हम आजादी का बहत्तरवाँ जलसा मना रहे हैं। बच्चे-बच्चे के मन में आजादी की खुशी और उल्लास की रोशनी महसूस होनी चाहिए। लेकिन नहीं हो रही। यह रोशनी मुट्ठी भर हाथों में कैद नजर आ रही है। लोगों की आँखों में डर और दहशत छायी हुई है।
विधायी सदनों में दागियों, अपराधियों की बढ़ती उपस्थिति से सर्वोच्च न्यायालय चिन्तित है। आज से नहीं, बरसों से। इन्हें इन सदनों से बाहर बनाए रखने के उपाय तलाश करने के लिए सरकार से लगातार कह रहा है। सरकारें मना नहीं करतीं। लेकिन उपाय भी नहीं करतीं। इन पर रोक लगाने के लिए कानून जरूरी है। कानून विधायी सदनों में बनते हैं जहाँ वे ही लोग बैठे हैं जो सर्वोच्च न्यायालय के लिए चिन्ता का विाय बने हुए हैं। यह आशावाद का चरम बिन्दु है - चीलों से, गोश्त की सुरक्षा की उम्मीद की जा रही है। ये लोग जनता की सुरक्षा और न्याय दिलाने के लिए कानून बनाते हैं। ये ऐसे ही कानून बनाते हैं जो इन्हें सुरक्षित रख सकें। ये ही देश की वास्तविक जनता हैं।
विधायी सदनों में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। देहातियों, किसानों, मजदूरों की उपस्थिति इन सदनों में कम होती जा रही है। आँकड़े बताते हैं कि 165 अरबपति पुनर्निवाचित हुए हैं। ये अरबपति लोग देश के गरीबों की बेहतरी की नीतियाँ बनाते हैं। ‘गरीब’ की अपनी-अपनी परिभाषा है। अरबपति आदमी के लिए करोड़पति गरीब होता है। आँकड़े कहते हैं कि देश की बाईस प्रतिशत सम्पदा पर देश के एक प्रतिशत लोगों का कब्जा है। एक अन्य सर्वेक्षण कहता है कि देश की 78 प्रतिशत दौलत, देश के तीन प्रतिशत लोगों की तिजोरियों मे जमा है। गरीबों की चिन्ता में दुबले हुए जा रहे हमारे इन निर्वाचित ‘जनप्रतिनिधियों’ को खेत, खेती, किसान फूटी आँखों नहीं सुहाते। खेती की जमीन इनकी आँखों में खटकती है। खेती में जमीन बेकार ही खपाई जा रही है। इस जमीन पर भारी कारखाने लगाए जा सकते हैं।
साफ नजर आ रहा है, देश और समाज की प्राथमिकताएँ बदल दी गई हैं। समाजवादी सामाजिक की रचना, सामाजिक जुड़ाव, सर्वधर्म समभाव, अन्तिम आदमी की बेहतरी जैसी बातें तो अब हाशिये से भी धकेली जा रही हैं। नफरत की दुकानें सजी हुई हैं। दलितों, शोषितों, वंचितों से जीने का अधिकार छीना जा रहा है। गर्मी के मौसम में तीन दलित युवक सार्वजनिक कुए के ठण्डे पानी में तैरने उतर गए तो सवर्णों की गरमी के शिकार हो गए। तीनों की सार्वजनिक पिटाई कर दी गई। एक दलित ने ठाकुरों की तरह मूँछें रख लीं तो उसकी मूँछें नोच ली गईं और अधमरा कर दिया गया। दलित अपनी शादियों का जलसा नहीं रचा सकते। उनकी बारातें पुलिस रक्षा में निकलती हैं। उनके लिए मन्दिरों के दरवाजे बन्द हैं। नजर बचाकर कोई अन्दर चला गया तो भक्त उसकी वह दशा करते हैं भगवान भी उसे बचा नहीं पाता। बुद्धिजीवियों, पत्रकारों की हत्या अब सामान्य घटना होती जा रही है। हो भी क्यों नहीं? सत्ता के पहरुए, बुद्धिजीवियों को एक लाइन में खड़ा कर, गोलियों से भून देने की बात खुले आम कहते हैं। भ्रष्टाचार के गवाहों को दिनदहाड़े सड़क पर कुचला जा रहा है। देख सब रहे हैं लेकिन चुप हैं।
सब कुछ बदला जा रहा है। नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं। ‘राष्ट्र’ को परे धकेल दिया गया है और ‘राष्ट्रवाद’ परोसा जा रहा है। जिन कामों, बातों से देश बनता है, वे सब काम और बातें ‘वर्जित सूची’ में डाली जा रही हैं। जिन्होंने देश से गद्दारी की, वे लोगों की वफादारियों के प्रमाण-पत्र जारी कर रहे हैं। भारत माता की महाआरतियाँ हो रही हैं लेकिन भारत की माताएँ देहातों में नंगी घुमाई जा रही हैं। ‘एक शाम - भारतमाता के नाम’ के आयोजन होते हैं लेकिन भारत माँ के बेटों को सड़कों पर घेरकर मार दिया जाता है। संविधान और कानून की दुहाइयाँ दी जाती हैं लेकिन भीड़तन्त्र, उच्छृंखलता और जंगल के कानून को मान्यता दी जाती है।
