मैं इन्दौर में था। सर्व सुविधा नगर से महू नाका जाने के लिए नौ नम्बर की बस में सवार। मेरी अगली सीट पर बैठे दो बन्दे बहस में व्यस्त थे। सुबह-सुबह का वक्त। दोनों ही जवान और ताजादम। एक अति उत्साह में, बढ़-चढ़कर बोल रहा था। दूसरा शान्त भाव और संयत स्वर में, लगभग निर्विकार भाव से बोल रहा था। पहलेवाला मोदी समर्थक था। दूसरा किसका समर्थक था, यह तो मालूम नहीं हो पा रहा था लेकिन मोदी समर्थक नहीं था। बहस का विषय नया और अनूठा नहीं था। चारों ओर जो हो रहा है, वही विषय था। आगे, अपनी बात सुविधाजनक रूप से कहने के लिए मैं दोनों को क्रमशः ‘मोस’ (मोदी समर्थक) और ‘मोसन’ (मोदी समर्थक नहीं) कहूँगा।
मोसन - तुम ये जो सब कर रहे हो, ठीक नहीं है। नीदर फेयर नार गुड।
मोस - व्हाट डू यू मीन? क्या कर रहे हैं हम लोग?
मोसन - यही! मनमानी, मारापीटी। किसी पर हमला कर देना। जान ले लेना। इट इज एनार्की। (यह अराजकता है।)
मोस - नो! इट इज नाट एनार्की। इट इज जस्टिस। वी आर डूइंग जस्टिस। (नहीं! यह अराजकता नहीं है। हम तो न्याय कर रहे हैं।)
मोसन - यही तो एनर्की (अराजकता) है। तुम कौन होते हो जस्टिस करनेवाले? कोर्ट्स आर देयर फॉर जस्टिस। (न्याय करने के लिए न्यायालय है।)
मोस - कोर्ट टेक्स ए लांग टाइम। वी हेव नो टाइम एण्ड नो पेशंस। वी काण्ट वेट। एण्ड मेनी टाइम्स कोर्ट्स डिलीवर डिसिजंस ओनली। दे डोण्ट डू जस्टिस। (न्यायालय बहुत समय लेते हैं। हमारे पास न तो समय है न ही धैर्य। और कई बार तो न्यायालय केवल फैसला सुनाते हैं। न्याय नहीं करते।)
मोसन - व्हाट रबिश! यू आर रिजेक्टिंग ज्यूडिशियरी आट राइट! यू आर एडमिटिंग देट यू आर डूइंग एनार्की। (क्या बेवकूफी है! तुम न्यायपालिका को सिरे से ही खारिज कर रहे हो! कबूल कर रहे हो कि तुम अराजकता फैला रहे हो।)
मोस - डू यू फील सो? देन, लेट इट बी सो। (तुम्हें ऐसा लगता है? ठीक है! यही सही।) अब तो यही चलेगा।
मोसन - यू आर बिहेविंग इन सच ए मेनर देट यू पीपुल हेव गॉट द चेयर फॉर एव्हर। इट इज पब्लिक टू डिसाइड, नॉट यू। नोट इट! पब्लिक विल नॉट एसेप्ट इट। दे विल किक यू। (तुम तो इस तरह व्यवहार कर रहे हो जैसे कि तुम्हें कुर्सी स्थायी रूप से मिल गई है! यह तुम नहीं, जनता तय करेगी। लिख लो, जनता यह कबूल नहीं करेगी। लात मार कर तुम्हें भगा देगी।)
मोस (खुल कर हँसते हुए। जैसे ‘मोसन’ की खिल्ली उड़ा रहा हो) - पब्लिक? व्हेयर इज पब्लिक? इज एनी वन स्पीकिंग? एव्हरीवन इज सायलेंट। कीपिंग मम। इट मीन्स, दे आर एग्री विथ अस। नॉट एग्री ओनली! दे आर सपोर्टिंग अस टू। (लोग? कहाँ हैं लोग? एक भी बोल रहा है? सब चुप हैं। इसका मतलब है, वे हमसे सहमत हैं। केवल सहमत ही नहीं, वे हमारा समर्थन भी कर रहे हैं।)
मोसन (अचानक हिन्दी में बोलने लगा। शायद अंग्रेजी में खुद को व्यक्त नहीं कर पा रहा था) - साइलेंस का मतलब हर बार सहमति नहीं होता। रेप की विक्टिम (शिकार) औरत का मुँह दबा दिया। वह बोल नहीं सकती। इसका मतलब क्या वह रेप को एग्री है? रेप को सपोर्ट कर रही है? नो। यू आर रांग। यू आर मिसलीडिंग, मिसइण्टरप्रीटिंग। (नहीं! तुम गलत कह रहे हो। गलत व्याख्या कर रहे हो।) फॉरगेट नॉट! अपने यहाँ नर को नारायण और जनता को जनार्दन कहा गया है। पब्लिक एक लिमिट तक सहन करती है। वह बोलती नहीं। चुपचाप अपना डिसीजन सुना देती है। पब्लिक ही गॉड है और गॉड की लाठी की आवाज नहीं आती।
‘मोसन’ की यह बात सुनकर मैं चौंक गया। मुझे 1977 के लोक सभा चुनाव याद आ गए। अब मुझे ‘मोस’ और ‘मोसन’ की बातें नहीं सुनाई दे रही थीं।
