ये हैं, नीलू और बी डी। नीलू, मेरी छोटी बहन और बी डी याने बाबूदासजी बैरागी, मेरे जीजाजी। इन्हें यह ‘बी डी’ नाम मैंने ही दिया है। हम कक्षापाठी पहले रहे। जीजा-साले बाद
में बने। यह चित्र इनके विवाह की पचासवीं वर्ष गाँठ के अवसर का। दस मई 1968 को इनका विवाह हुआ था। विवाह की पचासवीं सालगिरह इन दोनों ने बहुत ही साधारण तरीके से अपने घर में ही मनाई। दोनों, मन्दसौर जिले की मल्हारगढ़ तहसील के गाँव बूढ़ा मे रहते हैं। बूढ़ा गाँव बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन भरपूर समृद्ध गाँव है। पाटीदार बहुल इस गाँव में, आज की तो मुझे नहीं मालूम लेकिन चालीस-बयालीस बरस पहले तक यहाँ, ट्रेक्टर ट्रालियाँ बनाने की कम से कम पैंतीस औद्योगिक इकाइयाँ थीं। मेरे पैतृक गाँव मनासा से बूढ़ा की दूरी मात्र तीस किलोमीटर है।
दस मई के तीसरे दिन, तेरह मई को सुबह-सुबह बी डी ने नीलू से अचानक कहा - ‘चलो! भाई साहब (बालकविजी) से मिल आते हैं।’ नीलू तैयार नहीं थी। बोली कि पहले कहा होता तो चले चलते। लेकिन आज के लिए तो कुछ काम निकाल रखे हैं। आज नहीं, अगले रविवार को चलेंगे।
लेकिन वह अगला रविवार नहीं आया। अब कभी आएगा भी नहीं। उसी शाम सात बजते-बजते उसे दादा के निधन का समाचार मिल गया। रात के नौ बजने से पहले ही दोनों पति-पत्नी मनासा में दादा के शव के पास बैठे थे।
दादा के निधन से दुःखी तो हम सब हैं। अब भी हैं। लेकिन नीलू और बी डी तनिक अधिक दुःखी हैं। शायद आजीवन रहेंगे। जब-जब भी याद आएगा, तब-तब दुःखी होते रहेंगे - ‘काश! उस दिन मनासा चले गए होते! दादा से मुलाकात हो गई होती।’ ये दोनों शेष जीवन इसी कसक के साथ जीएँगे।
ये हैं श्री नरेन्द्र नाहटा। मेरे नरेन्द्र भाई सा’ब। मन्दसौर निवासी हैं। मनासा के विधायक और मध्य प्रदेश सरकार में मन्त्री रह चुके हैं।
दादा के निधनोपरान्त उनके दाह संस्कार में और उठावने में आए तो आए ही। बाद में भी आए। हर बार खुद को कोस रहे थे। बता रहे थे कि वे हर महीने-दो महीने में दादा से मिलने नियमित रूप से मनासा आया करते थे। कह रहे थे - ‘मैं जब भी दादा से मिल कर जाता तो उनसे कुछ न कुछ ऐसी बात लेकर जाता था जो जिन्दगी भर काम आती है। इस बार ही ऐसा हुआ कि मैं आना टालता रहा और टालते-टालते तीन-साढ़े तीन महीने निकल गए। पहले की तरह ही वक्त पर आ जाता तो कुछ न कुछ मिल जाता। अब वह कभी नहीं मिलेगा।’ अब, जब भी कभी, कहीं दादा की बात चलेगी तब, कोई ताज्जुब नहीं कि नरेन्द्र भाई सा’ब को हर बार अपनी यह ‘चूक’ याद आ जाए।
यह चित्र मेरे छोटे बेटे तथागत और उसकी अर्द्धांगिनी नन्दनी का है। दस दिसम्बर 2017 को इनकी भाँवर पड़ी है। इनके विवाह में दादा आए थे और पूरे दो दिन हम सबके
साथ रहे थे। लेकिन ये दोनों चूँकि वर-वधू थे, इसलिए दादा के साथ बहुत ही कम उठ-बैठ पाए।
दादा के बारे में नन्दनी की जानकारियाँ शून्यवत हैं। उसने कहा कि विवाह के बाद उसे दादा के बारे में बहुत सारी बातें सुनने को मिल रही हैं। लेकिन वह कुछ नहीं जानती। उसने कहा - ‘पापाजी! मुझे ताऊजी के बारे में कुछ बताइए ना!’ मैंने कहा कि मैं कितना भी बता दूँ, कम ही होगा। मैंने उसे सलाह दी - ‘तुम दोनों कम से कम दो दिनों के लिए दादा के पास मनासा जाओ। उनके साथ रहो। उनसे बातें करो। उन्हें लोगों से बातें करते देखो-सुनो। तुम्हें काफी कुछ जानने-समझने को मिलेगा। वह जानना-समझना तुम्हारे लिए नींव का काम करेगा क्योंकि वह सब तुम खुद देखोगी-सुनोगी। उसके बाद जब-जब तुम्हें कुछ जानना हो तो अपन बात करते रहेंगे।’ नन्दनी को यह बात जम गई थी। उछल कर बोली थी - ‘हाँ पापाजी! यही ठीक रहेगा। जल्दी ही यह विजिट मेनेज करते हैं।’ लेकिन पेकेजवाली नौकरियाँ हमारे बच्चों को अपने लिए और अपनेवालों के लिए वक्त कहाँ देती हैं? सो, ये दोनों, दो दिनों के लिए दादा के पास जाते उससे पहले ही दादा अपने 'चार दिन' पूरे कर चले गए। नन्दनी अब बात-बात में कहती है - ‘आपके कहते ही हम चले जाते तो कितना अच्छा होता पापाजी!’ दादा को लेकर अब उसके पास इस एक वाक्य के अलावा शायद ही कुछ बचा हो।
इन तीन मामलों के बाद चौथा मामला मैं खुद हूँ। तीन दिन पहले मैंने उपाध्याय सर के निधन पर अपनी बात कही थी। मेरी वह बात मेरे आलस्य की आत्म स्वीकृती थी। जनवरी 2017 में उपाध्याय सर से मुलाकात क फौरन बाद यदि मैंने वह सब लिख दिया होता तो आज मैं अपराध बोध से ग्रस्त नहीं होता। लेकिन मैं हर बार टालता गया और खुद ही अपराधी बन बैठा। अब मैं आजीवन खुद को सजा देता रहूँगा।
ऐसे अनेक छोटे-छोटे पछतावे हममें से प्रत्येक के पास हैं। ये पछतावे हम ही जुटाते हैं। मन जब भी कुछ कहता है, माँगता-सलाह देता है तो मस्तिष्क उसे परे धकेल देता है। विवेक पर बुद्धि भारी पड़ जाती है। बाद में, जब रेत मुट्ठियों से फिसल चुकी होती है तो हम अपने खाली हाथ देखते हुए खुद को कोसते रह जाते हैं।
दिल की सुन लेने पर, मुमकिन है, ‘दो-पैसों’ का नुकसान हो जाए लेकिन जो दौलत हासिल होगी, वह अनमोल ही होगी।
आईए! दिल की सुनें। कभी-कभी घाटे के सौदे भी बड़े फायदेमन्द होते हैं। जिन्दगी को कसकते रहने से बचाते हैं।
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