जरूरत और फर्ज का धर्म

जो दुर्व्यसन अहमदाबाद वाले केशवचन्द्रजी शर्मा ने पाल रखा है, वह हम सब भी पाल लें तो नफरत की आग बुझे भले नहीं लेकिन उसकी आँच, उसकी तपन जरूर काफी कुछ हो जाए। वे अहमदाबाद के गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी अखबारों में छपनेवाले ‘असामान्य’ समाचार, जानकारियाँ ढूँढ कर जुटाते हैं और उनकी कतरनें (तथा गुजराती, अंग्रेजी सामग्री के हिन्दी अनुवाद) मुझे भेजते हैं। उनकी भेजी सामग्री आत्मा को शीतलता तो देती ही है, आत्मा को ताकत भी देती है और भरोसा भी दिलाती है कि जितना कुछ नकारात्मक, निराशाजनक, भयानक परिदृष्य पर नजर आ रहा है, परिदृष्य के पीछे उससे बहुत-बहुत ज्यादा अच्छा है। केशवजी की कोशिश उसी ‘बहुत अच्छे’ को सामने लाने की है। 

क्यों कर रहे हैं केशवजी यह सब? क्या फायदा है इसमें उनका? वक्त लगाते हैं, लिखने में मेहनत करते हैं, गाँठ का दाम खर्च करते हैं। क्यों? जिम्मेदारी की भावना से शायद केवल इस आस में कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ एक बेहतर कल हासिल कर सकें। आम के पौधे लगाने जैसा काम कर रहे हैं केशवजी - ‘मैं तो नहीं, लेकिन मेरा पोता रसीले आमों का आनन्द लेगा।’ लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित हो रहे सेतु में अपना योगदान देने केलिए बार-बार गीली होकर रेत में लोटनेवाली गिलहरी लगते हैं केशवजी मुझे। उनकी इसी मौन साधना ने मुझे प्रेरित किया कि उनकी सामग्री को विस्तारित करूँ। याने, रामजी की गिलहरी केशवजी और मैं केशवजी की सहायक गिलहरी।

आप इस सामग्री का आनन्द लीजिए और आपकी आत्मा अनुमति दे तो मेरी ही तरह एक गिलहरी बन, इसे विस्तारित कीजिए। लिख कर न सही, अपनेवालों से, मिलनेवालों से इस सामग्री की और इन कोशिशों की चर्चा करके। 

अच्छी बातों का जिक्र कीजिए ताकि बुरी बातों के जिक्र की गुंजाइश  कम हो।


कोई पचीस बरस पहले इस ‘आज’ की शुरुआत हुई थी। तब किसी को अन्दाज नहीं था कि बात इस मुकाम तक पहुँचेगी। सब कुछ अनायास हुआ। धीरे-धीरे। जैसे, कुम्हार के आँवे में धीरे-धीरे गरम होकर मिट्टी का कच्चा घड़ा पकता है। जेठ-बैसाख की तपती गर्मी में मिट्टी के घड़े का ठण्डा पानी हलक के नीचे उतरता है तो उससे मिलती तृप्ति सब कुछ भुला देती है। याद ही नहीं आता कि यह ठण्डापन पाने के लिए मिट्टी के घड़े ने कितना ताप झेला। उसी ताप की अनुभूति ने ही घड़े को शीतलता प्रदान करने की सीख दी होगी। महबूब मलिक और कोकिला बेन राणा के परिवार ऐसी ही बातों को साकार कर रहे हैं। 

अहमदाबाद से लगी छाटी सी बस्ती के गिनती के परिवारों में ये दो परिवार भी शामिल हैं। यह छोटी सी बस्ती मजदूर पेशा लोगों की है। कोकिला बेन की तीन बेटियाँ - सोनल, दीपिका और चन्द्रिका। तीनों स्कूली बच्चियाँ। कोकिला बेन का काम ऐसा कि सुबह घर से निकलो और शाम का लौटो। बड़ा संकट। काम पर जाए तो घर पर बच्चियाँ अकेली। काम पर न जाए तो अपना और बच्चियों का पालन-पोषण कैसे हो? 