उस समय मैं मन्दसौर में दैनिक ‘दशपुर दर्शन’ का सम्पादक था। काँग्रेस ने मन्दसौर संसदीय क्षेत्र से रतलामवाले बंसी भाई गाँधी को उम्मीदवार बनाया था। इन्दौरवाले महेश भाई जोशी उनके चुनाव संचालक बनकर मन्दसौर आए थे। ‘दशुपर दर्शन’ के मालिक सौभाग्यमलजी जैन काँग्रेस की सक्रिय राजनीति में थे। महेश जोशी उनके नेता थे। अपनी रणनीति की बुनावट के तहत महेश भाई ने ‘दशपुर दर्शन’ की भूमिका के बारे में सौभाग भाई से बात की। उन्होंने मुझे आगे कर दिया। मैंने कहा कि यदि एक ही पक्ष की बातें छपेंगी तो दूसरा पक्ष अखबार पढ़ना ही बन्द कर देगा। इसलिए खबरों में शालीन सन्तुलन रहेगा। महेश भाई का कहा मुझे अभी भी शब्दशः याद है - “ये ‘नईदुनिया’ वाली, ‘तेरी भी जय और उसकी भी जय’ नहीं चलेगी।’’ फैसला हो चुका था। चुनाव तक मैं लगभग पूरी तरह फुरसत में हो गया।
मन्दसौर जिले के अग्रणी काँग्रेसी नेता (स्वर्गीय) भँवरलालजी नाहटा ने मुझे पकड़ लिया। वे ‘कवरेज’ के लिए अपनी, देहातों की आम सभाओं में मुझे ले जाने लगे। हम लोग शाम आठ बजे निकलते। नौ बजते-बजते पूर्व निर्धारित गाँव पहुँचते। आम सभा शुरु होती। लगभग पूरा का पूरा गाँव, आबाल-वृद्ध सभा में पहुँचता। बिछात छोटी पड़ जाती। कहीं-कहीं महिलाएँ भी बड़ी संख्या में आतीं। किसी गाँव में दो-एक स्थानीय वक्ता होते। कहीं-कहीं अकेले नाहटाजी ही अकेले वक्ता होते। नाहटाजी बहुत अच्छा बोलते थे। बीच-बीच में मालवी में भी बात करते। आम सभा देर तक चलती। कभी-कभी आधी रात तक। नाहटाजी की आम सभाएँ ‘प्रचण्ड सफल’ कहलाने की अधिकारिणी होती थीं।
आम सभा की शानदार और प्रचण्ड सफलता से गद्गदायमान नाहटाजी लौटते में मेरी प्रतिक्रिया पूछते। मैं उनकी मनमाफिक बातें नहीं कर पाता। वे तुनक जाते। मेरी टप्पल में धौल टिकाते हुए कहते - ‘पूरा का पूरा गाँव सभा में मौजूद था। सबके सब आखरी तक बैठे रहे। एक बच्चा भी उठ कर नहीं गया। एक भी आदमी ने कोई सवाल नहीं उठाया। तुझे कुछ भी नजर नहीं आया?’ मैं कहता - ‘यह सब तो मुझे नजर आया बाबूजी! लेकिन मुझे और भी कुछ नजर आया।’ वे पूछते - ‘तुझे ऐसा क्या नजर आया जो मुझे नजर नहीं आया?’ मैं कहता - ‘मैंने देखा कि आपके भाषण के दौरान कोई अपनी जगह से नहीं हिला। किसी ने कोई सवाल तो नहीं पूछा लेकिन एक भी आदमी हँसा भी नहीं। एक बार भी तालियाँ नहीं बजीं। सब ऐसे बैठे थे जैसे थानेदार ने जबरन उन्हें बैठा रखा हो। मुझे तो ऐसा लगा जैसे आप जिन्दा लोगों को नहीं, गेहूँ के बोरों को भाषण दे रहे थे।’ मेरी बात सुनकर नाहटाजी और ज्यादा नाराज होते थे। कहते थे - ‘तुम अखबारवाले स्साले! किसी के सगे नहीं होते। तुम्हें कुछ भी अच्छा नजर नहीं आता।’ मैं चुप रहता। बोल कर अपनी टप्पल में धौल कौन खाए?
चुनाव परिणाम ने देश को ही नहीं, दुनिया को हिला कर रख दिया। आम सभाओं में गूँगे रहनेवाले, गेहूँ के बोरों की तरह निर्जीव, चुपचाप भाषण सुननेवाले लोग बिना मुँह खोले ऐसे बोले कि इतिहास बन गया। बंसी भाई गाँधी हार गए। लेकिन बंसी भाई कहाँ लगते? खुद इन्दिरा गाँधी ही हार गईं। गूँगे लोगों ने उन्हें इतिहास के कूड़े के ढेर पर फेंक दिया।
‘मोसन’ की बात इकतालीस बरस पीछे खींच ले गई। मैं अपने में लौटा तब तक वे दोनों उतर चुके थे। इस बात पर ‘मोस’ का जवाब नहीं सुन पाया। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जनार्दन की लाठी की आवाज सुन ली हो और वह चुप रहा गया हो?
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 09 अगस्त 2018
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