लोकोक्तियाँ एक दिन में नहीं बनतीं। पीढ़ियों के अनुभवों
का निचोड़ होती हैं लोकोक्तियाँ। प्रत्येक लोकोक्ति के
अपवाद जरूर मिल जाएँगे लेकिन इस बात का क्या कीजिए कि अपवाद सदैव सामान्य नियमों की ही पुष्टि करते हैं। ऐसी ही एक लोकोक्ति है - ‘पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी।’ सारी दुनिया की छोड़ दीजिए, अनेक पुलिसवालों को यह लोकोक्ति उच्चारते हम सबने सुना होगा - कभी परिहास में तो कभी चेतावनी की तरह। लेकिन सबके अपने-अपने अनुभव होते हैं। पुलिसवालों को लेकर मेरे भी अनेक अनुभव हैं। लोकानुभवों पर सवाल उठाए बिना कह पा रहा हूँ, मेरे ये सतरंगी अनुभव सुखद अधिक रहे हैं। दुःखद अनुभव अपवाद ही रहे।
हम बीमा एजेण्टों को कभी-कभार दफ्तर की प्रक्रियाओं के जुर्माने भुगतने पड़ते हैं। कभी हँस कर तो कभी दुःखी होकर हम लोग ये जुर्माने कबूल कर लेते हैं। लेकिन कभी-कभी स्थिति होती है कि जुर्माना हमारी सामान्य सामर्थ्य से बाहर हो जाता है। तब प्रक्रिया में चूक करनेवाले कर्मचारी पर बन आती है और जुर्माना उसे चुकाना पड़ता है। लेकिन तब ऐसी स्थिति में एजेण्ट प्रायः ही स्वैच्छिक स्तर, प्रसन्नतापूर्वक उस कर्मचारी के जुर्माने में आंशिक भागीदारी कर लेता है।
जुर्माने की यह स्थिति तब बनती है जब दफ्तर की किसी चूक के कारण किसी पालिसीधारक को अधिक भुगतान कर दिया जाता है। विशेषतः पॉलिसी के अन्तिम/परिक्वता भुगतान के समय। यह जानकारी ऑडिट के समय सामने आती है। ऑडिट पार्टियाँ चार-पाँच दिनों के लिए आती हैं। ऑडिट चलने के दौरान ही ये गलतियाँ मालूम हो जाती हैं। यदि ये गलतियाँ ऑडिट रिपोर्ट में शामिल हो जाएँ तो दफ्तर की ‘रेटिंग’ बिगड़ जाती है। इसलिए दफ्तर की कोशिश होती है कि ऑडिट रिपोर्ट बनने से पहले, अधिक भुगतान की गई ऐसी रकम जमा करा दी जाए। चूँकि पॉलिसी पूरी हो चुकी होती है इसलिए अपना भुगतान मिलने के बाद ग्राहक द्वारा अपनी ओर से, दफ्तर से सम्पर्क करने की सम्भावनाएँ पूरी तरह समाप्त हो जाती हैं। कानूनी प्रक्रिया तो यह है कि दफ्तर उस ग्राहक को पत्र लिख कर अधिक भुगतान की गई रकम वापस जमा करने के लिए कहे। लेकिन पत्र लिखने में ही इतना समय लग जाता है कि ऑडिट पार्टी के लौटने का दिन आ जाता है। तब, सम्बन्धित एजेण्ट से मदद का ‘आग्रह’ किया जाता हैै। हमारे काम की प्रकृति ही ऐसी है कि हम एजेण्टों को कुछ न कुछ ‘पाप’ करने ही पड़ते हैं। कुछ तो ऐसे ‘पापों’ का अपराध बोध और कुछ यह कि दफ्तर से काम तो रोज-रोज पड़ता है। थोड़ी राहत यह कि यह रकम सामान्यतः एजेण्ट की ‘सहन शक्ति की सीमा’ में होती है। सो एजेण्ट प्रायः ही अपनी जेब से यह रकम जमा कर देते हैं और ऑडिट रिपोर्ट में दफ्तर की रेटिंग बिगड़ने से जाती है।
ऐसा ही एक मामला मेरे ग्राहक का सामने आया। लेकिन रकम थी - पूरे साढ़े सात हजार रुपये। मेरी भी सहन शक्ति से बाहर और बाबू की सहन शक्ति से भी। लेकिन, रकम जमा करने के लिए मुझसे कहे कैसे? एक तो मैं मेरी शाखा का सबसे पुराना एजेण्ट। दूसरा सबसे बूढ़ा एजेण्ट भी। तीसरा, मेरा ‘पत्थर मार’ स्वभाव। चौथा और सबसे बड़ा कारण - मैं रतलाम से बाहर और मेरी वापसी, ऑडिट पार्टी की वापसी के बाद। तनिक हिम्मत जुटाकर, बहुत ही हिचकिचाते हुए सम्बन्धित कर्मचारी ने मुझे फोन किया। रकम सुनकर मैंने अविलम्ब इंकार कर दिया। मेरी ओर से मामला खत्म हो गया।
लौटा तो मालूम हुआ कि यह वसूली ऑडिट रिपोर्ट में शामिल कर ली गई थी। सम्बन्धित कर्मचारी से मिला तो वह दोहरा घबराया हुआ। केवल रकम के आँकड़े से ही नहीं, ग्राहक के कारण भी। ग्राहक, एक सेवा निवृत्त पुलिस उप अधीक्षक। एक तो पुलिसवाला, ऊपर से डिप्टी एसपी! कर्मचारी ने जुर्माने को अपनी नियती मान लिया।
