ऑपेरा, हिन्दी, भीड़, किशोर और गर्भवती नारी


बर्लिन से बब्‍बू को
दूसरा पत्र - चौथा हिस्सा

यहाँ आकर यदि कोई ऑपेरा नहीं देखे तो यात्रा अधूरी मानी जाती है। हम लोगों को सौभाग्य से विश्व प्रसिद्ध कला सर्जक ऑपेरा आराध्य जर्मन लेखक  स्व. मोजार्ट का ऑपेरा ‘दी एस्केप’ अनायास देखने को मिल गया। यहाँ का आपेरा मंच चूँकि दुरुस्त किया जा रहा है इसलिये इसका प्रदर्शन कोई 300 लोगों की उपस्थिति में एक पुराने डान्स हाल में, फर्श पर किया गया। चिली, बल्गेरिया, जर्मन और पोलैण्ड के कलाकारों ने यह भव्य संगीत कथा जब बिलकुल हमसे कोई 7 या 8 फीट दूरी पर, ठीक हमारे सामने, फर्श पर प्रस्तुत की तो हम लोग साँस रोके देखते रह गये। यह एक सुल्तान के हरम से दो बेगमों को, उनके प्रेमियों द्वारा भगाये जाने की सुखान्त नाटिका है। कोई पर्दा नहीं। कोई सेट नहीं। हाँ, कोई 70 लोगों का कर्ण मधुर आर्केस्ट्रा अवश्य था। संगीत संचालक पसीने से नहा गया था। पहिली बार मैंने किसी जर्मन सर्वांग सुन्दरी नारी को इतने पास से इस देश में देखा था। यह इस ऑपेरा की नायिका थी। यहाँ की सुप्रसिद्ध गायिका भी है। ऑपेरा का रूप हमारे ‘माच’ और खास तौर पर ‘भोई’ से बिलकुल मिलता है। सवा दो घण्टे के इस प्रदर्शन में सम्वाद तो हमारे किसी की समझ में एक अक्षर भी नहीं आया पर अभिनय इतना अद्भुत था कि कथानक क्षण-क्षण प्राणों में उतरता चला गया। दो घटनाएँ इस आपेरा की मुझे सदा याद रहेंगी। एक तो समाप्ति पर बजी तालियाँ। कोई बीस मिनिट लगातार सारा सभागार तालियों से गूँजता रहा और कलाकार अभिवादन स्वीकार करते रहे। दूसरा, इस प्रदर्शन पर यहाँ के विजिटर्स बुक में लिखी मेरी टिप्पणी। मुझसे इस प्रदर्शन पर आपेरा की संचालिका ने कुछ लिखने का आग्रह किया। मैंने एक पृष्ठ की टिप्पणी हिन्दी में लिखी। जब संचालिका और नायिका को बताया गया कि यह टिप्पणी ‘हिन्दी’ में है तो दोनों ने उस पृष्ठ को भाव विभोर होकर चूम लिया। मैं इसे हिन्दी का गौरव मानता हूँ। मेरा यह विशेषाधिकार रहा कि मेरी टिप्पणी पर एक अन्तर्राष्ट्रीय लोक-नायिका-गायिका के ओठ भावाकुलता से लगे। मैंने तब उन्हीं के सामने अपने कलम को चूम लिया था। मैं और कर भी क्या सकता था?

भीड़ का चरित्र: रैली के सम्बन्ध में
आज हम लोग एक अन्तर्राष्ट्रीय रैली के दर्शक बने। 12 सितम्बर इस पूरे देश में फासिस्ट विरोधी दिवस के तौर पर मनाया गया। बड़े सबेरे नौ बजे यह रैली एक सभा में बदल गई। दो लाख की आबादी वाले इस शहर में कल शाम ऐसी कोई चहल-पहल नहीं थी। पर सुबह के नौ बजते-बजते शहर के मुख्य चौक में कोई पचास-साठ हजार आबाल-वृद्ध नर-नारी राष्ट्र पताकाओं और बैण्डबाजों की धुनों के साथ बिलकुल संयत होकर जुट गये। तीन या चार भाषण हुए। मंच पर कोई कुर्सी नहीं थी। जमीन पर कोई बिछात नहीं। मंच पर दस-दस की पंक्ति में पचास आदमी खड़े थे। सामने हजारों की भीड़। दस बजते-बजते सारी भीड़ न जाने कहाँ समा गई। न कहीं ट्रेफिक रुका, न कोई चिल्लपों मची, न सभा स्थल पर कोई गन्दगी  हुई, न कोई अनहोनी। सारा शहर एक घण्टे भर में वापस रविवार के सन्नाटे में डूब गया। 

