मेरी यह पोस्ट दैनिक ‘सुबह सवेरे’ भोपाल में दिनांक 20 सितम्बर 2018 को (और रतलाम से प्रकाशित साप्ताहिक ‘उपग्रह में 27 सितम्बर को) छप चुकी थी। किन्तु इसका दूसरा भाग प्रकाशित होने तक के लिए मैंने इसे ब्लॉग पर देने के लिए रोक रखा था। आज, 04 अक्टूबर को इसका दूसरा भाग ‘सुबह सवेरे’ में छप गया है जिसे मैं कल ब्लॉग पर दूँगा। मुझे लगा कि दोनों भाग एक के बाद एक देना बेहतर होगा।
एक अखबारी खबर के मुतािबक एक आयोजन में बोलते हुए भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत ने, चुनाव में काला धन रोकने के लिए मौजूदा कानूनों को अपर्याप्त बताया है। मुमकिन है, मुख्य चुनाव आयुक्त ने और भी कुछ कहा हो लेकिन मुझ जैसे पाठकों तक तो केवल एक ही बात पहुँची कि वे केवल एक ही बात पर चिन्तित थे - चुनाव में काले धन को रोकने के लिए।
चुनाव में बढ़ता काला धन हमारी समस्या है तो जरूर लेकिन यह चिन्ता न तो एकमात्र है न ही आधारभूत। जब तक चुनावों का मौजूदा ‘अत्यधिक खर्चीला’ स्वरूप बना रहेगा तब तक काला धन न केवल अपना डंका बजाता रहा बल्कि इसका दखल बढ़ता ही जाएगा। लिहाजा, चुनावों में काले धन को नियन्त्रित करने से पहले, चुनावों को खर्चीला होने से बचाने पर विचार किया जाना चाहिए और यह काम केवल चुनाव सुधारों से ही सम्भव है। लेकिन यही सबसे कठिन काम भी है। इसलिए कि सुधार करने का अधिकार हमारे सांसदों के पास है और उनमें से शायद ही कोई इनमें विश्वास और रुचि रखता हो। यह स्थिति भारतीय चुनाव आयोग के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन इसे केवल चुनाव आयोग की जिम्मेदारी मानकर छोड़ देना हम सबका, सबसे बड़ा अपराध है - मेरे तईं, राष्ट्रद्रोह के स्तर का अपराध।
चुनाव आयुक्त आते-जाते रहेंगे। वे सब अपने-अपने हिसाब से कोशिशें करते रहेंगे। वे जिस वर्ग से आते हैं, उसे मँहगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बाबू राज से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें पड़ता है। लेकिन हम ही उदासीन हैं। आयोग की प्रत्येक पहल अन्ततः हम आम लोगों का हित रक्षण ही करती है लेकिन हम ही इससे उदासीन हैं। हम चाहते हैं कि चुनाव आयोग ताकतवर बने लेकिन हम उसे ताकतवर बनाने में दिलचस्पी नहीं रखते। हम भूल जाते हैं कि हम ही चुनाव आयोग की ताकत हैं।
हमारे मँहगे चुनाव, भ्रष्टाचार सहित अनेक समस्याओं की जड़ हैं। ये जब तक मँहगे बने रहेंगे, काले धन का दबदबा बना रहेगा। आज पार्टियाँ उम्मीदवारों का चयन योग्यता, शिक्षा, चाल-चरित्र, ईमानदारी जैसे मूलभूत गुणों के आधार पर नहीं, ‘जीतने की सम्भावना’ के अधीन करती हैं। यह ‘सम्भावना’ धन-बल, बाहु-बल से जुटाई जाती है। इसी के चलते देश के विधायी सदन कभी-कभी अपराधियों की शरण स्थली अनुभव होने लगते हैं।
चुनाव सुधारों के लिए चुनाव आयोग प्रति पल प्रयासरत नही संघर्षरत रहता है। टी. एन. शेषन से पहले तक चुनाव आयोग ‘नख दन्त विहीन शेर’ था। शेषन ने इसे नई पहचान और नए तेवर दिए। उसके बाद से ही नेताओं को इससे असुविधा होने लगी। लेकिन गए तीन-चार बरसों में शेषन-पूर्व का समय लौटता नजर आने लगा है। इसके बावजूद चुनाव आयोग समय-समय पर जनोपयोगी और लोकतन्त्र की रक्षा करते हुए महत्वपूर्ण सुझाव देता रहता है। ‘नोटा’ ऐसा ही एक सुझाव था जो वास्तविकता बना। किन्तु आयोग के इन सुझावों को जन समर्थन कभी नहीं मिलता।
अभी-अभी आयोग ने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। एक व्यक्ति एक ही स्थान से चुनाव लड़े, दो स्थानों से जीता हुआ व्यक्ति किसी एक स्थान से त्याग-पत्र दे तो वहाँ होनेवाले उप चुनाव का खर्च उससे वसूल किया जाए या, वहाँ दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाए। ये दोनों ही सुझाव ऐसे हैं जिन्हें मंजूर कराने के लिए पूरे देश को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। चुनाव आयोग ने तो यह सुझाव अब दिया है लेकिन मेरे कस्बे के चार्टर्ड इंजीनीयर जयन्त बोहरा कोई बीस बरस पहले ही यह सुझाव दे चुके थे। उनके साथ मिलकर मैंने भी खूब लिखा-पढ़ी की थी। किन्तु कार्रवाई तो दूर रही, मुझे पावती भी नहीं मिली। ‘व्यवस्था’ से जवाब पाना भाग्यशालियों को ही नसीब होता है। लेकिन, त्याग-पत्र देनेवाले से खर्च वसूल करना, मौजूदा व्यवस्था को मजबूत ही करेगा। हमारे नेताओं के पास अकूत धन है। वे आसानी से खर्चा दे देंगे। इसलिए, त्याग-पत्र के बाद वहाँ दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार को ही विजयी घोषित किया जाना चाहिए। तब नेता को, विधायी सदन में एक विरोधी के बढ़ जाने की चिन्ता होगी। इस व्यवस्था से न केवल उप चुनाव के ताम-झाम और उपक्रम से मुक्ति मिलेगी बल्कि लोकतन्त्र के विचार को मजबूती भी मिलेगी।
