दो दिन मैं खूब हँसा। किसी और पर नहीं, खुद पर ही। लेकिन खुल कर नहीं। कुछ इस तरह कि हँसी दिखाई भले ही दे लेकिन सुनाए किसी को नहीं।
केमरा मुझे बचपन से ही अपनी गिरफ्त में लिए हुए है। छुपाए जाने वाले इश्क की तरह। कभी धन की कमी तो कभी वक्त की। यूँ तो जिन्दगी आसान ही बनी रही किन्तु इतनी भी नहीं कि दुनिया को भूल कर केमरा थाम लूँ। हाँ, लेकिन यह जरूर हुआ और लगातार होता रहा कि जब-जब जिन्दगी ने मौका दिया, केमरे को सहला लिया।
आग्फा क्लिक-III मेरा पहला केमरा था। बड़ी ही मुश्किलों में खरीदा था। लेकिन एक तो उससे जुड़े रीलों, रीलों की धुलाई, फोटुओं की बनवाई के खर्चों ने दिमाग दुरुस्त कर दिया और दूसरे, बाल-बच्चेदार बैरागी को जिन्दगी ने तनिक अधिक व्यस्त कर दिया।
लेकिन चार बरस पहले अचानक ही केमरा खरीदने की मरोड़ें उठने लगीं। खुद को ही कोई कारण और औचित्य नजर नहीं आ रहा था केमरा खरीदने का। महीनों तक द्वन्द्व चलता रहा। इस बार यह द्वन्द्व बुद्धि और विवेक के बीच नहीं, मन और विवेक के बीच था। बुद्धि जब-जब भी बीच में आई, मन ने झिड़क दिया। विवेक समझाता रहा लेकिन मानना तो दूर, मन तो सुनने को ही तैयार नहीं हुआ। मन इतना बदमाश बना रहा कि किसी और से पूछने, सलाह लेने से भी रोके रखा। कम से कम चार महीनों तक यह बेकली, बेचैनी बनी रही। और अन्ततः, अपनी जेब पर डाका डाल कर निकान डी 5100 केमरा खरीद ही लिया। चैन तो पड़ा लेकिन अचानक ही अपराध बोध भी मन पर हावी हो गया। दशा यह हो गई कि किसी को केमरा बताना/दिखाना तो दूर, किसी को सूचना देने की भी हिम्मत नहीं रही। वैसे भी रतलाम में बात करूँ, रास्ता पूछूँ भी किससे? दुनिया भर में रतलाम का नाम रोशन करनेवाले ख्यात केमरा कलाकार देवेन्द्र भाई शर्मा मुझ पर आदरभरा स्नेह रखते थे। केमरा लेकर, रात के अँधेरे में उनसे मिला। वे बड़े खुश हुए। खूब तारीफ की, हिम्मत बँधाई और प्रेरित किया। कुछ प्रारम्भिक निर्देश दिए। तय हुआ कि अगले रविवार को मुझे उनके पास बैठना है। लेकिन वे भी उलझे रहे और मैं भी। और वह रविवार कभी नहीं आया। अब आएगा भी नहीं।
केमरा, बेग में ही बन्द पड़ा रहा। फरवरी 2016 में अण्डमान गया तो केमरा साथ ले गया। वहाँ ढेर सारे फोटू लिए। परिजनों और कुछ मित्रों को दिखाए। सबने तारीफ ही की। लेकिन मन की झेंप रत्ती भर भी कम नहीं हुई। आत्म विश्वास तो कभी रहा ही नहीं था।
एक दिन अखबार से अचानक ही मालूम हुआ कि रोटरी
क्लब प्राइम के सहयोग से, रतलाम का सृजन केमरा क्लब, 30 अगस्त से 01 सितम्बर के बीच, ख्यात अन्तरराष्ट्रीय केमरा कलाकार श्री चित्रांगद कुमार की तीन दिवसीय फोटो प्रदर्शनी और दो दिवसीय वर्क शॉप आयोजित कर रहा है। समाचार ने मन को उकसाया और मैं अपना केमरा लटका कर पहुँच गया। चित्रांगदजी का भारी-भरकम नाम तो पहले से ही सुना हुआ था, कुछ महीनों पहले जब देवेन्द्र भाई की स्मृति में एक आयोजन हुआ था तब महावीरजी वर्मा ने उनसे परिचय भी कराया था।
पहली शाम तो प्रदर्शनी के उद्घाटन में ही बीत गई। चित्रांगदजी से औपचारिक बातें हुईं। मैंने वर्क शॉप में शामिल होने की इच्छा जताई। उन्होंने अत्यधिक गर्मजोशी से मुझे सहमति दी। वर्क शॉप का समय बताया अगले दिन दोपहर तीन से पाँच बजे।
तय समय पर मैं पहुँचा। आयोजकों के अलावा लगभग पचास बच्चे जुटे हुए थे। तीस बरस से अधिक उम्र का शायद ही कोई बच्चा रहा होगा। सबने मुझे अजूबे की तरह ही देखा। मेरे हौसले पस्त हो गए। लेकिन मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ बना रहा। कुर्सियाँ लगभग सारी भर गई थीं। मैं सबके पीछेवाली कुर्सी पर बैठा। (सबसे आगेवाली कुर्सी मिलती भी तो भी मैं वहाँ बैठने की हिम्मत तो नहीं ही जुटा पाता।) उसके बाद से ही खुद पर हँसने का सिलसिला शुरु हो गया।