उसके बाद हम लोग इसी काउण्टी की सरकारी बोट में बाल्टिक सागर तक सैर करने चले गये। इस सैर में खूब कविताएँ और खूब ठहाकेबाजी हुई। यहाँ आकर मुझे अहसास हुआ कि मैं यूरोपीय स्तर की अंग्रेजी बोल भी लेता हूँ। समझ भी लेता हूँ। कविताएँ मैं हिन्दी में लिखता और गाता हूँ।  श्री क्लोफर उनका जर्मनी में अनुवाद करते हैं। जर्मनी के लिये अंग्रेजी अनुवाद श्री प्रसाद और श्री सेठ करते हैं पर मैं अब यह काम खुद भी कर लेता हूँ।

मैं बात भीड़ की कर रहा था। भीड़ को सलीके और शिस्त से रास्ते लगाने के लिए अच्छी सड़कों का होना बहुत जरूरी है। मैं लिख चुका हूँ कि यहाँ की सड़कें खूब चौड़ी और चमकीली हैं। उनसे लगे ही हुए दोनों तरफ सबसे पहिले सायकल पाथ हैं। सायकल वालों का रास्ता कोई तीन फीट चौड़ा छोड़ने के बाद फिर पैदल चलने के लिये रास्ता है। सायकलें यहाँ बहुत हैं पर भारतीय सायकलों की तरह खूबसूरत नहीं हैं। अक्सर महिलाएँ, बच्चे और किशोर सायकलों पर भागते हैं। मोटरें, कारें और सायकलें यहाँ तेज अवश्य चलती हैं पर अन्धाधुन्ध नहीं। तीन साल के बच्चे को बिना पेडल की सायकल थमा दी जाती है। वह निश्चिन्त होकर इन सड़कों की उप सड़कों पर अपनी सायकल चलाता रहता है। यह सायकल भी दो पहियों की ही होती है।
वास्तव में बच्चों पर यह देश तभी से ध्यान देना शुरू कर देता है जब वह गर्भ में होता है। गर्भवती महिलाओं की इतनी देखभाल राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी-साम्यवादी देश में ही सम्भव है। गर्भवती नारी को यह देश राष्ट्रमाता का दर्जा देता है। उसका धारित गर्भ वस्तुतः राष्ट्र होता है। इस बहस में जी. डी. आर. कभी नहीं पड़ा कि गर्भ में लड़का है या लड़की। गर्भ के एक-एक दिन का हिसाब रखा जाता है और गर्भवती को अतिरिक्त सुख, सन्तोष और समुल्लास दिया जाता है। वन्दनीय है यह आराधना।

किशोरों और जवानों को अलग से यूथ क्लब की व्यवस्था दी गई है। 18 वर्ष का नागरिक यहाँ मतदान का अधिकारी है। यह राष्ट्र की अमानत और भविष्य होता है। यूथ क्लबों पर उपन्यास लिखे जा सकते हैं। उनका अनुशासन और कठोर प्रवर्तन, निर्मम नहीं आकर्षक है। 17 बरस का होते-होते विद्यार्थी कम से कम 100 मार्क (भारतीय 400 रुपये) प्रशिक्षण वृत्ति पाने लगता है। डिग्री, डिप्लोमा या सर्टिफिकेट, जैसी उसकी प्रतिभा और रुझान हो, उसके लिए अवसर का हर द्वार खुला है। सम्भावनाओं का क्षितिज निस्सीम है। वह शिकायत नहीं, प्रयत्न करने पर बाध्य है। राजनीति से वह जुड़े या नहीं जुड़े, कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उसे स्वतन्त्र चिन्तन का पूरा अवसर मिलता है। लेकिन उसके आसपास का वातावरण ही ऐसा है कि वह राजनीति, समाजवाद, प्रगति, कठोर श्रम, अनुशासन, राष्ट्रीयता और विश्व-बन्धुत्व की चेतना से जुड़ जाता है। राजनीतिक दलों और मजदूर संघों के विशाल आराम देह कार्यालय यहाँ दर्शनीय हैं। उनमें पुस्तकालय से लेकर टी. वी. तक की सुविधा है। पार्टियों के कार्यालय यहाँ इतने विशाल और आधुनिकतम हैं कि भारत में बड़े से बड़े उद्योगपति का कार्यालय इतना साधन-सम्पन्न नहीं होगा। हाँ, उनमें साज सजावट बिलकुल नहीं है पर सुविधाएँ सभी हैं।


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