चुनाव आयोग के इन सुझावों को प्रचण्ड जन समर्थन मिलना चाहिए। आज का समीकरण यह बन गया है कि जो नेता के हित में होता है वह नागरिकों के लिए अहितकारी होता है। इसका विलोम समीकरण यही होगा कि जो नेता के प्रतिकूल होगा वह नागरिकों के अनुकूल होगा। चुनाव आयोग के प्रस्तावित सुधार नागरिकों के अत्यधिक अनुकूल हैं। इन्हें प्रचण्ड जन समर्थन मिलना चाहिए।
अजाक्स, अपाक्स, करणी सेना जैसे संगठनों ने, अपने-अपने कारणों से इन दिनों देश में आन्दोलन छेड़ रखा है। राजनीतिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर लोग जगह-जगह नेताओं-मन्त्रियों से सवाल पूछ रहे हैं, काले झण्डे दिखा रहे हैं, टमाटर फेंक रहे हैं। नेता-मन्त्री गूँगे हो गए हैं। उनके बोल नहीं फूट रहे। वे रास्ते बदल रहे हैं। दौरे निरस्त कर रहे हैं। ये तीन संगठन तो उदाहरण मात्र हैं। मेरा कहना है कि देश भर के तमाम सार्वजनिक संगठनों (इनमें मैं लायंस, रोटरी, जेसी जैसे ‘सेवा संगठनों’ को भी शरीक करता हूँ) ने चुनाव आयोग के प्रस्तावित सुधारों के पक्ष में भी ऐसा ही आक्रामक वातावरण बनाना चाहिए। केवल चुनाव सुधार ही हमें मँहगे चुनावों से मुक्ति दिला सकते हैं।
चुनाव सुधारों में दो सुधार और फौरन शरीक किए जाने चाहिए। पहला, दलबदल करनेवाला अगले छः वर्ष तक किसी दल के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने का पात्र न रहे। वह निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत जाए तो किसी दल में शामिल न हो सके।
दूसरा - चुनावी चन्दे के मामले में मौजूदा सरकार ने, इलेक्टोरेल बॉण्ड की व्यवस्था कर एक पाप किया है। बढ़ती पारदर्शिता के इस समय में यह व्यवस्था काले धन को बढ़ावा देती है। पार्टी के समर्थकों/कार्यकर्ताओं को मालूम होना चाहिए कि उनकी पार्टी किन लोगों से चन्दा ले रही है। इलेक्टोरोल बॉण्ड यह जानकारी छुपाते हैं। यह व्यवस्था फौरन वापस ली जानी चाहिए।
सपाक्स और करणी सेना के आन्दोलन में नोटा का जिक्र खूब हो रहा है - एक धमकी के रूप में तमाम नेता और दल इस धमकी से आतंकित हैं। नोटा का वर्तमान स्वरूप अपर्याप्त और अप्रभावी है। अभी यह असन्तोष प्रकट करने का माध्यम मात्र है। नोटा को एक उम्मीदवार की हैसियत देकर इसे प्रभावी बनाया जाना चाहिए। मेरा तो मानना है कि नोटा को यदि इसके ‘आशय’ (इंटेंशन) के अनुरूप हैसियत दे दी जाए तो हमें शनै-शनै मँहगे चुनावों से ही नहीं, अनेक राजनीतिक समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाएगी जिसकी अन्तिम परिणति भ्रष्टाचार से मुक्ति होगी।
नोटा हमारे ‘लाख दुःखों की एक दवा’ है। यह अलग से स्वतन्त्र आलेख का विषय है। मैं इस पर अवश्य लिखूँगा। शायद अगले सप्ताह ही। लेकिन हम मूल बात को नहीं भूलें - चुनाव आयोग के प्रस्तावित चुनाव सुधारों से हम खुद को जोड़ें, आयोग को ताकत दें। हमने संसदीय प्रणाली अपनाई है। इसलिए चुनाव हमारे लिए अपरिहार्य हैं। हम चुनाव प्रणाली को ऐसी बनाएँ कि आप भी चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा सकें और मैं भी।
हम सब अपने-अपने नेताओं से कहीं न कहीं असन्तुष्ट, अप्रसन्न और दुःखी हैं। हमारे ये नेता चुनाव आयोग से डरते हैं। गोया, चुनाव आयोग परोक्षतः हमारा (और प्रकारान्तर में लोकतन्त्र का) ही मनोरथ साध रहा है। इसलिए भी हमने चुनाव आयोग को खुलकर, मुक्त-हृदय, मुक्त-कण्ठ, मुक्त-मन, मुक्त-धन सहयोग करना चाहिए।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 20 सितम्बर 2018
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