मुझे थोड़ा नहीं, बहुत अजीब लगा था, दादा श्री बालकवि बैरागी के निधन के बाद अर्जुन की चुप्पी पर। उसने दादा के बारे में, उनकी आकस्मिक मृत्यु के बारे में मुझसे अब तक एक शब्द नहीं कहा। मनासा में अर्जुन का घर, मेरा दूसरा घर है। मैं जब भी मनासा जाता हूँ तो यह माना जाता है कि मैं अर्जुन से मिलकर ही गाँव में घुसा हूँ। उसके बेटे आलोक के विवाह में मनासा गया था तो अपने घर रुकने के जाय अर्जुन के घर ही रुका था। दादा को अच्छा नहीं लगा था।
दादा से अर्जुन के जुड़ाव को कोई और अनुभव करे न करे, मैं खूब अच्छी तरह अनुभव करता हूँ। दादा उसके आदर्श व्यक्तियों में से एक तो हैं ही, वह अपने जीवन के स्थायित्व में भी दादा को सहायक मानता है। ऐसे में उसकी चुप्पी मुझे अजीब लगनी ही थी। यह ‘अजीब लगना’, ‘बुरा लगना’ में बदलकर मुझे क्षुब्ध करने ही वाला था कि अल्हेड़वाले सुरेश नागदा ने मुझे इस अपराध से बचा लिया।
अल्हेड़ मेरे पैतृक कस्बे मनासा से लगा हुआ, हैसियतवाला, ठाठदार गाँव है। दादा के निधन के बाद शोक प्रकट करने के लिए वह, नन्दलाल नागदा के साथ आया था। बातों ही बातों में सुरेश ने वह बात बता दी कि अर्जुन के प्रति मेरा क्षोभ, आत्म-ग्लानि में बदलने लगा।
दादा के निधनवाले दिन, 13 मई को अर्जुन सपरिवार, मनासा के पास स्थित तीर्थ भादवामाता गया हुआ था। राजस्थान में, कोटा के पास स्थित छबड़ा से उसकी बेटी नीतू अपने पति गिरीश और सवा तीन बरस के बेटे आशुतोष के साथ मायके आई हुई थी। अर्जुन का बेटा आलोक भी अपने बाल बच्चों के साथ मनासा आया हुआ था। वह मन्दसौर में, केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ाता है। अर्जुन अपने पूरे परिवार के साथ गया था। उस दिन रविवार भी था। सो सब लोग पूरी तरह फुरसतिया मनोदशा में थे। शाम का भोजन भी साथ लेकर गए थे। यात्रियों की संख्या लगभग दस थी। सो, अर्जुन ने बड़ी गाड़ी भाड़े पर ली थी। सुरेश नागदा का बेटा धरमू इस गाड़ी का चालक था।
सुरेश ने बताया कि शाम करीब छः-सवा छः बजे उसे वाट्स एप पर दादा के निधन की सूचना मिली थी। सूचना पाकर सुरेश को धक्का लगा। अचानक ही उसे याद आया कि धरमू ‘अर्जुन सर’ के परिवार को लेकर गया है। अर्जुन और दादा के सम्बन्धों को सुरेश भली प्रकार जानता था। सुरेश ने धरमू से कहा कि वह ‘अर्जुन सर’ से उसकी बात कराए। बेटे ने फोन ‘अर्जुन सर’ को दिया। सुरेश ने यह खबर उन्हें दी। अर्जुन को विश्वास नहीं हुआ। उसने फौरी पूछताछ की और फोन बन्द कर दिया।
सुरेश ने कहा - ‘मेरी बात सुनकर अर्जुन सर की आवाज तो बिलकुल मरी-मरी हो गई। जैसे उनमें जान ही नहीं रही हो। मैंने अपने बेटे से कहा कि वह सर का और उनकी फेमिली का ध्यान रखे। बाद में धरमू अर्जुन सर को मनासा छोड़ कर आया तो बताया कि जब मैं अर्जुन सर से बात कर रहा था फेमिली ने भोजन के डिब्बे खोल कर परोसना शुरु कर दिया था। लेकिन मुझ से यह खबर सुनकर अर्जुन सर उदास हो गए और सब से दूर, एक ओर जाकर माथा झुकाकर खड़े रह गए। उन्होंने भोजन भी नहीं किया। घरवालों ने खूब कहा लेकिन उन्होंने भोजन नहीं किया तो नहीं ही किया। बाकी घरवालों ने भोजन किया और सब मनासा चले आए। पूरे रास्ते अर्जुन सर चुपचाप बैठे रहे। शायद उन्होंने फेमिली को भी यह खबर घर पहुँचने के बाद दी होगी।’
सुरेश की बातों ने मुझे मन की तलहटी तक भीगो दिया। मैं अर्जुन से अत्यधिक निकटता का दावा करता हूँ लेकिन मैं उस पर सन्देह कर बैठा! मैंने उसकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा और प्रतीक्षा की! मुझे तो अपने मन से उसके मन की बात समझनी चाहिए थी! लेकिन मैं उसकी परीक्षा लेने लगा और इस परीक्षा में खुद ही फेल हो गया।
बाद में मैंने उससे पूछताछ की तो उसने सहज भाव से कहा - ‘ऐसी बातें कहने-सुनने की कहाँ होती हैं? वे तो महसूस करने की होती हैं। तू तो खुद ही परेशान था। क्या कहता? और फिर! तू तो मुझे अच्छी तरह जानता है! तुझसे क्या कहना-सुनना?’
