका तो शिकार किया जाता है और उसका सिर, उसकी खाल, ‘ट्राफी’ की तरह दीवालों पर प्रदर्शित की जाती है। क्या मोदी के लिए यही सब सोचा जा रहा है?
लगभग ऐसा ही एक और अभियान चल रहा है। कहा जा रहा है कि जब सारा विपक्ष एकजुट हो जाए तो समझो कि देश का राजा ईमानदार है। इस पैमाने से तो मोदी से पहले इन्दिरा और राजीव को ईमानदारी का प्रमाण-पत्र दिया जा रहा है! जबकि उन्हें तो भ्रष्ट और बेईमान कह-कह कर तालियाँ पिटवाई जाती हैं। आखिर, सच क्या है?
अभिनेत्री सपना चौधरी के राजनीतिक फैसले की खिल्ली उड़ाते हुए उसे ‘ठुमके लगानेवाली’ कह कर खारिज किया गया। यह उपमा देते समय एक क्षण भी सुप्रसिद्ध अभिनेत्री हेमामालिनी का विचार मन में नहीं आया? फिल्मी दुनिया से परे, वे तो ख्यात नृत्यांगना भी हैं। सपना चौधरी की खिल्ली उड़ाते हुए क्या हेमामालिनी को ‘ठुमके लगानेवाली’ नहीं कह दिया? यदि ‘ठुमके लगानेवाली’ उपेक्षणीय है तो ‘अपनी ठुमकेवाली’ को क्यों बर्दाश्त किया जा रहा है? सपना चौधरी की खिल्ली उड़ाने, उसे खारिज करने की कोशिश करने में हेेमामालिनी निशाने पर नहीं आ गईं? उन्हें कैसा लगा होगा? दूसरे की माँ को डायन कहते-कहते अपनी माँ को चुड़ैल कह देना इसी को कहते हैं।
अभी-अभी प्रभात झा का वक्तव्य पढ़ कर अत्यधिक निराशा हुई। वे तो पत्रकार भी रह चुके हैं। लेकिन क्या राजनीतिक लिप्सा, पत्रकारिता की आत्मा और चेतना को ढक देती है? स्व. अर्जुनसिंह की पत्नी श्रीमती सरोज देवी और उनके बेटे, मध्य प्रदेश विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता अजयसिंह के बीच उभरे विवाद को हथियार की तरह वापरते हुए झा ने कहा कि जो व्यक्ति अपनी माँ को नहीं सम्हाल पा रहा हो वह भला प्रदेश को क्या सम्हालेगा? मैं अब भी चाह रहा हूँ कि प्रभात झा ने यह नहीं कहा हो। यह कहते हुए उन्हें अपने नेता, प्रधान मन्त्री मोदी की याद नहीं आई? मोदी ने, पवित्र अग्नि की साक्ष्य में, दोनों कुटुम्बों के सदस्यों की उपस्थिति में, भारतीय संस्कृति का निर्वाह करते हुए जसोदा बेन के साथ सात फेरे लिए थे। उन्हें अपनी अर्द्धांगिनी स्वीकार कर उनकी देखरेख, उनकी रक्षा के लिए वचनबद्ध हुए थे। लेकिन वे तो बिना कुछ कहे, बिना बताए, जसोदा बेन को छोड़ गए। अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। वे तो उन्हें पत्नी कबूल करने को भी तैयार नहीं थे। उन्होंने तो जसोदा बेन को अपनी पत्नी भी तब ही घोषित किया जब चुनाव लड़ने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया। क्या प्रभात झा को पल भर भी नहीं लगा कि जब वे अजय सिंह पर यह आरोप लगा रहे हैं तो बात मोदी तक पहुँचेगी? माँ की जिम्मेदारी निभाने में अक्षम व्यक्ति यदि प्रदेश का जिम्मा नहीं निभा सकता तो अपनी धर्म पत्नी की जिम्मेदारी से पीठ फेरनेवाला आदमी भला देश की जिम्मेदारी कैसे निभा सकेगा?
गुना के भाजपा विधायक पन्नालाल शाक्य भी मानो प्रभात झा से प्रतियोगिता कर रहे। उन्होंने कहा कि काँग्रेस शासन काल में पैदा हुए नेताओं को गलत नीति बनानेवाले नेता घोषित कर दिया। उन्हें पता ही नहीं होगा कि सत्रह सितम्बर 1950 को जब मोदी पैदा हुए तो देश में काँग्रेस की सरकार थी और नेहरू प्रधान मन्त्री थे। वही नेहरू जो मरने के चौपन बरस बाद भी मोदी को काम नहीं करने दे रहे। शाक्य के हिसाब से तो मोदी की नीतियाँ भी गलत हैं।
हम कहाँ आ गए हैं? क्या अब चुनाव इन्हीं और ऐसे ही मुद्दों पर लड़ा जाएगा? क्या यही सब अब चुनावी घोषणा-पत्रों के मुद्दे बनेंगे? अधिक निराश करनेवाली बात यह कि प्रतिपक्ष भी मूर्खता का जवाब मूर्खता से दिए जा रहा है। न इनके पास बताने के लिए कोई उपलब्धि है न उनके पास कोई कार्यक्रम। मेहनत तो सब कर रहे हैं और खूब कर रहे हैं लेकिन अपनी लकीर बड़ी करने के लिए नहीं, सामनेवाले की लकीर छोटी करने के लिए। अपनी कमीज बेदाग बनाए रखने के बजाए सामनेवाले की कमीज गन्दी करने के लिए पतले गोबर में पत्थर फेंक रहे हैं जिसके छींटे इनकी खुद की कमीज पर भी गिर रहे हैं। दोनों की कमीजें गन्दी हो रही हैं। हवाओं में गालियाँ ही गालियाँ तैर रही हैं।
तकलीफ यही है। हम अपनी अगली पीढ़ियों को कैसी राजनीति देकर जा रहे हैं - शालीन, शिष्ट, सुसंस्कृत, संस्कारित राजनीति या घिनौनी, चरित्रहनन करने की, जुगुप्सा भरी राजनीति? राजनीति, सामाजिक बदलाव का प्रभावी और धारदार औजार होती है। यदि औजार ही नकली और भोथरा होगा तो बदलाव तो दूर रहा, इसका रख-रखाव ही भारी पड़ जाएगा। बोझ बन जाएगा।
हम अपनी अगली पीढ़ियों के लिए बदबूदार बोझ छोड़ जाएँगे या ठण्डी हवा, गहरी छाया देनेवाले, हरे-भरे, खुशबूदार फलदार बाग?
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 05 जुलाई 2018
दिनोंदिन स्तर गिरता जा रहा है।
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