हमने आजादी का मोल नहीं जाना। आज भी नहीं जान पा रहे हैं। कहते हैं, मुफ्त की चीज की कदर नहीं होती। रक्त क्रान्ति के बिना शायद ही किसी देश को आजादी मिली हो। इतिहास देखें तो लगता है, हमें आजादी बहुत ही सस्ते में मिल गई। खून हमने भी बहाया, प्राणोत्सर्ग हमने भी किया, अनगिनत नौजवानों ने अपने सपने इस देश पर कुरबान कर दिए, माँओं ने अपने बेटे, बहनों ने भाई और सुहागनों ने सिन्दूर गँवाया। लेकिन फिर भी दूसरे देशों के मुकाबले हमने बहुत कम कीमत चुकाई। शायद इसीलिए हमने अपनी आजादी का मोल नहीं समझा। हमने आजादी को केवल अधिकार मान लिया और भूल गए कि यह हमारी जिम्मेदारी भी है।
सात अगस्त 1942 को, भारत छोड़ो आन्दोलन प्रस्ताव पर बोलते हुए गाँधी ने गिनती के वाक्यों में काफी-कुछ कह दिया था - ‘स्वतन्त्रता प्राप्त करते ही आपका काम खतम नहीं हो जाएगा। हमारी कार्ययोजना में तानाशाहों के लिए कोई जगह नहीं है।......अगर आप सच्ची आजादी पाना चाहते हैं तो आपको मेल-जोल पैदा करना होगा। ऐसे मेल-जोल से ही सच्चा लोकतन्त्र पैदा होगा।’ इसके कुछ ही बरसों बाद, संविधान सभा में अपने अन्तिम भाषण में अम्बेडकर ने कहा था - ‘यदि हम भारतीय, पंथ और मत को देश पर हावी होने देंगे तो आजादी शायद हमेशा के लिए खतरे में पड़ जाएगी।.......सामाजिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता अधूरी है।’ आज लग रहा है, हम इस खतरे की अनदेखी कर रहे हैं और अधूरेपन को बढ़ा रहे हैं। यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हम पूरी तरह रीत जाएँगे और अपने खाली हाथ देखते रहेंगे। अम्बेडकर ने तब आह्वान किया था - ‘समता और न्याय के सिद्धान्त पर आधारित समाज की रचना का संकल्प लें और जुट जाएँ।’ यह कह कर अम्बेडकर वस्तुतः गाँधी की बात को ही आगे बढ़ा रहे थे।
लेकिन हम वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं। हम आजाद बने रहें, यही हमारी चाहत हैं। लेकिन भूल जाते हैं कि आपदाएँ भेदभाव नहीं करतीं। लेकिन हवेलियाँ/कोठियाँ आग और बाढ़ से सुरक्षित ही रहती हैं। बाढ़ में तटवर्ती कच्चे मकान, झोंपड़े ही बहते हैं और आग भी इन्हें ही घेरती है। यह देश कच्चे मकानों/झोंपड़ों का देश है, कोठियों/हवेलियों का नहीं। आजादी हमारी जरूरत भी है और जिम्मेदारी भी।
यह सब देख-देख कर कवि गिरिजा कुमार माथुर अचानक ही बड़ी शिद्दत से याद आ जाते हैं। 15 अगस्त 1947 की आधी रात जब नेहरू संसद के सेण्ट्रल हॉल में स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधान मन्त्री के रूप में भाषण दे रहे थे और पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा था, तब उन्होंने लिखा था - ‘आज विजय की रात, पहरुए! सावधान रहना।’ कवि त्रिकालदर्शी होता है। माथुरजी ने आजादी के पहले ही पल हमें आगाह किया था। हम अनसुनी करते रहे। माथुरजी ने हमें आजादी के ‘पहरुए’ कहा था। हम उपभोक्ता बन गए। बीत गई सो बीत गई। खूब भोग लिया आजादी का आनन्द। अब बारी आ गई है जिम्मेदारी निभाने की। हम ही इसे लाए हैं। हम ही इसे बचा सकते हैं। हम ही इसे बचाएँगे।
समता और न्याय के सिद्धान्त पर आधारित समाज की रचना का संकल्प लें और जुट जाएँ।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 15 अगस्त 2018
सार्थक पोस्ट । शुभकामनाएं ।
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