मेरे पास उसकी बात का जवाब न तब था न अब है। सन्देह करने के अपने अपराध को, उसके सामने कबूल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। अब यह सब लिखकर अपना मन हलका कर रहा हूँ।
मुझे माफ करना अर्जुन! मैंने अपना अविश्वास तुम पर थोपने का अपराध किया। माफ करना।
दादा से अर्जुन के जुड़ाव को कोई और अनुभव करे न करे, मैं खूब अच्छी तरह अनुभव करता हूँ। दादा उसके आदर्श व्यक्तियों में से एक तो हैं ही, वह अपने जीवन के स्थायित्व में भी दादा को सहायक मानता है। ऐसे में उसकी चुप्पी मुझे अजीब लगनी ही थी। यह ‘अजीब लगना’, ‘बुरा लगना’ में बदलकर मुझे क्षुब्ध करने ही वाला था कि अल्हेड़वाले सुरेश नागदा ने मुझे इस अपराध से बचा लिया।
अल्हेड़ मेरे पैतृक कस्बे मनासा से लगा हुआ, हैसियतवाला, ठाठदार गाँव है। दादा के निधन के बाद शोक प्रकट करने के लिए वह, नन्दलाल नागदा के साथ आया था। बातों ही बातों में सुरेश ने वह बात बता दी कि अर्जुन के प्रति मेरा क्षोभ, आत्म-ग्लानि में बदलने लगा।
दादा के निधनवाले दिन, 13 मई को अर्जुन सपरिवार, मनासा के पास स्थित तीर्थ भादवामाता गया हुआ था। राजस्थान में, कोटा के पास स्थित छबड़ा से उसकी बेटी नीतू अपने पति गिरीश और सवा तीन बरस के बेटे आशुतोष के साथ मायके आई हुई थी। अर्जुन का बेटा आलोक भी अपने बाल बच्चों के साथ मनासा आया हुआ था। वह मन्दसौर में, केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ाता है। अर्जुन अपने पूरे परिवार के साथ गया था। उस दिन रविवार भी था। सो सब लोग पूरी तरह फुरसतिया मनोदशा में थे। शाम का भोजन भी साथ लेकर गए थे। यात्रियों की संख्या लगभग दस थी। सो, अर्जुन ने बड़ी गाड़ी भाड़े पर ली थी। सुरेश नागदा का बेटा धरमू इस गाड़ी का चालक था।
सुरेश ने बताया कि शाम करीब छः-सवा छः बजे उसे वाट्स एप पर दादा के निधन की सूचना मिली थी। सूचना पाकर सुरेश को धक्का लगा। अचानक ही उसे याद आया कि धरमू ‘अर्जुन सर’ के परिवार को लेकर गया है। अर्जुन और दादा के सम्बन्धों को सुरेश भली प्रकार जानता था। सुरेश ने धरमू से कहा कि वह ‘अर्जुन सर’ से उसकी बात कराए। बेटे ने फोन ‘अर्जुन सर’ को दिया। सुरेश ने यह खबर उन्हें दी। अर्जुन को विश्वास नहीं हुआ। उसने फौरी पूछताछ की और फोन बन्द कर दिया।
सुरेश ने कहा - ‘मेरी बात सुनकर अर्जुन सर की आवाज तो बिलकुल मरी-मरी हो गई। जैसे उनमें जान ही नहीं रही हो। मैंने अपने बेटे से कहा कि वह सर का और उनकी फेमिली का ध्यान रखे। बाद में धरमू अर्जुन सर को मनासा छोड़ कर आया तो बताया कि जब मैं अर्जुन सर से बात कर रहा था फेमिली ने भोजन के डिब्बे खोल कर परोसना शुरु कर दिया था। लेकिन मुझ से यह खबर सुनकर अर्जुन सर उदास हो गए और सब से दूर, एक ओर जाकर माथा झुकाकर खड़े रह गए। उन्होंने भोजन भी नहीं किया। घरवालों ने खूब कहा लेकिन उन्होंने भोजन नहीं किया तो नहीं ही किया। बाकी घरवालों ने भोजन किया और सब मनासा चले आए। पूरे रास्ते अर्जुन सर चुपचाप बैठे रहे। शायद उन्होंने फेमिली को भी यह खबर घर पहुँचने के बाद दी होगी।’
सुरेश की बातों ने मुझे मन की तलहटी तक भीगो दिया। मैं अर्जुन से अत्यधिक निकटता का दावा करता हूँ लेकिन मैं उस पर सन्देह कर बैठा! मैंने उसकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा और प्रतीक्षा की! मुझे तो अपने मन से उसके मन की बात समझनी चाहिए थी! लेकिन मैं उसकी परीक्षा लेने लगा और इस परीक्षा में खुद ही फेल हो गया।
बाद में मैंने उससे पूछताछ की तो उसने सहज भाव से कहा - ‘ऐसी बातें कहने-सुनने की कहाँ होती हैं? वे तो महसूस करने की होती हैं। तू तो खुद ही परेशान था। क्या कहता? और फिर! तू तो मुझे अच्छी तरह जानता है! तुझसे क्या कहना-सुनना?’
मेरे पास उसकी बात का जवाब न तब था न अब है। सन्देह करने के अपने अपराध को, उसके सामने कबूल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। अब यह सब लिखकर अपना मन हलका कर रहा हूँ।
मुझे माफ करना अर्जुन! मैंने अपना अविश्वास तुम पर थोपने का अपराध किया। माफ करना।
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बाँये सुरेश नागदा दाहिने नन्दलाल नागदा
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