पाकिस्तानियों ने हम भारतीयों को हरा दिया। यदि हराया नहीं है तो, कम से कम यह सन्देश तो दे ही दिया है कि हम गलत रास्ते पर चल पड़े हैं। पाकिस्तानी संसद के चुनावों में इस्लामी आतंकी हाफिज सईद का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत पाया। हाफिज के निकट सम्बन्धी भी चुनावों में उम्मीदवार थे। उनमें से भी कई नहीं जीत पाया। पाकिस्तान मतदाताओं ने सारी दुनिया को जता दिया कि वे अमनपसन्द कौम हैं और वे धार्मिक आतंकवाद को खारिज, अस्वीकार करते हैं।
धार्मिक कट्टरता के सन्दर्भ में वहाँ की प्रगतिशील कवयित्री फहमीदा रियाज ने पाकिस्तान को ‘नरक’ तक कहा था। कोई तेरह बरस पहले वे, भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने के आतंकी, उन्मादी उपक्रम देख वे चौंकी थी। अपनी मनोदशा उन्होंने, ‘तुम बिलकुल हम जैसे निकले’ शीर्षक कविता से व्यक्त की थी। लोगों ने ढूँढ-ढूँढ कर इसे पढ़ा था और सबने इसे भरपूर व्यापक किया था। अपनी संसद के चुनाव परिणामों से वे निश्चय ही खुश हुई होंगी। लेकिन भारतीय सन्दर्भों में उनकी यह कविता भविष्यवाणी जैसी लगती है। ‘आदित्यहृदयस्तोत्रम्’ में ‘कवि’ को सूर्य का पर्यायवाची कहा गया है। याने ‘कवि’, सूर्य की ही तरह ‘त्रिकालदर्शी’ होता है। 2005 में लिखी अपनी इस कविता में फहमीदा रियाज भारत का भविष्य बाँचती लगती हैं।
पाकिस्तानी संसद के चुनाव परिणामों ने हलकी सी आशा जताई है - लोग सेना के राजनीतिक हस्तक्षेप को पसन्द नहीं करते हैं। वे सेना को सारी मुसीबतों की जड़ मानते हैं। जानते हैं कि पाकिस्तान की तमाम सरकारें सेना की कैदी होती हैं। उन्होंने साबित कर दिया कि धार्मिक कट्टरता और आतंक को सेना ही पाल-पोस रही है। चुनावों के दौरान उन्होंने सेना और आईएसआई के विरुद्ध प्रदर्शन भी किए। यह रोचक विसंगति है कि सारी दुनिया इमरान खान को सेना की कठपुतली ही मान रही है। देखना रोचक होगा कि प्रधान मन्त्री के रूप में इमरान पाकिस्तानी जनता की भावनाओं से कैसे तादात्म्य बैठाते हैं।
लेकिन हम क्या कर रहे हैं? पाकिस्तानी जनता जिन हालात से मुक्ति चाह रही है, हम उन्हीं हालात की ओर बढ़ रहे हैं। पाकिस्तानी लोग धार्मिक आतंकवाद को नकार रहे हैं और हम अपनी जगविख्यात सहिष्णुता, उदारता, समरसता, नम्रता, छोड़ कट्टरता को गले लगाने को ‘राष्ट्र भक्ति’ साबित करने में लग गए हैं। चारों ओर नफरत, वैमनस्य, भय, आतंक, बैर पसर रहा है। जिस बात के लिए हम पाकिस्तान की आलोचना करते हैं, वही बात खुद अमल में लाने को जरूरी कर रहे हैं। इस्लामी कट्टरता का जवाब हिन्दू कट्टरता से न केवल दे रहे हैं बल्कि इसे उचित, जरूरी मान रहे हैं और इससे आगे बढ़कर इस पर गर्व कर रहे हैं।
गए दिनों मुझे हुए एक अनुभव से आप भी रू-ब-रू हाइए।