चित्रांगदजी ने बात शुरु की तो कुछ ही पलों में सारे बच्चे उनसे जुड़ गए। मेरी स्थिति बड़ी विचित्र थी। एक तो उम्र। दूसरे, मुझे वैसे भी थोड़ा कम सुनाई देता है। तीसरे, सबसे पीछे बैठना। चौथे, तेज गति से चल रहे पंखों से उपज रही सरसराहट का शोर। पाँचवें, सभागार की कम ऊँचाई और खिड़कियाँ कम होने से आवाज का गूँजना। छठवें, चित्रांगदजी का तेजी से बोलना। और इन सबसे आगे बढ़कर, मेरी, विषय की ज्ञान-शून्यता। सारे बच्चे तकनीक और तकनीकी ज्ञान से लैस। उनकी बातें, उनकी शब्दावली मेरे लिए तो ‘काला अक्षर, भैंस बराबर’ थी। पहले ही पल मैं ‘गूँगा-बहरा दर्शक’ की बन कर रह गया। उधर, चित्रांगदजी ने मुझसे कुछ पूछा तो मैंने कानों पर हाथ रखकर इशारा किया - ‘मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा।’ उन्होंने बुला कर अपने पास बैठा लिया। अब मुझे सुनाई तो सब दे रहा था लेकिन ‘केमरा’, ‘लेंस’, ‘आब्जेक्ट’, ‘क्लिक’ जैसे शब्दों के सिवाय कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। उम्र के लिहाज से मेरी दशा ‘बछड़ों के बीच बूढ़ा बैल’ और ज्ञान के लिहाज से ‘स्नातक कक्षा में घुस आया पहली का छात्र’ जैसी थी। अपनी यही दशा मुझे खुद पर हँसाए जा रही थी। लेकिन अजीब बात यह रही कि वहाँ से भागने का विचार पल भर भी मन में नहीं आया।
दूसरे, अन्तिम दिन चित्रांगदजी ने अपने खींचे विभिन्न चित्रों के जरिए काफी-कुछ समझाया। एक बच्ची को मॉडल बनाकर प्रकाश व्यवस्था/प्रबन्धन समझाई। मुझसे भी एक फोटू क्लिक करवाया। लेकिन समझ के मामले में मेरी दशा में कोई अन्तर नहीं आया। मुझे लगा तो बहुत अच्छा लेकिन सूझ-समझ कुछ नहीं पड़ा। मैं वहाँ बराबर बना रहा। मेरी झेंप लगभग समाप्त हो गई - यह सबसे बड़ा हासिल रहा मेरे लिए।
कल शाम, वर्क शॉप से लौटते समय, देवेन्द्र भाई के बेटे हरीश के जरिए चित्रांगदजी को आज सुबह की चाय मेरे साथ पीने के लिए न्यौत कर आया था। हरीश उन्हें तो लाया ही, सृजन केमरा क्लब के संस्थापकों में से एक (और रतलाम के पुराने केमरा कलाकार) श्री कमल उपाध्यायजी को साथ लेकर आया। कोई घण्टा भर हम लोग बैठे। मैंने, अण्डमान में खींचे फोटू उन्हें दिखाए। वे चुपचाप देखते रहे। उनकी चुप्पी मुझे भयभीत बनाए रही। सूर्योदय श्रृंखला का एक चित्र देखकर जब उन्होंने सहसा ‘वाह!’ कहा तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरा डर एकदम छू हो गया। सारे फोटू दिखाने के बाद मैंने पूछा - ‘मैं आगे बढ़ूँ या केमरे को ताला लगा दूँ?’ उन्होंने कहा - ‘नहीं! नहीं!! आप रुकिए नहीं। आगे बढ़िए। बाहर निकलिए।’
उनकी इस बात ने मेरा हौसला और आत्म विश्वास बढ़ाया है। मैं सृजन केमरा क्लब का सदस्य बन रहा हूँ। झेंप तो समाप्त हो ही गई है। आत्म विश्वास भी बढ़ा है।
दो दिन खुद पर हँसने का यह हासिल बुरा नहीं।
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वर्क शॉप के कुछ चित्र दे रहा हूँ। इतने चित्र एक साथ देने का मौका पहली बार आया है। इसलिए इन चित्रों का न तो को सिलसिला है न ही सलीका।
मैंने तो अब तक आप के जितने भी फोटोग्राफ्स देखे हैं दादा उससे तो मुझे यही लगा कि आप बहुत अच्छे फोटोग्राफर है बहरहाल यह आपकी सरलता है आगे बढ़ते रहें।
ReplyDeleteयह आपकी आत्मा की सुन्दरता है जो ऐसा कह रहे हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, नए दौर की गुलामी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद। आभारी और कृतज्ञ हूँ।
Deleteकैमरे का उपयोग करते रहे भाई साहब,आप भी अच्छे कैमरामैन बन जायेंगे । प्रकृति को समेटते रहा करिये अपने कैमरे में और हमें भी भेजते रहिए ।
ReplyDeleteवाह!! जब जागो तब सवेरा ही होता है। कैमरे के विषय में मेरा ज्ञान तो बस इतना है पॉइंट करो और शूट करो। इससे ज्यादा कुछ नहीं पता। आपका लेख प्रेरक है। बस, एक ललक मन में रह गई कि जिस चित्र को देखकर वाह निकली थी वह चित्र भी इधर होता तो मुझे भी वाह करने का मौका मिल जाता।
ReplyDeleteआने वाले चित्रों की प्रतीक्षा है।
कैमरा चलाना एक विज्ञान भी है और कला भी ।एक बेहतरीन छायांकन में कलाकार का मन बोलता है ।
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