चुप रहने की बारी अब हमारी है

मेरा विवाह,1976 में, 29 बरस की उम्र में हुआ। मैं, विवाह न करने पर अड़ा हुआ था।उस काल खण्ड के लोक पैमानों के अनुसार मैं आधा बूढ़ा हो चुका था। तब बापू दादा (स्व. बापूलालजी जैन) ने कहा था - ‘तू शादी कर या मत कर। लेकिन याद रखना - काँकर पाथर जो चुगे, उन्हें सतावे काम। घी-शक्कर जो खात हैं, उनकी राखे राम।’ याने, जब अन्न कणों के भ्रम में कंकर-पत्थर चुग जानेवाले पंछियों में भी काम भाव होता है तो स्वादिष्ट, पुष्ट भोजन करनेवाले मनुष्य को तो भगवान ही काम भाव से बचा सकता है। बापू दादा के मुँह से समूचा ‘लोक’ मुझे एक अविराम चैतन्य सत्य का साक्षात्कार करा रहा था।

दो घटनाएँ याद आ रही हैं। पहली अटलजी से जुड़ी है जो लगभग सर्वज्ञात है। अटलजी आजीवन अविवाहित रहे। एक बार किसी ने उन्हें ब्रह्मचारी कह दिया। अटलजी ने उसे सुधारते हुए सस्मित कहा कि वे ब्रह्मचारी नहीं, अविवाहित हैं। छुटपुट राजनीतिक कटाक्षों को छोड़ दें तो सबने अटलजी की इस आत्मस्वीकृती की सराहना ही की थी। उनके यौन विचलन को सहज मान कर ही सराहना की होगी और आश्चर्य नहीं कि सराहना करते समय खुद को अटलजी की जगह देखा हो। दूसरी घटना सम्भवतः 1961 की है। मैं नवमी कक्षा में था। दादा की वजह से देश के कई अखबार डाक से आते थे। उन्हीं में से किसी एक में यह पढ़ी थी। किसी नगर के बड़े, वयोवृद्ध साहित्यकार का नागरिक अभिनन्दन हुआ था। वे अपने अभिनन्दन के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं थे। लेकिन लोग नहीं माने। वे साहित्यकार सर्वथा अनिच्छापूर्वक, लगभग जबरन आयोजन में उपस्थित हुए। उद्बोधन के लिए माइक के सामने खड़े होते ही धार-धार रोने लगे। रोते-रोते ही उन्होंने कहा कि वे नागरिक अभिनन्दन के नहीं, कुम्भी पाक नरक का दण्ड पाने के अपराधी हैं। उन्होंने  माँ समान भाभी के साथ नारकीय दुष्कृत्य किया था। उनका यह कहना हुआ कि लोगों ने उनके जिन्दाबाद के नारे लगाने शुरु कर दिए और कार्यक्रम समापन पर उन्हें अपने कन्धों पर बैठाकर घर पहुँचाया। 

एक कवि सम्मेलन में यह परिहास सुना था। गाँव में आयोजित नसबन्दी शिविर में पहुँचा एक दम्पत्ति झगड़ रहा था। दोनों अपनी-अपनी नसबन्दी की जिद कर रहे थे। डॉक्टर को अच्छा तो लगा लेकिन उसे महिला की जिद पर आश्चर्य हुआ। उसने महिला को समझाया कि पुरुष सामान्यतः नसबन्दी के लिए तैयार नहीं होते। तू भाग्यशाली है कि तेरा पति खुद तैयार है। महिला ने कहा - ‘डॉक्टर सा’ब! आप मरद हो। नहीं समझोगे। मेरे दो जेठ और तीन देवर हैं। मैं किस-किसकी नसबन्दी कराऊँगी?’ कपोल-कथा समाप्त होते ही स्त्रियों समेत समूचा जनसमुदाय ठहाके मारता हुआ तालियाँ बजा रहा था। 

होली के अनेक भाष्य सुनने-पढ़ने को मिलते हैं। एक भाष्य में इसे हमारी कुण्ठाओं के प्रकटीकरण का ‘सेफ्टी वाल्व’ भी कहा जाता है। साल में एक बार खुले आम गालियाँ देकर हम अपनी कुण्ठाओं से मुक्ति पा लेते हैं। हमने कहा भले ही न हो, कभी न कभी सुना जरूर होगा और सुनकर खूब हँसे भी होंगे - जेठ ने बहू से कहा ‘बहू! याद रखना। साल में एक महीना जेठ का भी होता है।’ 

दो दिन पहले ही, कौन बनेगा करोड़पति का एक वीडियो अंश देखा। हॉट सीट पर बैठी महिला, अपने चहेते अभिनेताओं के नाम बता रही थीं जो उनके सपने में आते हैं। महिला का पति भी श्रोताओं में बैठा था। अमिताभ ने पूछा - ‘आपके पति देवता सपने में नहीं आते?’ महिला ने कहा - ‘नहीं आते।’ अमिताभ ने कहा इसका मतलब हुआ कि वे अपने पति को नहीं चाहतीं। महिला का जवाब था - ‘आप (यहाँ बैठी) हर किसी (स्त्री) से पूछो कि किसके सपने में पतिदेव आता है।’ जवाब तालियों और ठहाकों में डूब गया। हँसनेवालों में उसका पति भी था।

अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी की आत्मकथा ‘एन आर्डिनरी लाइफ-ए मेमॉयर’ इतनी विवादास्पद हो गई कि उन्हें इसकी सारी प्रतियाँ बाजार से वापस लेनी पड़ी। इसमें नवाज ने तीन विवाहित महिलाओं से अपने अन्तरंग सम्बन्धों का नामजद उल्लेख किया था। तीनों महिलाओं ने आपत्ति ली। मामल शायद कोर्ट तक गया। 