वे तीन भाई हैं। एक भाई केन्द्र सरकार के उपक्रम में अफसर थे। सेवा निवृत्त होकर, दोनों भाइयों साथ व्यापार कर रहे हैं। बीच बाजार में उनकी दुकान है। जिस सामान का व्यापार करते हैं, वैसी दुकानें मेरे कस्बे में पाँच भी नहीं होंगी। छोटा-मोटा ‘मोनोपॉली बिजनेस’ मान लीजिए। तीनों के मित्र मण्डल और ग्राहकों में मुसलमानों की बड़ी संख्या है। कइयों से तो सघन घरोपा है। एक भी मुसलमान मित्र या ग्राहक ने कभी कोई कष्ट नहीं दिया। किसी ने वादाखिलाफी, बेवफाई, विश्वासघात नहीं किया। किसी ने उधारी का पैसा नहीं हड़पा। अपने एक भी मुसलमान मित्र या ग्राहक से, तीनों में से किसी को कोई शिकायत नहीं है। लेकिन तीनों का कहना है ‘मुसलमान हम हिन्दुओं का हक मार रहे हैं। सारी सरकारी सबसीडी खा रहे हैं। अस्पतालों में जाओ तो ये ही ये नजर आते हैं। सरकारी नौकरियों में भरे पड़े हैं। इनका इलाज तो होना ही चाहिए था। इनके साथ जो हो रहा हैै वो बहुत अच्छा हो रहा है। जरूरी है। यह तो बहुत पहले हो जाना था। अब मोदी इनका इलाज कर रहा है।’ मैंने तीनों से, इनकी बातों की पुष्टि में आँकड़े या अनुभव माँगे तो बोले - ‘आप यूँ एक-एक करके पूछोगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा। लेकिन हैं ऐसे ही। इसी काबिल हैं।’ मैंने पूछा - ‘आपको निजी तौर पर किसी से कोई शिकायत नहीं और आपके पास न तो घटनाएँ हैं न ही आँकड़े। फिर आप ऐसा किस आधार पर कह रहे हैं?’ जवाब वही मिला - ‘आप एक-एक करके पूछोगे तो कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन ये हैं इस काबिल ही।’ मैंने पूछा - “आप ‘मान कर’ कह रहे हैं या ‘जान कर’ कर कह रहे हैं?” जवाब आया - ‘आपको जो समझना हो समझ लो, मानना हो तो मानो, नहीं मानना हो तो मत मानो। लेकिन हैं ये इसी काबिल।’ केन्द्र सरकार के उपक्रम से सेवानिवृत्त हुए भाई से मैंने पूछा - ‘आप तो सरकारी अफसर रह चुके हैं! कानून-कायदे जानते हैं। आप लोगों के ये जवाब क्या वाजिब हैं?’ फौरन जवाब मिला - ‘देखो! विष्णु भैया! आप बातों में उलझाओ मत। एक बार कह दिया ना कि ये लोग हैं इसी काबिल! बस! कह दिया सो कह दिया।’
तीनों मुझसे खिन्न थे। बातचीत बढ़ने की गुंजाइश खत्म हो चुकी थी लेकिन मुझे तसल्ली नहीं हो रही थी। मैंने कहा कि ‘निपटाने’ का यह सिलसिला आज विधर्मियों पर लागू है लेकिन आनेवाले समय में यह ‘राजनीतिक असहमतों’ से होता हुआ ‘व्यक्तिगत असहमतों’ तक आकर कभी आप पर भी आ सकता है। बोले - ‘वो तो होगा ही। लेकिन वो भी मंजूर। लेकिन इनका इलाज तो होना ही चाहिए। मोदी वही कर रहा है। बढ़िया है।’ मैंने बात को व्यापारिक सन्दर्भों की ओर मोड़ी - ‘आपका तो मोनोपाली बिजनेस है। नोटबन्दी और जीएसटी से आपको तो कोई फरक नहीं पड़ा?’ चिहुँक कर बोले - ‘क्या बात करते हो विष्णु भैया? व्यापार तो व्यापार है! फरक कैसे नहीं पड़ा? पड़ा और अच्छा-खासा पड़ा। ऐसी मार पड़ी है कि अभी तक कमर सीधी नहीं हो रही है।’ मैंने पूछा - ‘अब तो आप व्यापारियों की पार्टी की ही सरकार है! अब तो आपको कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए!’ जवाब मजेदार मिला - ‘देखो विष्णु भैया! आज की तारीख में तो इस सरकार में व्यापार का भट्टा बैठा हुआ है। छोटे व्यापारी का तो बाजार में बैठना ही मुश्किल हो गया है। सच्ची बात तो यह है कि व्यापार तो हम काँग्रेसी राज में ही करते थे। लेकिन अपन तो मोदी के पीछे हैं। व्यापार समेटना पड़े तो समेट लेंगे। घर बैठना पड़ेगा तो बैठ जाएँगे। लेकिन इन मुसट्टों का तो इलाज होना ही चाहिए। और मोदी यह कर रहा है। अपन तो इसी में खुश हैं।’ समूचे सम्वाद में मुझे फहमीदा रिआज बराबर याद आती रही। उनका कहा सच होते मैं अपनी आँखों देख रहा था, अपने कानों सुन रहा था।
मुझे गुस्सा नहीं आया। ताज्जुब भी नहीं हुआ। अब मैंने खुद को ऐसे जवाबों के लिए अच्छी तरह तैयार कर लिया है। लेकिन जर्मनी याद आता रहा। हिटलर ने नस्लवाद को सरकारी सुरक्षा, संरक्षा दी थी। लेकिन वहाँ के लोग आज खुद को हिटलर से जोड़ने पर शर्मिन्दा होते हैं। दुनिया से माफी माँगते हैं। धार्मिक कट्टरता और धर्मान्धता दम्भ से शुरु होती है और लज्जा, अपराध-बोध और आत्म-ग्लानि पर समाप्त होती है। बरसों पहले, मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री द्वारका प्रसादजी मिश्र ने कहा था - ‘दंगे तो मुख्यमन्त्री कराता है।’ जाहिर है, ‘कानून और व्यवस्था’ वही और वैसी ही होती है जैसा सरकार चाहती है। अनुचित पर सरकारों की चुप्पी अपने आप मेंं एक बयान होतीी है।
इस समय हम यही, नफरतों से भरा बयान सुन रहे हैं जो कह रहा है - पाकिस्तानियों ने हम भारतीयों को हरा दिया है।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 02 अगस्त 2018
तत्काल सन्दर्भ के लिए फहमीदा रिआज की कविता यहाँ प्रस्तुत है -
तुम बिलकुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छुपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमे हमने सदी गँवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई बहुत बधाई
प्रेत धरम का नाच रहा है
कायम हिन्दू राज करोगे?
सारे उलटे काज करोगे
अपना चमन दराज करोगे
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिन्दू कौन नहीं है
तुम भी करोगे फतवे जारी
होगा कठिन यहाँ भी जीना
दाँतों आ जायेगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
यहाँ भी सबकी साँस घुटेगी
कल दुःख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आई
तुम बिलकुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई !
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुण गाना
आगे गड्ढा है ये मत देखो
वापस लाओ गया ज़माना
मश्क करो तुम आ जायेगा
उलटे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आये
बस पीछे ही नज़र जमाना
एक जाप सा करते जाओ
बारम-बार यही दोहराओ
कितना वीर महान था भारत
कैसा आलिशान था भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-08-2018) को "मत घोलो विषघोल" (चर्चा अंक-3052) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही प्रासंगिक परन्तु गुलाक़ब् की टहनी जैसा समझदार खुशबू लेगा या काँटों को कोसेगा देखना महत्वपूर्ण होगा।सलाम
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