लेकिन तभी सहा. प्रशासकीय अधिकारी ने दखल दिया। उन्हें लगा कि रकम तय करने में ऑडिटर ने चूक की है। उनके हिसाब से यह रकम ढाई हजार होनी थी। उन्होंने अपने हिसाब से गणना के ब्यौरे ऑडिट विभाग को भेजे। विभाग ने अपनी चूक मानी और वसूली साढ़े सात हजार से ढाई हजार पर आ गई। हम सबकी सहानुभूति कर्मचारी के साथ थी। उसने घपला तो किया नहीं था! मैंने ग्राहक का नाम पूछा। (तब तक मुझे केवल रकम बताई गई थी, ग्राहक का नाम नहीं।) नाम सुनकर मैं बल्लियों उछल पड़ा। वे मेरे अच्छे मित्र निकले। मैं उन्हें तब से जानता हूँ जब वे उप निरीक्षक (सब इंस्पेक्टर) थे। नाम है - श्री ए. पी. तोमर। रेकार्ड में श्री अनंग पाल सिंह तोमर और दुनियादारी में श्री आनन्द पाल सिंह तोमर। वे खण्डवा में हैं। बहुत ही शानदार आदमी। उनसे बात किए बिना ही मैंने सबको भरोसा दिला दिया कि वे रकम लौटा देंगे। कर्मचारियों ने अविश्वास और हैरत से कहा - ‘लौटा देंगे! आप कैसे कह रहे हैं? आपने बात कर ली उनसे?’ मैंने बताया कि वे ऐसे आदमी हैं जिनसे बात किए बिना ही उनकी ओर से वादा किया जा सकता है। और अधिक अविश्वास और अचरज से मित्रों ने पूछा - ‘क्या बात कर रहे हैं आप? वो पुलिसवाले हैं! पुलिसवाले तो पैसे लेते हैं सर! देते नहीं।’ मैंने हँस कर, उसी बेफिक्री से कहा - ‘आप सच कह रहे हैं। लेकिन मैं भी सच कह रहा हूँ। तोमर सा‘ब मेरे कहते ही पैसे लौटा देंगे।’ सुनकर सब खुश तो हुए लेकिन विश्वास किसी को नहीं हुआ। मानो चुनौती दे रहे हों, कुछ इस तरह बोले - ‘देखते हैं सर!’
मैंने उसी क्षण तोमर सा‘ब को फोन लगाया। पूरी बात बताई और कहा - ‘एलआईसी ऑफ इडिया के नाम पर ढाई हजार का चेक भिजवा दीजिए।’ तोमर सा‘ब ने जवाब दिया - ‘मैं ब्लेंक चेक भेज रहा हूँ। रकम आप भर लेना और मुझे फोन पर बता देना।’ मैंने पूछा - ‘चेक कब तक भेज देंगे?’ उधर से जवाब आया - ‘अब आज तो नहीं भेज पाऊँगा। लेकिन कल पक्का भेज दूँगा। स्पीड पोस्ट से। भेजने का काम मेरा। आप तक पहुँचाने का काम पोस्ट ऑफिस का।’ धन्यवाद देकर मैंने फोन बन्द कर दिया। मुझे घेरे हुए कर्मचारी मित्रों ने अविश्वास से पूरा संवाद सुना।
डाक वितरण व्यवस्था की मौजूदा दशा के आधार पर मेरा अनुमान था कि चेक आने में सात दिन तो लग ही जाएँगे। लेकिन मेरे अनुमान को ध्वस्त करते हुए डाक विभाग ने चौथे ही दिन चेक पहुँचा दिया। चेक लेकर मैं दफ्तर पहुँचा तो सबने उस चेक को हाथ में ले-ले कर दुनिया के आठवें अजूबे की तरह देखा।
सम्बन्धित कर्मचारी गद्गद और विह्वल था। वह मुझे बार-बार धन्यवाद दिए जा रहा था। मैंने रोका और पूछा - ‘अब बोलो! क्या राय है? पुलिसवाले पैसे देते हैं कि नहीं?’ उसने छूटते ही, बिना विचारे (विदाउट थॉट) मासूमियत से जवाब दिया - ‘सर! वो आपको देते हैं। सबको नहीं।’
यह जवाब, लाजवाब था। जोर का ठहाका लगा। सब इस ठहाके में शरीक थे। मैं भी।
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जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 04/09/2018
को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteअच्छे बुरे लोग सभी जगह,सभी विभाग में होते है,जो विष्णु भाई साहब का मित्र होगा,वह अच्छा ही होगा,ऐसा मेरा सोचना है ।
ReplyDeleteहर विभाग में कुछ अच्छे लोग भी काम करते हैं.
ReplyDeleteआप बीती का सुंदर वर्णन.
सुन्दर
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