ये सारी बातें मैंने सोद्देश्य कही हैं। इनके बहाने मैं कुछ जाने-पहचाने निष्कर्ष दुहराना चाह रहा हूँ। पहला - प्राणी मात्र में काम भावना प्रति पल बनी रहती है। दूसरा - कोई भी मनुष्य, किसी भी विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित हो सकता है। तीसरा - पुरुष प्रधान हमारे समाज में पुरुष को यौनिक स्खलन की छूट, अधिकार भाव से मिली हुई है। चौथा - स्त्री या तो सम्पत्ति है, या वस्तु (क्या चीज है! क्या माल है!) है जो भोग किए जाने के लिए ही बनी है। वह स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं है। उसका अपना कोई अस्तित्व, अपनी कोई इच्छा नहीं है। अपनी यौनेच्छापूर्ति के लिए पुरुष को उससे पूछने, उसकी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। पाँचवाँ - अपने दुराचार की स्वीकृती पुरुष को न केवल सराहना दिलाती है बल्कि उसे बड़ा और महान् भी बनाती है। छठवाँ - स्त्री के लिए योनि शुचिता अनिवार्य, अपरिहार्य है और इस शुचिता की रक्षा भी उसी की जिम्मेदारी है। कोई पुरुष यदि उसे भंग करता है तो यह स्त्री का ही अपराध होगा और उसका दण्ड उसे ही भोगना होगा। देवता, कपटपूर्वक किसी पतिव्रता का शील भंग करे तो भी पत्थर बनने का दण्ड तो शीलवन्ती, पतिव्रता को ही भुगतना पड़ेगा। 

हम सब पुरुष अपनी जवानी के दिनों को, कॉलेज के जमाने को याद करें। कोर्स के बाहर हम किस विषय पर सर्वाधिक बातें करते थे? मित्र मण्डली में हम सब खुद को ‘कामदेव’ और ‘औरतखोर’ (लेडी किलर) साबित करने की प्रतियोगिता में पहला स्थान पाने की कोशिशें नहीं करते थे? कॉलेज की एक भी लड़की से कभी भी बात नहीं की लेकिन यह जताने में कि कौन-कौन लड़की हमारे लिए मरी जा रही है, शेखचिल्ली के खानदान के आदिपुरुष नहीं बन जाते थे? और, ऐसी बातें अब भी नहीं कर रहे? बुड्ढे बन्दर गुलाटियाँ मारना भूल गए? मौका मिल जाए तो अब भी नहीं मारेंगे?

हाँ। मैं ‘मी टू’ के सन्दर्भ में ही यह सब कह रहा हूँ। ‘तब क्यों नहीं बोली?’ पूछनेवाले, पूछने से पहले भली प्रकार जानते हैं कि ‘वो’ तब क्यों नहीं बोली। तब मुझे-आपको ‘सब कुछ’ करने की छूट, सुविधा और विशेषाधिकार हासिल थे लेकिन ‘उसे’ तो अपनी माँ के सामने भी बोलने की सुविधा नहीं थी। कोई बोली भी तो माँ ने ही उसके मुँह पर हाथ रख दिया - ‘आज तो कह दिया। अब कभी मत कहना।’ आज वह बोल पाई है तो केवल इसलिए कि अपनी जिन्दगी जीने के लिए आज वह ‘आपकी-हमारी’ मोहताज नहीं। और इसलिए बोल पाई कि अब उससे अपनी आत्मा का यह बोझ नहीं सहा जा रहा। वह इसलिए भी अब बोली कि कहीं न कहीं उसे भरोसा हो पाया है कि उसकी कही बात, सुनी भी जाएगी और सच भी मानी जाएगी।

अपने चरित्रवान होने की दाम्भिक दुहाइयाँ तो दीजिए ही मत। हम सब जानते हैं कि हम सब (जी हाँ, हम सब) चरित्रहीन होने को उतावले बैठे हुए हैं। बस, वे ही चरित्रवान बने हुए हैं या कि बनने को मजबूर हैं जिन्हें या तो मौके नहीं मिले या फिर मौके मिले तो हिम्मत नहीं कर पाए। और हाँ! अपवादों की बात तो कीजिए ही नहीं। अपवाद अन्ततः सामान्य नियमों की ही पुष्टि करते हैं।

थोड़े कहे को बहुत समझिएगा। चुप रहने की बारी अब हमारी है। चुप रहिए। वर्ना, काँदे के छिलके उतरते जाएँगे और फजीहत की दुर्गन्ध आसमान पर छा जाएगी। कहीं के नहीं रह जाऍंगे।
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'सुबह सवेरे', भोपाल, 18 अक्‍टूबर 2018




5 comments:

  1. एक दम सोलह आने सच।
    सही में चुप होने की बारी अब हमारी है

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  2. आपने बिल्कुल सही कहा है । विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण की यह मानवीय प्रवृत्ति है । इसमें बहने वालों की कमी नहीं है,लेकिन सो चूहे खा कर जब बिल्ली हज कोजाती है,वह बर्दाश्त योग्य नहीं होता है ।

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  3. सत् विचार सत् कर्म और सदाचार यही ऐसी घटना रोक सकती है उसके लिए भगवत भक्ति की ज़रूरत है.

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-10-2018) को "विजयादशमी विजय का, पावन है त्यौहार" (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    विजयादशमी और दशहरा की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. कोटिश: धन्‍यवाद मयंकजी। मेरी बात को व्‍यापकता प्रदान करने के लिए मैं आपका आभारी हूँ।

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