बड़ी झिझक और संकोच सहित कोकिला बेन ने पड़ौसी महबूब भाई से मदद चाही। महबूब भाई ने खुशी-खुशी तीनों बच्चियों की जिम्मेदारी कबूल की। कोकिला बेन की बेटियाँ अब मलिक परिवार की बच्चियाँ बन गईं। तीनों को भोजन कराना, स्कूल भेजना, स्कूल से लौटने पर उनके बस्ते सम्हालना, उनका होम वर्क कराना सब कुछ मलिक परिवार ने अपने जिम्मे ले लिया। जिस चिन्ता और भावुकता से मलिक परिवार ने अपनी जिम्मेदारी निभाई उसे देख-देख ‘ऊपरवाला’ निहाल हुए जा रहा था।

वक्त अपनी चाल चलता रहा और कोकिला बेन, उनकी तीनों बेटियाँ, मलिक परिवार वक्त की चाल से बेखबर अपना-अपना काम करते रहे। दरअसल वक्त ने इनमें से किसी को भी इतना वक्त नहीं दिया कि ये वक्त की ओर देख सकें। बेटियाँ जब प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं को पार कर उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में दाखिल हुईं तो अचानक ही कोकिला बेन को वक्त का भान हुआ। उन्होंने अंगुलियों पर गिनती शुरु की तो लगा अंगुलियों की पोरें कम पड़ जाएँगी। यह अनुभूति होते ही कोकिला बेन की आँखें बहने लगीं। उसी शाम उन्होंने महबूब भाई से कहा - ‘महबूब भाई! मेरी बेटियों की जैसी देखभाल आप सबने की है वैसी तो इनका सगा मामा भी नहीं कर पाता। आपके मुझ पर बड़े उपकार हैं। आपका कर्जा मैं इस जनम में तो नहीं चुका सकती। अगला जनम किसने देखा? मेरी एक अर्जी और कबूल कर लो।’ महबूब भाई भावाकुल दशा में थे। बोले - ‘कैसी बातें करती हो कोकिला बेन! बच्चे तो बच्चे होते हैं। क्या आपके और क्या मेरे! यह तो मेरी खुशनसीबी रही कि एक नेक काम के लिए आपने मुझे मौका दिया और खुदा ने मुझे जरिया बनाया। और आपने यह क्या अर्जी-अर्जी लगा रखी है? आप तो हुकुम करो बेन!’ बहती आँखों को रोकने की कोई कोशिश कोकिला बेन ने नहीं की। भर्राए स्वरों में बोली - ‘बिना किसी रिश्ते के जिम्मेदारी निभाते चले आ रहे हो। आज महरबानी कर दो और मेरे राखी-बन्ध भाई बन जाओ।’ कोकिला बेन का यह कहना हुआ नहीं कि महबूब भाई मानो तीनों बच्चियों से छोटे बच्चे बन कर बिलख पड़े। उनसे बोला नहीं गया। हिचकियाँ लेतेे-लेते ही अपना दाहिना हाथ बढ़ा दिया। और बिना महूरत वाले उस पल में एक रश्तिा बन गया।

वह दिन और आज का दिन। सूत के कच्चे धागे ने दोनों परिवारों को ऐसा बाँधा कि 2002 की नफरत और नृशसंता शर्मिन्दा होकर उल्टे पाँवों लौट गई। सारे त्यौहार दोनों परिवार मिल कर मनाते हैं। ईद की सिवैयों के लिए केवड़े का सत् कोकिला बेन लाती हैं। होली की पापड़ियाँ महबूब भाई के यहाँ से बन कर आती हैं और मुहर्रम का सोग राणा परिवार मनाता है। 

कोकिला बेन की सबसे बड़ी बेटी सोनल के विवाह में महबूब भाई ने मामा का नेगचार पूरा किया। कोकिला बेन नानी बन गई हैं। दोनों परिवार जिन्दगी तो अपनी-अपनी जी रहे हैं लेकिन एक दूसरे की चिन्ता करते हुए और एक दूसरे को धन्यवाद देते हुए। 

एक ने जरूरत में मदद पाने के लिए दूसरे की ओर देखा। दूसरे ने पूरी ईमानदारी से अपना फर्ज निभाया। न जरूरत का कोई धर्म होता है न ही फर्ज का। यह मनुष्यता का अदृष्य धागा ही था जिसने दो परिवारों को बाँध दिया और बाँधे हुए है।
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3 comments:

  1. धन्यवाद विष्णु बैरागी जी, इस सुन्दर पोस्ट के लिए। भीगी आंखों से मैं भी इस संदेश को आगे बढ़ा रहा हूँ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-10-2018) को "मैं तो प्रयागराज नाम के साथ हूँ" (चर्चा अंक-3123) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. अल्लाह इन सबको खुश खुर्रम और आबाद रखें

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